शिवलिङ्ग, ज्योतिष और विज्ञान
विश्वकर्मा ने शिवलिङ्ग के निर्माण का विधान बताया है. क्योंकि लिंग रूप में अवतार के पूर्व भगवान् रुद्र ने विश्वकर्मा को ही इसके निर्माण का कार्य दिया था. तथा उनकी आज्ञा के अनुसार विविध विशेषता युक्त शिवलिंग का निर्माण विश्वकर्मा ने किया और भगवान् शिव ने उस स्वरुप को ग्रहण किया। #समराङ्गण सूत्र और #विद्यार्णव तंत्र में विश्वकर्मा के द्वारा निर्धारित मापदण्ड और पदार्थों का वर्णन शिवलिंग निर्माण हेतु दिया गया है. विश्वकर्मा ने इसके 33 प्रकार बताये हैं– १-भव, २-भवोद्भव, ३-भाव, ४-संसार भयनाशन, ५-पाशयुक्त, ६-महातेज, ७- महादेव, ८- परात्पर, ९- ईश्वर, १०- शेखर, ११-शिव, १२- शान्त, १३- मनोह्लादक १४- रुद्रतेज, १५- सदात्मक (सद्योजात) १६- वामदेव, १७- अघोर, १८- तत्पुरुष, १९- ईशान, २०- मृत्युञ्जय, २१- विजय, २२- किरणाक्ष, २३- अघोरास्त्र, २४- श्रीकण्ठ, २५- पुण्यवर्द्धन, २६-पुण्डरीक, २७- सुवक्त्र, २८- उमातेज, २९- विश्वेश्वर, ३०-त्रिनेत्र, ३१- त्र्यम्बक, ३२- घोर एवं ३३- महाकाल इन विविध लिङ्गों के निर्माण में प्रयुक्त होने वाले पदार्थों , उनके अनुपात और लक्षणों का वर्णन #अंशुमद्भेदागम (काश्यपशिल्प) तथा #वीरमित्रोदय लक्षण प्रकाश में विस्तार से बताया गया है. इन लिंगों में प्रयुक्त होने वाले तीनों पदार्थों (ठोस, द्रव और वायु-गैस) के अणु, परमाणु और सूक्ष्माणुओं के परस्पर समवर्तनांकों के कारण ही 33 करोड़ देवताओं की अवधारणा की गयी है.वर्तमान समय में निरंतर अभ्यास से पराङ्गमुख होने की प्रवृत्ति, जुगुप्सा, ईर्ष्या, लोभ और अन्य पापमय कर्मों में संलग्नता के कारण उत्पन्न अज्ञान ने इन लिंगों के भेद को समझने से वञ्चित कर दिया। और केवल अंतिम 5 शिवलिंगों के विषय में ही बहुत परिश्रम से जानकारी प्राप्त हो पाती है. जिनके नाम क्रमशः आज –नागरलिङ्ग, द्रावणलिङ्ग, वेशरलिङ्ग, स्फटिकलिङ्ग और बाणलिङ्ग हैं. इसका विवरण मत्स्यपुराण के अध्याय २६३ में भी मिल सकता है. मैं विशेष टिप्पड़ी नहीं करना चाहता, किन्तु इन लिंगों की उपयोगिता, महत्त्व और औचित्य को बहुत विद्रूप कर प्रस्तुत किया जा रहा है. जैसे ऋषि शार्ङ्गवर्त ने कहा है कि बाण लिङ्ग में क्रिद्यौत, वपुष्मा और सैक कज्जल की यदि प्रधानता है तो यह बाणलिङ्ग है अन्यथा नहीं। बाण लिङ्ग के ये तीन प्रधान तत्व श्रुता, तक्षा और कलिङ्गा नाड़ियों के समस्त विकार-अवरोध दूर करते हैं. परिणाम स्वरुप श्लांघव (पार्किन्सन), पक्षाघात, अपघात तथा मंगल-राहु कृत समस्त दोषों को नष्ट करते हैं. मुझे याद नहीं आ रहा है कि इन तत्वों का अंग्रेजी नाम क्या है, किन्तु जो सूचना आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोगशाला से प्राप्त होती है उसके अनुसार लिन्थोनाइट, सियोनाइट, मोनोक्रेनाइट और ग्रेनाइट में पाये जाने वाले फास्फोरस, सल्फर और कार्बन वर्तमान उपलब्ध फास्फोरस आदि से भिन्न होते हैं. क्योंकि वर्तमान समय में स्वतंत्र रूप से उपलब्ध फास्फोरस का आणविक प्रतिघात (Molecular Reliptant) मात्र 27 होता है जबकि सियोनाइट में पाए जाने वाले फास्फोरस का आणविक प्रतिघात 150 से भी ऊपर होता है. इसका त्वरण 27000 L/ps होता है. अतः शरीर की Zyolena, Veyoreva और Synocalta वाहिनियों (Ducts) की आतंरिक एवं बाह्य श्लेष्मा इससे सदा स्निग्ध बनी रहती हैं. जब कि वर्तमान स्वतंत्र रूप से उपलब्ध फास्फोरस इन वाहिनियों को इतना खुरदरा और शुष्क बना देता है कि इनका स्वरुप ही नष्ट हो जाता है. कहने का तात्पर्य यह कि इन शिवलिंगों के रासायनिक समीकरण से आधुनिक विज्ञान भी विस्मित-चमत्कृत है. इससे प्राचीन ऋषि-मुनि आदि के वैज्ञानिक ज्ञान की उत्कृष्टता का आंकलन किया जा सकता है. अस्तु,ये पाँचों शिवलिङ्ग अनेक ग्रहबाधा, व्याधि एवं उपद्रव दूर करने में समर्थ हैं. जिनमें शुद्ध एवं मौलिक बाणलिङ्ग आज की आवश्यकता के अनुरूप सदा ही ग्राह्य, पूज्य एवं समादरणीय है. आचार्य महोद्गव के अनुसरा- #तथैवासुरे यदयोद्गमे प्रसवे प्रत्यास्थापनः पुरः युगे। बाणलिङ्गं याम्ये वास्भवे युद्धे ष्णातो मूल विनाढयो सदा. अर्थात ग्रहों के अशुभ-मारक स्थानों के अधिपति के स्थान-दशा अंतर घात-प्रतिघात को समूल नष्ट कर देते हैं. नर्वदेश्वर महादेव की वैष्णवी रुद्रशक्ति अपरम्पार है. मुनि ऋतथ के अनुसार–यदि रुद्रकपर्दिका (कौड़ी) को इस नर्वदेश्वर महादेव के आवेश के समानांतर रख उसे कृतारण्यं मन्त्र द्वारा जल-पुष्प तथा धूप-दीप आदि से मात्र एक बार पूजित कर सिद्ध कर लिया जाय तो नर्वदेश्वर महादेव तो दूर, प्रत्येक कपर्दिका नीलवज्र बन जाती है. कृतारण्यं मन्त्र- ॐ सां सीं सूं प्रतक्षिले वाSन्यर्महे क्वथितं शिवेहि तन्न रुद्रः त्वाविस्पते शर्वलिङ्गे प्रतिष्ठितो एहि. ॐ सां सीं सूँ वैश्वानरे तथोर्त्रयोर्जितः भव.
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