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धर्मसम्राट् श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज के परमभक्त
पूर्वाम्नाय-गोवर्धनमठ-पुरीपीठ के पूर्वाचार्य/144वें जगद्गुरु शंकराचार्य ब्रह्मलीन श्री स्वामीनिरंजनदेव तीर्थजी महाराज
अपने पूर्वाश्रम में श्रीमहाराजजी डॉ. चन्द्रशेखर दवे (द्विवेदी) के नाम से प्रसिद्ध औदीच्य (द्राविड) ब्राह्मण थे। श्रीमहाराजजी वेद, व्याकरण, सांख्य, योग, मीमांसा, न्याय, वेदान्त, धर्मशास्त्र, पुराण, आगम, आयुर्वेद आदि सभी विषयों के उद्भट विद्वान् थे। उन्होंने कुल 14 वर्ष की आयु में स्पर्शास्पर्शविवेक पर महात्मा गाँधी को शास्त्रार्थ में परास्त किया। कालान्तर में आप महाराजा कॉलेज (जयपुर) के प्रधानाचार्य हुए।
प्रामाणिक लोगों से ऐसा सुना है कि जब श्रीचन्द्रशेखर दवे जी बहुत छोटे थे, तब उनके पिताजी ने उनके सहित उनके एक-दो अन्य भाईयों को श्रीकरपात्रीस्वामीजी के सम्मुख प्रस्तुत किया और निवेदन किया कि जिसे महाराजजी की आज्ञा हो, हम समर्पित करने के लिए तैयार हैं। तब श्रीकरपात्रीजी ने कहा कि जो हमें देखकर मुस्कुरा देगा, वह मेरा होगा। श्रीचन्द्रशेखरजी महाराज को देखकर मुस्कुराने लगे। तब श्रीकरपात्रीजी ने उनके पिताजी से कहा कि ये हमारे हैं; पर इन्हें ले जाओ, पढा-लिखाकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करवाओ। यथासमय आवश्यकतानुसार इनका उपयोग हम करेंगे।
सन् 1960 में जब पुरीपीठ के 143वें जगद्गुरु शंकराचार्य — श्रीभारतीकृष्णतीर्थजी — महाराज ब्रह्मीभूत हुए, तब उनकी वसीयत में यह उल्लेख मिला कि उनके अनुसार 32 लोगों को शंकराचार्यपद के योग्य हैं। उनमें कई दण्डी स्वामी, सद्गृहस्थ, दाक्षिणात्य विद्वान् लोग आदि भी थे। श्रीभारतीकृष्णतीर्थजी महाराज की इच्छा थी कि जो भी व्यक्ति शंकराचार्य होने के लिए चुना जाए, उसका योगपट्ट (संन्यासनाम) ‘निरंजनदेवतीर्थ’ होगा तथा उनका संन्यास एवं पट्टाभिषेक द्वारकापीठ के तत्कालीन शंकराचार्य — श्रीस्वामी अभिनवसच्चिदानन्दतीर्थजी — महाराज के करकमलों से होगा।
लेकिन श्रीभारतीकृष्णतीर्थजी-जैसे दिग्गज विद्वान् का उत्तराधिकारी बनने का कोई साहस नहीं करता था; फलतः चार वर्ष तक वह पद रिक्त रहा। ज.गु.शं. श्रीअभिनवसच्चिदानन्दतीर्थजी महाराज (द्वारकापीठ) चार वर्षों तक उस पीठ का संचालन करते रहे। अन्ततः धर्मसम्राट् श्रीकरपात्रीजी महाराज ने, इस समस्या के समाधान हेतु, डॉ. चन्द्रशेखर दवेजी [जिनका नाम श्रीभारतीकृष्णतीर्थजी की वसीयत में 27वें स्थान पर था, उन] को पत्र लिखा कि कोई अयोग्य व्यक्ति जगद्गुरु-शंकराचार्य-पद पर प्रतिष्ठित न हो जाए, अतः आप इस पद को यथाशीघ्र स्वीकार करें। श्रीधर्मसम्राट् का पत्र प्राप्त होते ही डॉ. चन्द्रशेखर दवेजी ने कॉलेज के प्रधानाचार्यपद से त्यागपत्र देकर निवृत्ति ली एवं तत्कालीन द्वारकापीठ के शंकराचार्य महाराज से संन्यास लेकर पुरीपीठ का शंकराचार्यपद ग्रहण किया।
सन् 1967 में 72 दिनों तक गोरक्षा के लिए किया उनका आमरण अनशन (पराग्व्रत) आज भी प्रसिद्ध है। तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी 7 नवम्बर 1966 में श्रीकरपात्रीजी महाराज समेत 800 गोभक्तों पर गोलियाँ चलवाईं, तब [कुछ महीने बाद] ज.गु.शं. श्रीनिरंजनदेवतीर्थजी ने आमरण अनशन की घोषणा कर दी और कहा : “मैं अपने प्राणोत्सर्ग करके गोहत्या का कलंक मिटा ही दूँगा; अन्यथा मेरे साथ यदि एक-दो अन्य महापुरुषों ने अपना बलिदान दे दिया, तो यह कलंक मिटकर ही रहेगा। यदि हमारे मरने के बाद इस सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी और गोहत्या बन्द नहीं की गई, तो शासकों का नाम इतिहास में सदा के लिए कलंकित हो जाएगा।“ तब इन्दिरा गाँधी ने बाबू जगजीवनराम को महाराजजी के पास अनशन समाप्त करने की प्रार्थना लेकर भेजा और गोरक्षा का आश्वासन दिया; लेकिन महाराजजी ने कहा कि गोहत्यारी सरकार के आश्वासन को मैं तूल नहीं देता। अनशन 72 दिनों तक चला। फिर श्रीकरपात्रीजी ने विचार किया कि सरकार तो चाहती ही है कि ऐसे महापुरुष समाप्त हो जाएँ, अतः सरकार का तो कुछ बिगड़ेगा नहीं; लेकिन धर्म को बहुत बड़ी क्षति होगी। एतावता स्वयं श्रीकरपात्रीजी ने महाराजजी को अपना अनशन भंग करने की आज्ञा दी।
भगतसिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे क्रान्तिकारियों के विवरण तो पुस्तकों में ही देखे, उनका प्रत्यक्षदर्शी कोई आज तक नहीं मिला। लेकिन आज तक ज.गु.शं. श्रीनिरंजनदेवतीर्थजी के प्रचण्ड पराक्रम, वैदुष्य, ब्रह्मनिष्ठा, विरक्ति, तपस्या, त्याग का साक्षात् दर्शन करने वाले शताधिक लोगों से मिलकर और श्रीमहाराजजी का यशोगान सुनकर कृतकृत्यता का अनुभव होता है। ऐसे महापुरुष के प्रति कोटिशः प्रणति। आयातीय निजी संकलन से एक दुर्लभ चित्र