महाराज रघु और रघुकुल तमध्वरे विश्वजिति क्षितीशं निःशेषविश्राणितकोशजातम् उपात्तविद्यो गुरुदक्षिणार्थी कौत्सः प्रपेदे वरतन्तुशिष्यः।। रघुवंशमहाकाव्यम् *अध्यायः५श्लोक:१।। अयोध्या नरेश रघु (Raja Raghu) के पिता का दिलिप और माता का नाम सुदक्षिणा था। इनके प्रताप एवं न्याय के कारण ही इनके पश्चात इक्ष्वाकुवंश रघुवंश के नाम से प्रख्यात हुआ।

महाराज रघु ने समस्त भूखण्ड पर एकछत्र राज्य स्थापित कर विश्वजीत यज्ञ किया। उस यज्ञ में उन्होंने अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति दान कर दी। यहाँ तक कि उन्होंने अपने सम्पूर्ण आभूषण और बरतन भी दान कर दिये थे और वे मिट्टी के पत्रों मे भोजन करने लगे थे। ऐसी ही समय में महर्षि वरतन्तु के शिष्य कौत्स (Kautsya) गुरु कि दक्षिणा के लिए राजदरबार में प्रस्तुत हुए।महाराज रघु ने ब्रह्मचारी का स्वागत किया और कुशलक्षेम पूछा। ब्रह्मचारी (Kautsya) ने कहा-‘महाराज! सब कुशल है। आप जैसे चरित्रवान राजा के राज्य में प्रजा का अशुभ कैसे हो सकता है।’अन्त में राजा ने उनके आगमन का कारण पूछा और कहा मेरे योग्य कोई सेवा बताइए। ब्रह्मचारी (Kautsya) ने कहा-‘महाराज! मैंने विद्या पूरी होने पश्चात गुरूदेव से दक्षिणा के लिये निवेदन किया।’गुरुदेव ने कहा-‘तुम्हारी सेवा ही मेरी गुरुदक्षिणा रही। अब तुम जाओ।’ पर बार-बार गुरुदक्षिणा के लिए जिद्द करने पर गुरुदेव ने गुस्से में आकर कहा-‘तूने चोदह विद्यायें पढ़ी हैं, इसलिए प्रत्येक विद्या के लिए एक-एक करोड़ स्वर्ण मुद्रायें लेकर आओ।’ अतः कुल चोदह करोड़ स्वर्णमुद्राओं की मुझे आवश्यकता है। मैं उसी के लिए आपके पास याचना के लिए आया हूँ। परन्तु आपके मिट्टी के पात्रों को देखकर ही समझ गया कि आपने सब कुछ दान कर दिया है। अतः आपसे कुछ मांगना उचित नहीं है। आपका कल्याण हो। मैं किसी अन्य दाता के पास जा रहा हूँ। यह कह कर कौत्स उठकर खड़े हो गये। राजा (Raja Raghu) ने नम्र निवेदन किया-‘वेद में परांगत ब्रह्मचारी गुरुदक्षिणा के लिए मेरे पास आये पर निराश होकर दूसरे दाता के पास गये-कृप्या करके मेरे जीवन में कलंक का प्रथम पाठ न जोडें। आप मेरी यज्ञशाला में विश्राम कीजिए। मैं गुरुदक्षिणा की व्यवस्था करता हूँ।राजा ने ब्रह्मचारी की व्यवस्था यज्ञशाला में करवा दी। भूमण्डल में कोई राजा उन्हें दिखाई नहीं दिया जिससे कि उन्होने धन प्राप्त न कर लिया हो। अतः दुबारा मांगना अन्याय और अधर्म था। अतः उन्होंने कुबेर पर चढ़ाई कर, धन प्राप्त करने का निश्चय किया। यह विचार कर सुबह युद्ध करने का निर्णय लिया। प्रातःकाल प्रस्थान के पूर्व ही दौड़ते हुए कोषाध्यक्ष ने आकर निवेदन किया-‘महाराज! रात्रि में कोषगार में स्वर्णवृष्टि हुई है और कोषागार स्वर्ण से भर गया है।’ महाराज रघु ने आकर कोषागार देखा और कुबेर से युद्ध का विचार त्याग दिया।राजदरबार लगा। सम्पूर्ण स्वर्ण का ढेर लगा दिया गया। ब्रह्मचारी कौत्स को सम्मानसहित बुलाकर महाराज ने कहा-‘यह सम्पूर्ण राशि आपके लिए है, आप सब ले जाइए।’ब्रह्मचारी कौत्स ने कहा-‘महाराज! मुझे तो केवल उतना ही चाहिए जितना गुरुदक्षिणा के लिये आवश्यक है। अपने लिये मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं उससे अधिक एक भी मुद्रा नहीं ले जाऊंगा।’ राजा बोले-‘यह समस्त राशि आपके लिए ही प्राप्त हुई है। इसमें से एक भी मुद्रा अन्य कहीं खर्च नहीं की जा सकती है। आपको सम्पूर्ण धन ले जाना होगा।’त्याग का विचित्र दृश्य उपस्थित था। दाता और याचक दोनों ही महात्यागी निकले। कोई भी अपना हठ छोड़ने को तैयार नहीं था। सारी प्रजा कौत्स और राजा रघु की प्रशंसा करने लगी। अंत में राजसभा से सबने एक स्वर में कौत्स से अनुरोध किया कि राजा के प्रण की रक्षा के लिए सम्पूर्ण धनराशि ले जाने की कृपा करें।अतिआग्रह मानकर ब्रह्मचारी कौत्स ने सारा धन ले जाकर वरतन्तु ऋषि को समर्पित कर दिया। अक्सर महाराज राजा रघु की याद आ जाती है जोकि एक ब्राह्मण बालक को आवश्यकता पड़ने पर 14करोड़ स्वर्ण मुद्रायें वरना किसी शर्त के दान दे देते है।