समर्पण
व्यक्ति की समस्या का तब तक समाधान नहीं होगा जब तक कि ईश्वर के प्रति समर्पण न हो और समर्पण तब तक नहीं होगा जब तक ताड़का का वध नहीं होगा
शिव-धनुष भंग नहीं होगा
और भगवान विष्णु का धनुष चढ़ाया नहीं जाएगा समर्पण की इस प्रक्रिया का पूर्णता की दृष्टि से रामायण में एक सूत्र दिया गया है
जब तक जीव कर्म करता हुआ समग्र ईश्वर-रूपी समुद्र में स्वयं को विलीन नहीं कर देता तब तक सही अर्थ में वह जीवन में धन्यता और कृतकृत्यता का अनुभव नहीं कर पाता कर्म और परोपकार करते हुए भी अंततोगत्वा व्यक्ति को रेगिस्तान की ओर नहीं बढ़ना है यह नहीं मान लेना है कि परोपकार के द्वारा ही जीवन में धन्यता आ जाती हैउसे अंततोगत्वा अपने जीवन में ईश्वर के प्रति समर्पित भी होना है और तभी वह कृतकृत्यता का अनुभव करेगाकर्म और पुरुषार्थ की तुलना यमुना नदीसे कीगई है गोस्वामीजी कर्म की तुलना यमुना नदी से करते हैं यमुना बड़ी विशाल नदी होने पर भी वह बीच में ही अपने आपको गंगा में विलीन कर लेती है और गंगा उस जल को ले जाकर समुद्र में विलय कर देती हैयही जीव की स्थिति हे उसे गँगासागर मे जाना ही पडेगाइसलिए कहते हे सारे तीरथ बार बार ओर गँगासागर एक बार ।
इन नदियों के उद्गम, मध्य में मिलन और अंत में संगम का तात्पर्य क्या है अर्थात कर्म नदी की भांति होना चाहिए नदी अनवरत कर्म कर रही है, समाज की सेवा कर रही है खेती को सिंचाई के लिए, मनुष्य को पीने के लिए जल दे रही है स्वच्छता दे रही हैजिस प्रकार नदी में अनवरत कर्म अनवरत सेवा की वृत्ति है उसी प्रकार व्यक्ति के जीवन में कर्म होना चाहिए और कर्म का उद्गम कहां होना चाहिए यमुना सूर्य की बेटी है और इसका अभिप्राय है कि हमारे कर्म का मूल उद्गम सूर्य हो, प्रकाश हो, विचार हो यही कर्मयज्ञ हेनदी बहुत परोपकारी, महान सेवक है, समाज की सेवा करने वाली है लेकिन तर्क पूर्ण दृष्टि से देखें तो उसका काम उल्टा लगता हैनदीअगरपरोपकारी हैऔर सेवा ही करनाचाहती है तो उसे बहकर रेगिस्तान की ओर जाना चाहिए जहां नदियां नहीं हैं पानी नही हे लोगों को वहां अधिक जल मिलेगा किंतु ये नदियां बहकर रेगिस्तान में नहीं बल्कि समुद्र की ओर चली जा रही हैं। समुद्र को जल की क्या आवश्यकता है पर नदी तटस्थ है नदी की आप चाहे जितनी पूजा करें, दूध चढ़ाएं, फूल चढ़ाएं तो भी वह रुकेगी नहीं। यदि उसमें गंदगी डालें तो भी नहीं रुकेगी जब यमुना अपने को गंगा में विलीन कर देगी तो भी वह चुप नहीं रहेगी, स्थिर नहीं रहेगी बल्कि आगे बढ़ती जाएगी नदी से किसी ने पूछा कि तुम बहकर व्यर्थ समुद्र में क्यों जा रही हो वहां तो जल ही जल है वहां तुम्हारा क्या महत्व है इस पर नदी ने कहा कि मेरा आप जो उपयोग कर रहे हैं, सो कीजिए किन्तु समुद्र में जाए बिना मुझे पूर्णता प्राप्त नहीं होगीइसी प्रकार संकेत किया गया है कि जब तक जीव कर्म करता हुआ ईश्वर-रूपी समुद्र में स्वयं को विलीन नहीं कर देता तब तक सही अर्थ में वह जीवन में धन्यता और कृतकृत्यता का अनुभव नहीं कर सकता है।
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