हिरण्याक्ष -अक्ष शब्द का अर्थ है आँख और हिरण्य शब्द का अर्थ है सोना तथा स्वर्ण को हिरण्य कहते हैं ।और हिरण्याक्ष राक्षस को कहते हैं।जिसके आँखों में पैसा है वही राक्षस है।हिरण्याक्ष लोभ का स्वरूप है।और भक्ति में आँख मुख्य है।यदि आँखों में भगवान को रख लें तो आँखों में काम नहीं आयेगा और पैसा नहीं आयेगा और यदि आँखों में पैसा आ जाये तो आँख होने पर मानव अन्धा हो जाता है।और पांप करता है, लोभ पाप का घर है।लोभ से मानव पाप करता है।इसलिए भक्ति का आनंद नहीं मिल पाता है।इसप्रकार भक्ति माता हैं,और माता को प्रकट करना चाहिए,माता के पास रहने से जीवन आनंद के साथ चलता रहता है, जीवन में थोड़ा भी परेशानी नहीं आती है। जब बालक छोटा होता है तो थोड़ा बहुत चल लेता है, और थक जाता है तो रोने लगता है तो माता अपने गोद में ले कर चलने लगती है, ठीक उसी प्रकार से रामनाम का जप करते हैं तो हमारा मन निर्मल हो जाता है, जिससे भक्ति माता प्रकट हो जाती है और जब भक्ति माता प्रकट हो जाती है तो हमारे देखने का दृष्टी और दृष्टिकोण दोनों पवित्र हो जाते हैं।उसके बाद हमें दुनियाँ का कोई भी राक्षस नहीं सताते हैं।और सबमें परमात्मा का दर्शन होने लगता है।जबतक प्रत्येक में परमात्मा का दर्शन नहीं होगा ,तब तक संसार में कोटि कोटि राक्षस भरे पड़े रहेंगे।जिनसे पीछा नहीं छूटेगा और जिंदगी सांसारिक भव रोग एवं व्याधियों में सदा सदा के लिए संसार से चला जायेगा।और जिससे अपने आप को जान नहीं पाते है , इस प्रकार भक्ति के प्रकट होने से जीव अंतर्मुखी हो जाता है।भक्ति के न होने से जीव बहिर्मुखी बना रहता है।पढ़ कर बातें तो बहुत करते हैं लेकिन स्वयं के आचरण में नहीं उतर पाता है।

हिरण्याक्ष का अर्थ वह, जिसकी दृष्टि सदैव स्वर्ण पर ही रहे अर्थात् पैसे का लोभी व्यक्ति जो स्वर्ण ( धन सम्पत्ति इकठ्ठे) के नशे में चूर रहता है

हिरण्यकश्यपु का अर्थ वह जो स्वर्ण के बिस्तर पर सोने वाला अर्थात् काम के नशे में चूर रहता है ।

हालाँकि अर्थ और काम भी पुरुषार्थ हैं पर यदि धर्म का पुट उसमें नहीं है तो वह आपको लोभी कामी राक्षस ही बनायेगा । और कामी लोभी व्यक्ति की दुर्गति होती ही होती है ।

पुराणों की हर कथा और हर पात्र का रहस्य आपके इसी जीवन को उन्नत बनाने के लिए है ।