काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को शिक्षा प्राप्त कराकर केवल शिक्षित बना भर देने का उद्देश्य इस विश्वविद्यालय की स्थापना के पीछे नहीं था। इस विश्वविद्यालय से शिक्षित होकर निकलने वाले विद्यार्थियों से यह अपेक्षा रखी जाती थी कि उनमें स्वदेश प्रेम तथा भारतीय संस्कृति के संस्कारों का समावेश रहेगा। समय आने पर स्वदेश का अभिमान और भारतीय सस्कृति के गौरव को अक्षुण्य बनाए रखने में अपना जीवन लगा देना हो, तो इसमें उन्हें तनिक भी संकोच न हो। आज हमारे देश में राजनीति के महारथियों का यह अनुमान है कि इस देश में धर्म निरपेक्षता का अर्थ है — भारतीय संस्कृति का विरोध। यदि कोई भारतीय संस्कृति का पोषण करता है तो हिन्दू धर्मावलंबी या सांप्रदायिक मान लिया जाता है। महामना ने इस संबन्ध में कई बार इस प्रकरण को स्पष्ट करते हुए कहा था कि प्रत्येक व्यक्ति दवारा स्वधर्म का पालन करना आवश्यक है। उनका धर्म संकुचित अर्थ में किसी एक पंथ को मानने वाले संप्रदाय का धर्म नहीं था। वरन् मनुष्य को अपने जीवन में क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, इसके लिए बताए मार्ग को ही वे धर्म का आचरण बताते थे। किसी शिक्षक का क्या धर्म है, किसी विद्यार्थी का क्या धर्म है, किसी शासक का क्या धर्म है, प्रजा का क्या धर्म है — इन सब के लिए निर्धारित कर्त्तव्य को ही महामना उनका धर्म मानते थे। उनके अनुसार प्रत्येक पंथ मनुष्य को केवल अच्छी बातें सिखाता है — सच बोलना, चोरी न करना, किसी पर अन्याय नहीं करना, घर आए अतिथि का स्वागत करना आदि। जो भी करणीय कर्म हैं, उनका समावेश ही प्रत्येक धर्मावलंबी का धर्म होता है। व्यक्ति का आचरण कैसा हो, इसके संबन्ध में सारे धर्मोँ में बहुत कुछ कहा गया है। उन्हीं का आचरण उस व्यक्ति का संस्कार माना जाता है और वही उस समाज की संस्कृति होती है। इस तत्त्व को विद्यार्थियों मेंप्रभाववी ढंग से स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि उन्हें नैतिक मूल्यों की शिक्षा भी अन्य विषयों के साथ प्राप्त हो। इसी शिक्षा को धर्म की शिक्षा के रूप में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में जाना जाता रहा है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए आरंभ से ही प्रत्येक रविवार को महामना अपने प्रवचनों द्वारा विद्यार्थियों को नैतिकता का ज्ञान तथा उन्हें अपने सांस्कृतिक मूल्यों की महत्ता को समझाकर उनका अनुपालन करके भारत का सपूत बनने का आवाहन किया करते थे। इस परंपरा को महामना के बाद भी डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने जारी रखा। वे जब भी रविवार को विश्वविद्यालय में होते तो प्रातः काल अपने भाषण द्वारा गीता और धर्म के महत्त्व को विद्यार्थियों को समझाया करते थे। विश्वविद्यालय के छात्र और छात्राएं उनको सुनने के लिए उमड़ पड़ते थे। संतोष की बात है कि वह परंपरा आज भी कायम है। मालवीय जी के उस समय के निवास ‘मालवीय भवन’ में प्रत्येक रविवार को दिन के दस बजे गीता पर किसी न किसी विद्वान् का प्रवचन होता है। कुलपति तो उपस्थित नहीं होते है , संख्या भी कम रहती है, लेकिन परंपरा का निर्वाह हो रहा है। इस कार्यक्रम से हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों में अपने देश के प्रति तथा अपनी संस्कृति से लगाव की जो भावना पैदा होती थी, वह अपने आप में एक अनूठी उपलब्धि थी जिसे विश्वविद्यालय के पूरा छात्र अपनी निधि मानते हुए संजोकर रखते है ।
भारतीय संस्कृति के प्रति लोगों में आस्था बनी रहे, इसीलिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना विश्व की प्राचीनतम नगरी काशी में की गई थी। काशी के लिए यह प्रसिद्ध है कि यह तीनों लोकों से न्यारी है और भगवान् शिव के त्रिशूल पर स्थापित है। महामना जब भी काशी से कही बाहर जाते तो बाबा विश्वनाथ का दर्शन करके जाते और जब वापस आते तो पुनः बाबा विश्वनाथ के दर्शन करते। उन्हें यह विश्वास था कि बिना बाबा विश्वनाथ की कृपा के विश्व में कोई भी कार्य पूर्ण या सफल नहीं हो सकता। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विद्यार्थी अपने मंतव्य में सफल हो तथा जीवन में उन्नति को प्राप्त करें, इसे विचारकर उन्होंने विश्वविद्यालय के बीचोबीच बाबा विश्वनाथ का एक मंदिर बनाने की योजना रखी थी। इसका शिलान्यास उनके जीवन काल में ही हो गया था। योजनानुसार इसके तीन शिखर होने थे। बीच वाले शिखर की ऊंचाई 380 फीट रखने की योजना थी। इस प्रस्तावित मंदिर के चारों तरफ एक नहर बनाई गई थी जो आज भी विद्यमान है। मूल योजना के अनुसार इस बात की व्यवस्था की गई थी कि गंगा जी का जल पंप के माध्यम से सीधे इस नहर में आएगा और दूसरी ओर से निकलकर पुनः गंगा में मिल जाएगा। यह भी व्य्वस्था थी कि मंदिर के सर्वोच्च शिखर पर एक विशालकाय बिजली के प्रकाश से युक्त ग्लोब लगाया जाएगा जिससे रातभर विश्वविद्यालय के परिसर में चाँदनी जैसा प्रकाश छाया रहे। भगवान् शिव का शिवालिंग प्रथम तल पर स्थापित करने की योजना थी। मंदिर के नीचे भूतल पर एक अति विशाल हॉल बनाने की योजना थी जिसमें दस हजार छात्र एक साथ बैठकर परीक्षा दे सकें। महामना के जीवन काल में यद्यपि शिलान्यास हो चुका था, लेकिन निर्माण कार्य आरंभ नहीं हो सका था। उनके महानिर्वाण के कुछ दिन पूर्व सेठ युगल किशोर बिड़ला उनसे मिलने आए थे। महामना ने मंदिर निर्माण कार्य अपूर्ण रहने की अपनी व्यथा उनसे बताई। बिड़ला जी ने उन्हें मंदिर निर्माण केप्रति आश्वस्त किया। उन्होंने अपना आश्वासन पूरा भी किया। मंदिर का निर्माण कार्य साठ के दशक के पूर्वार्द्ध में पूरा हुआ। मंदिर की ऊंचाई और आकार से समझौता किया गया। ऊंचाई सौ फीट घटा दी गई, तीन शिखरों के स्थान पर एक ही शिखर रखा गया, शिवालिंग की स्थापना भूतल पर ही की गई तथा हॉल की क्षमता भी बहुत कम कर दी गई। अपनी पूर्व योजना से बहुत छोटा होने के बावजूद हिन्दू विश्वविद्यालय के मध्य में स्थापित बाबा विश्वनाथ का यह नूतन मंदिर अपने आप में एक अनूठा दर्शनीय स्थान है। वर्तमान काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की तरह विश्वनाथ मंदिर भी महामना के सपनों का प्रतिरूप नहीं बन सका।
भारतीय सभ्यता-संस्कृति, संगीत और आध्यात्म में काशी का सर्वाधिक योगदान था। विश्वविद्या की राजधानी के रूप में पुनर्स्थापित करने के लिए ही महामना मालवीय जी ने यही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की नींव राखी। काशी, भारत, दुनिया सारी शत नमन तुम्हारा करते हैं वाणी, जिह्वा, प्रतिभा समेत शत शत अभिनन्दन करते हैं। कीर्ति पताका लहराएगी जब तक भारत देश रहेगा , महामना की तपोभूमि का एक छात्र भी शेष रहेगा |🙏🏽🙏🏽🙏🏽🙏🏽🙏🏽