प्रमाण( Evidence) –
भारतीय दर्शन में प्रमाण उसे कहते हैं जो सत्य ज्ञान करने में सहायता करे। अर्थात् वह बात जिससे किसी दूसरी बात का यथार्थ ज्ञान हो। प्रमाण न्याय का मुख्य विषय है। ‘प्रमा’ नाम है यथार्थ ज्ञान का। यथार्थ ज्ञान का जो करण हो अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान हो उसे प्रमाण कहते हैं। गौतम ने चार प्रमाण माने हैं– प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। वैसे आठ प्रमाण बताए गये हैं–
1–प्रत्यक्ष प्रमाण
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अत्राहुर्गोतमाचार्या न्यायशास्त्रे—
इस विषय में आचार्य गौतम कहते हैं—
इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारिव्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्॥
– न्या॰सू॰ 1/1/4
तत्र यदिन्द्रियार्थसम्बन्धात् सत्यमव्यभिचारिज्ञानमुत्पद्यते तत्प्रत्यक्षम्। सन्निकटे दर्शनान्मनुष्योऽयं नान्य इत्याद्युदाहरणम्॥१॥
इनमें से ‘प्रत्यक्ष’ उसको कहते हैं कि जो चक्षु आदि इन्द्रिय और रूप आदि विषयों के सम्बन्ध से सत्यज्ञान उत्पन्न हो। जैसे दूर से देखने में सन्देह हुआ कि वह मनुष्य है वा कुछ और, फिर उसके समीप होने से निश्चय होता है कि यह मनुष्य ही है, अन्य नहीं, इत्यादि प्रत्यक्ष के उदाहरण हैं।
2–अनुमान प्रमाण
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अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टं च॥
– न्या॰सू॰ 1/1/5
यत्र लिङ्गज्ञानेन लिङ्गिनो ज्ञानं जायते तदनुमानम्। पुत्रं दृष्ट्वाऽऽसीदस्य पितेत्याद्युदाहरणम्॥
जो किसी पदार्थ के चिह्न देखने से उसी पदार्थ का यथावत् ज्ञान हो वह ‘अनुमान’ कहाता है। जैसे किसी के पुत्र को देखने से ज्ञान होता है कि इसके माता-पिता आदि हैं, वा अवश्य थे, इत्यादि उसके उदाहरण हैं।
3–उपमान प्रमाण
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प्रसिद्धसाधर्म्यात् साध्यसाधनमुपमानम्॥
–न्या॰सू॰ 1/1/6
उपमानं सादृश्यज्ञानम्। यथा देवदत्तोऽस्ति तथैव यज्ञदत्तोऽप्यस्तीति साधर्म्याद् उपदिशतीत्याद्युदाहरणम्॥३॥
तीसरा ‘उपमान’ कि जिससे किसी का तुल्य धर्म देख कर समान धर्मवाले का ज्ञान हो। जैसे किसी ने किसी से कहा कि जिस प्रकार का यह देवदत्त है, उसी प्रकार का यह यज्ञदत्त भी है, उसके पास जाके इस काम को कर लो। इस प्रकार के तुल्य धर्म से जो ज्ञान होता है, उसको उपमान कहते हैं।
4–शब्द प्रमाण
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आप्तोपदेशः शब्दः।
–न्या॰सू॰ 1/1/7
शब्द्यते प्रत्यायते दृष्टोऽदृष्टश्चार्थो येन स शब्दः। ज्ञानेन मोक्षो भवतीत्याद्युदाहरणम्॥
चौथा ‘शब्द’ प्रमाण है कि जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष अर्थ का निश्चय करने वाला है। जैसे ज्ञान से मोक्ष होता है, यह आप्तों के उपदेश शब्दप्रमाण का उदाहरण है॥४॥
5–ऐतिह्य प्रमाण
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न चतुष्ट्वमैतिह्यार्थापत्तिसम्भवाभावप्रामाण्यात्।
–न्या॰सू॰ 2/2/1
शब्द ऐतिह्यानर्थान्तरभावादनुमानेऽर्थापत्तिसम्भवाभावानामनर्थान्तरभावाच्चाप्रतिषेधः।
–न्या॰सू॰ 2/2/2
न चतुष्ट्वमिति सूत्रद्वयस्य संक्षिप्तोऽर्थः क्रियते—
‘न चतुष्ट्वम्’ इन दो सूत्रों का अर्थ करते हैं—
शब्दोपगतमाप्तोपदिष्टं ग्राह्यम्—‘देवासुराः संयत्ता आसन्’ इत्यादि।
सत्यवादी विद्वानों के कहे अथवा लिखे उपदेश का नाम इतिहास है। जैसा ‘देव और असुर युद्ध करने के लिये तत्पर हुए थे’ जो यह इतिहास ऐतरेय, शतपथ ब्राह्मणादि सत्यग्रन्थों में लिखा है, उसी का ग्रहण होता है, अन्य का नहीं। यह पाँचवां प्रमाण है।
6–अर्थापत्ति प्रमाण
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अर्थादापद्यते सार्थापत्तिः। केनचिदुक्तं सत्सु घनेषु वृष्टिर्भवतीति। किमत्र प्रसज्यते? असत्सु घनेषु न भवतीत्याद्युदाहरणम्।
और छठा (अर्थापत्तिः) जो एक बात किसी ने कही हो, उससे विरुद्ध दूसरी बात समझी जावे। जैसे किसी ने कहा कि बादलों के होने से वृष्टि होती है, दूसरे ने इतने ही कहने से जान लिया कि बादलों के विना वृष्टि कभी नहीं हो सकती। इस प्रकार के प्रमाण से जो ज्ञान होता है, उसको अर्थापत्ति कहते हैं।
7–सम्भव प्रमाण
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सम्भवति येन यस्मिन् वा स सम्भवः। केनचिदुक्तं मातापितृभ्यां सन्तानं जायते, सम्भवोऽस्तीति वाच्यम्। परन्तु कश्चिद् ब्रूयात् ‘कुम्भकरणस्य कोशचतुष्टयपर्यन्तं श्मश्रुणः केशा ऊर्ध्वं स्थिता आसन्, षोडशक्रोशमूर्ध्वं नासिका च’ असम्भवत्वान्मिथ्यैवास्तीति विज्ञायते, इत्याद्युदाहरणम्।
सातवाँ (संभवः) जैसे किसी ने किसी से कहा कि माता-पिता से सन्तानों की उत्पत्ति होती है, तो दूसरा मान ले कि इस बात का तो सम्भव है। परन्तु जो कोई ऐसा कहे कि ‘रावण के भाई कुम्भकरण की मूंछ चार कोश तक आकाश में ऊपर खड़ी रहती थी, और उसकी नाक (16) सोलह कोश पर्यन्त लम्बी चौड़ी थी’, उसकी यह बात मिथ्या समझी जायगी, क्योंकि ऐसी बात का सम्भव कभी नहीं हो सकता।
8–अभाव प्रमाण
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(अभावः) कोऽपि ब्रूयात् घटमानयेति, स तत्र घटमपश्यन्नत्र घटो नास्तीत्यभावलक्षणेन यत्र घटो वर्त्तमानस्तस्मादानीयते।
आठवाँ (अभावः) जैसे किसी ने किसी से कहा कि तुम घड़ा ले आओ, और जब उसने वहाँ नहीं पाया, तब वह जहाँ पर घड़ा था, वहां से ले आया।
इति प्रत्यक्षादीनां संक्षेपतोऽर्थः। एवमष्टविधं दर्शनमर्थाज्ज्ञानं मया मन्यते। सत्यमेवमेतत्, नैवमङ्गीकारेण विना समग्रौ व्यवहारपरमार्थौ कस्यापि सिध्येताम्।
इन आठ प्रकार के प्रमाणों को मैं मानता हूँ। यहाँ इन आठों का अर्थ संक्षेप से किया है। यह बात सत्य है कि इनके विना माने सम्पूर्ण व्यवहार और परमार्थ किसी का सिद्ध नहीं हो सकता। इससे इन आठों को हम लोग भी मानते हैं।
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