याग का चयन-
मुनिवरों! आज हम तुम्हारे समक्ष, पूर्व की भांति, कुछ मनोहर वेदमन्त्रों का गुणगान गाते चले जा रहे थे, ये भी तुम्हें प्रतीत हो गया होगा, आज हमने पूर्व से, जिन वेदमन्त्रों का पठन-पाठन किया, हमारे यहाँ, परम्परागतों से ही, उस मनोहर वेदवाणी का प्रसारण होता रहता है, जिस पवित्र वेदवाणी में, उस मेरे देव परमपिता परमात्मा की महती का वर्णन किया जाता हैं क्योंकि जितना भी यह जड़ जगत, अथवा चैतन्य जगत हमें दृष्टिपात आ रहा हैं, उस सर्वत्र ब्रह्माण्ड के मूल में, मानो वह मेरा देव दृष्टिपात आ रहा हैं, हमारे यहाँ वैदिक साहित्य में, मानो यागों का प्रायः वर्णन आता रहता हैं, क्योंकि सृष्टि के प्रारम्भ में, हमारे ऋषि-मुनियों ने, मानो एक याग की रचना की, और याग को उन्होंने अपने ब्रह्माण्ड और पिण्ड की, उसकी कल्पना की हैं। मानो उसको संगतिकरण किया हैं, कोई भी संसार का क्रियाकलाप हो, यदि उसके मंगल ब्रीहि यदि उसमें संगतिकरण नही वह कार्य सफलता को प्राप्त नही होगा। तो इसीलिए हमारे यहां यागों का बड़ा चयन ऋषि-मुनियों ने किया, हमारे यहाँ ब्रह्मा के पुत्र अथर्वा हुए हैं, तो ब्रह्म के पुत्र अथर्वा ने कुछ ऋषि-मुनियों को एकत्रित किया, और उन्होंने कहा कि यागों का वैदिक साहित्य में मन्त्रार्थ में बड़ा वर्णन आया है, हमारे यहाँ अग्निष्टोम याग का वर्णन आया अश्वमेध याग का भी वर्णन आता रहता हैं, तो ब्रह्मा के पुत्र अथर्वा जी ने यह कहा ऋषि-मुनियों से क्या महाराज! यह जो याग हैं, यह क्या है? मैंने वेदों का अध्ययन किया हैं, आचार्य के चरणों में, विद्यमान हो करके, इसका निर्णयात्मक करता रहता हूँ, परन्तु मेरे विचार मे यह नही आ रहा हैं, कि इस याग का मानव का के जीवन से भी तो कोई समन्वय होना चाहिए। उसी के पश्चात वह संगतिकरण कहलाता हैं। तो मेरे पुत्रों! अथर्वा जी के इस वाक् उच्चारण करते ही, महर्षि अंगिरस ऋषि ने कहा, क्या यह जो याग है यह मानव जीवन ही तो हैं। मानव इसका समन्वय क्या कर सकोगे? मानो देखो, सुगन्ध आती हैं, उसका घ्राण से उसका समन्वय रहता हैं मानो उसमें तेज होता है उसका मानव के जीवन से समन्वय होता है मानो उसमें अग्नि के मुख में प्रदान किया हुआ, कोई भी पदार्थ हो, उसका वह भेदन कर देती हैं। जैसे मानव के शरीर में, हमारे यहाँ, जब हम प्रारम्भ में भोज करने लगते हैं तो पाचांम ब्रह्म वाचों जैसे अग्नि व्रतस्व स्वाहा प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा मानो इन प्राणों के सम्बन्ध में यह पांच आहुति दी जाती हैं प्रारम्भ में, तो यह जब उसको अपने में पान करते हैं तो प्राण का शोधन होता हैं, और प्राण का सम्बन्ध याग से होता हैं, क्योंकि अग्नि बिना प्राण के अपने में सूत्रित नही होती, अग्नि अपने में प्राण के, वायु में सूत्रित होती रहती हैं, और वही प्राण बेटा! हमारे इस मानव शरीरो में, क्रियाकलाप कर रहा हैं। याग की उपयोगिता तो विचार क्या मुनिवरों! एक-एक जो गतियां हैं, प्राण की प्रतिष्ठा कहलाती हैं, इस प्राण को यदि हम, भौतिक याग से विच्छेद करते हैं, तो हमारा संगतिकरण ऊँचा नही बनता। हमारे ऋषि-मुनि जब याग करते हैं तो जिस स्थली पर वह साधना के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो वहाँ के वायुमण्डल को पवित्र बनाया जाता हैं। मानो देखो, उन्होंने कहा अंगिरस ऋषि ने, कि जब मैं अपने पूज्यपाद गुरुदेव के द्वारा अध्ययन करता था, तो एक समय उनके मेरे पूज्यपाद गुरुदेव के हृदय में, उनका नाम था शौनिक ऋषि महाराज, उनके हृदय में यह आशंका हुई, कि मैं तप करने के लिए चलूं। वह जब भंयकर वन में तप करने पंहुचे, तो वहाँ उन्होंने अपनी साधना में वह परिणत हो गएं जब वह साधना करने लगे तो उनके मस्तिष्क में प्राण की जो तरंगें मानो वायुमण्डल में तरंगित हो रही थी, तो वह तरंगें अशुद्ध उन्हें प्रतीत हुई। मानो जब अशुद्ध प्रतीत हुई, तो इसमें चित्र सुन्दर नही आ रहे थें, वह जब मस्तिष्क में उसका अध्ययन कर रहे थें, तो उसमें तरंगें प्रिय नही आ रही थी, उन तरंगों के प्रिय न आने पर उन्होंने विचारा कि मुझे क्या करना चाहिए? तो भंयकर वनों से देखो, साकल्य एकत्रित करने लगे। अब उन्होंने विचारा कि इस मानो शोधन के लिए, तो मानो मुझे गो घृत चाहिए, अब वह एक समय भ्रमण करते हुए, मानो महाराजा इन्द्र के द्वारा पंहुचे, और महाराज इन्द्र से यह प्रार्थना की कि महाराज! मैं मानो साधना के लिए याग करने जा रहा हूँ, मुझे ओक गऊं चाहिए, राजा ने बेटा! वह गऊं उन्हें प्रदान कर दी, उस गऊं को ले करके वह भंयकर वनों में मानो उसी स्थली पर आ गएं और आ जाने के पश्चात उन्होंने याग किया अब वायुमण्डल का शोधन होने लगा। क्योंकि याग इतना सूक्ष्मतम रहस्य संगतिकरण माना गया हैं, कि यज्ञमान का हृदय उस याग में रहना चाहिए। यज्ञमान की जो मनोनीत भावना होती हैं, याग में परिणत होनी चाहिए। उसे यह स्वीकार करना चाहिए, कि मेरा जो हृदय हैं, वह भी याग हैं, और यह जो भौतिक याग हो रहा है, यह भी मेरा हृदय हैं। तो मानो जब यह भावना, अपने हृदय से जब यज्ञमान याग करता है, तो वायुमण्डल पवित्र हो जाता है। दूषित तरंगें समाप्त हो जाती है, तो ऋषि ने, जब इस प्रकार याग का प्रारम्भ किया, तो मानो वह नित्यप्रति याग करते, और उसके पश्चात वह साधना करते।
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