शिव-शक्ति
” अलिंग-लिंग तत्त्व निरूपण ” निर्गुण ब्रह्म शिव जो ” अलिङ्ग ” है , लिङ्ग रूप प्रकृति का मूल कारण है , साथ ही स्वयं लिङ्ग रूप ( प्रकृति रूप )भी वही है ।
लिङ्ग रूप प्रकृति भी शिवोद्भासित है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि से रहित, अगुण्, ध्रुव, अक्षय, अलिङ्ग, निर्गुण तत्त्व को शिव कहा गया है तथा शब्द-स्पर्श- रूप- रस- गंध आदि से संयुक्त प्रधान प्रकृति को ही उत्तम लिङ्ग कहा गया है । लिङ्ग जगत् का ( योनि )उत्त्पति स्थान है, पञ्चभूतात्मक है, स्थूल है, सूक्ष्म है, जगत् का विग्रह है तथा यह लिंगतत्त्व प्रकृति निर्गुण अलिङ्ग शिव से उत्पन्न है ।
उस अलिङ्ग अर्थात् निर्गुण परमशिव की माया से सात, आठ, तथा फिर ग्यारह इस तरह कुल छब्बीस रूप रूप वाले लिंगतत्त्व ब्रह्माण्ड में ब्याप्त हैँ । परम शिव निर्गुण भी है साथ ही सगुण भी है । लिङ्ग अर्थात ब्यक्त और अलिङ्ग अर्थात अव्यक्त रूप में कही गयी सभी मूर्तियां शिव-शक्त्यात्मक हैं । इस लिए यह ब्रह्माण्ड साक्षात् शिव रूप ही है ।
यह परमशिव बीज रूप में ब्रह्मा है, योनि रूप में विष्णु है तथा निर्बीज रूप में शिव भी है । बीज रूप ब्रह्मा, योनि रूप विष्णु तथा प्रधान रूप शिव की इस जगत् में अपनी-अपनी विश्व, प्राज्ञ तथा तेजस अवस्था की संज्ञा भी है ।शिव की दृष्टि मात्र से प्रकृति ‘ शैवी ‘ हो गयी तथा सृष्टि के समय अव्यक्त स्वभाव वाली वह प्रकृति गुणों से युक्त हो गयी ।
अव्यक्त तथा महत् तत्त्वादि से ले कर स्थूल पञ्च महाभूत पर्यन्त सम्पूर्ण जगत् उसी प्रकृति के अधीन है, अतः विश्व को धारण करनेवाली शैवीशक्ति प्रकृति ही अजा नाम से कही गयी है । रक्तवर्णा रजोगुणवाली शुक्लवर्णा अर्थात् सत्त्वगुणवाली तथा कृष्णवर्णा अर्थात् तमोगुणवाली एवं बहुविध प्रजाओं की उत्पत्ति करने वाली अजास्वरूपिणी उस प्रकृतिकी प्रेम पूर्वक सेवा करता हुआ यह बद्ध जीव उसका अनुसरण करता है ।
दूसरे प्रकार का अनासक्त जीव प्रकृति के भोगों को भोग कर उसकी असारता तथा क्षणभंगुरता को समझ कर उस माया का परित्याग कर देता है । परम शिव के द्वारा अधिष्ठित वह अजा अनन्त ब्रह्माण्ड की उत्पत्तिकर्त्री है । सृष्टि के समय परमशिव त्रिगुण रूप होकर अजरूप कहलाता है । उसकी आज्ञा से संयुक्तत्रिगुणमयी माया से महत्तत्व उत्पन्न हुआ । उस महत्तत्व से संकल्प अध्यवसायवृत्ति रूप सात्विक अहंकार उत्पन्न हुआ तथा उसी महत्तत्व से त्रिगुणात्मकरूप रजोगुण की अधिकता वाला राजस् अहंकार उत्पन्न हुआ और उस रजोगुण रूप से सम्यक प्रकार से आवृत तमोगुण की अधिकता वाला तामस अहंकार भी उत्पन्न हुआ ।
महत्तत्व जनित उस तामस अहंकार से शब्द तन्मात्रा वाले अव्यय आकाश की उत्पत्ति हुई और बाद में शब्द के कारण रूप उस अहंकार ने शब्द युक्त आकाश को व्याप्त कर लिया । उस उस आकाश से स्पर्श तन्मात्रा वाला महान् वायु उत्पन्न हुआ । पुनः उस वायु से रूप तन्मात्रा वाले अग्नि की उत्पत्ति हुई तथा अग्नि से रस तन्मात्रा वाले जल का प्रादुर्भाव हुआ । फिर रस तन्मात्रा वाले उस जल से गंध तन्मात्रा वाली कल्याणमयी पृथ्वी की उत्पत्ति हुई । शब्द तन्मात्रा वाला आकाश स्पर्श तन्मात्रा वाले वायु को आवृत किये रहता है , वायु रूप तन्मात्रा वाले अग्नि को आवृत किये रहता है , अग्नि रस तन्मात्रा वाले जल को आवृत किये रहता है और जल गंध तन्मात्रा वाली पृथ्वी को आच्छादित किये हुए स्थित है ।
इस प्रकार पृथ्वी पाँच गुणों वाली , जल गंधरहित चार गुणों से युक्त , अग्नि त्रिगुणमयी होकर स्थित है । महान वायु दो गुणो से युक्त है और सर्वब्यापी आकाश मात्र एक गुण शब्द वाले हुए । यह तन्मात्राओं के पारस्परिक संयोग वाला भूत सर्ग कहा गया है । राजस, सात्विक और तामस अहंकार साथ ही होते हैं किन्तु जड़ सृष्टि की उत्पत्ति तामस अहंकार का परिणाम है । शब्द-स्पर्श आदि को ग्रहण करने के लिए पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ तथा उभयात्मक एक मन इस जीव के लिये बनाये गए हैं। महत्तत्वादि से लेकर पंचमहाभूत पर्यन्त सभी अण्ड की उत्पत्ति करते हैं ।वह परमशिव परमेश्वर ही पितामह ब्रह्मा, शंकर तथा सर्वब्यापि विष्णु के रूप में उस अंड से जल के बुलबुले की भाँति अवतीर्ण हुआ । ये सभी लोक तथा उनके भीतर का यह सम्पूर्ण जगत उस अण्ड में सन्निहित था ।
वह अण्ड अपने से दश गुना अधिक जल से बाहर से व्याप्त था । वह जल अपने से दश गुना अधिक तेज से बाहर से आवृत था । तेज अपने से दश गुणा अधिक वायु से आवृत था और वायु अपने से दश गुना अधिक आकाश से आवृत था । शब्दजन्य वायु को आवृत किये हुए वह आकाश तामस अहंकार से आवृत है । शब्द हेतु आकाश को आवृत करने वाला वह तामस अहंकार महत्तत्व से आवृत हैं और वह महत्तत्व स्वयं प्रकृति रूप महामाया से घिरा हुआ है। महामाया परमशिव के आश्रित होकर सम्पूर्ण कार्य को कर रही है । वह परमशिवऔर परमशक्ति में अभेद सम्बन्ध है। वह अद्वैत है , आत्मतत्त्वम् है ।
………….

Recent Comments