May be an image of 1 person and text that says 'स्वधर्मे निधनं श्रेय: साई बाबा न तो भगवान सन्त नसन्त है, न गुरु है सनातन धर्मियो को अपनी शारतीय पूजा पद्दति को अपनाते हए अपने शासत्रीय देवी देवताओ की पूजा उपासना करनी चाहिए'                 

सनातन परम्परा के नवीन सम्प्रदाय :—
प्रस्थानत्रयी ( उपनिषद् – ब्रह्मसूत्र – भगवद्गीता ) के इन तीनों भागों पर बौद्ध धर्म के पतन के पश्चात् प्रत्येक नवीन सम्प्रदाय के प्रवर्तकों ने भाष्य लिखकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया हमारा सिद्धांत वेदांत के अनुसार है अन्य सम्प्रदाय इसके विरुद्ध हैं–
जिसके परिणामस्वरूप नवीन वेदांत के पाँच सम्प्रदाय– अद्वैत—विशिष्टा-द्वैत — द्वैत — शुद्धादैत — और – द्वैताद्वैत ने अपने सिद्धांतों के आधार पर प्रस्थानत्रयी पर भाष्य किये —
🌺१ • श्री आदिशंकराचार्य का अद्वैत सिद्धांत :–
🚩 आँखों से दिखाई देने वाले सारे जगत् अर्थात् सृष्टि के पदार्थों की अनेकता सत्य नहीं है– वास्तव में यह सब एक ही शुद्ध चैतन्य सत्ता ( तत्त्व ) है – जो निर्गुण- निर्विशेष – शुद्ध- ज्ञान- स्वरूप है- जिसको परब्रह्म या परमात्मा कहते हैं ।
🚩 परमात्मा के साथ अनादि से एक विशेष शक्ति है – जिसको माया अथवा अविद्या कहते हैं- जो न सत् है और न असत् अर्थात् अनिर्वचनीय है– ब्रह्म इस सारे अनेकविध जड – चेतन सृष्टि के प्रपंच को इसी अविद्या अथवा माया द्वारा रचता है– जिह प्रकार मयावी मदारी अपनी माया शक्ति से नाना प्रकार के जड – चेतन पदार्थों को प्रकट करके दिखाता है– जो अपनी वास्तविक सत्ता नहीं रखते – केवल भ्रान्तिमात्र होते हैं ।
🚩 इसलिए माया सम्बद्ध ब्रह्म ही इस जगत का अभिन्न निमित्त उपादान कारण है– माया के सम्बन्ध से ब्रह्म को ईश्वर कहते हैं और अविद्या के सम्बन्ध से जीव ।
🚩 जीव अविद्या के कारण अपने ब्रह्म स्वरूप अर्थात् शुद्ध ज्ञानस्वरूप को भूलकर बुद्धि- अहंकार- मन – इन्द्रियों और शरीर आदि की उपाधियों को अपना वास्तविक स्वरूप समझकर उनकी अवस्थाओं को अपनी अवस्था मान लेता है– इस अध्यास के कारण अल्पज्ञता और परिछिन्नता की सीमा में आकर कर्ता और भोक्ता बन जाता है और सकाम कर्मों द्वारा पुण्य और पाप का सञ्चय करता हुआ आवागमन के चक्र में फँस जा जाता है–
आदि शंकराचार्य जी का जन्म २५०० वर्ष पूर्व केरल के काल्टी ग्राम में ब्राह्मण परिवार में हुआ ।
🌷२• — श्री रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत सिद्धांत :—
श्री रामानुजाचार्य का जन्म विक्रम संवत १०७३ तदनुसार सन् १०१६ ) को हुआ– इन्होंने विशिष्टाद्वैत – सम्प्रदाय चलाया – इनका ब्रह्मसूत्र पर भाष्य ‘ श्री भाष्य ‘ कहलाता है–
इस सम्प्रदाय का मत है कि शंकराचार्य का माया – मिथ्यावाद और अद्वैत सिद्धांत दोनों झूठे हैं– चित्त अर्थात् जीव और अचित् अर्थात् विषय – शरीर- इन्द्रियां आदि पाँचों स्थूल भूतों से बना हुआ भौतिक जगत् और ब्रह्म ये तीनों यद्यपि भिन्न हैं–
तथापि चित्त अर्थात् जीव और अचित् अर्थात् जड जगत् ये दोनों एक ब्रह्म के शरीर हैं– यह सारा जगत् शरीर इत्यादि और जीवात्मा ब्रह्म का शरीर है और वह इसका अंतर्यामी आत्मा है — इसलिए यह चित्त- अचित् – विशिष्ट ब्रह्म एक ही है– इस प्रकार से विशिष्ट रूप से ब्रह्म को अद्वैत मानने से यह सिद्धांत विशिष्टाद्वैत कहलाता है ।
🏵 ३• —श्री माधवाचार्य का द्वैत सिद्धांत :—
श्री रामानुजाचार्य के १८२ वर्ष पश्चात् संवत १२५४ तदनुसार सन् ११९७ में श्रमदानन्द तीर्थ का – जो माध्वाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हैं जन्म हुआ–
इनका ब्रह्मसूत्र पर भाष्य ‘ पूर्णप्रज्ञभाष्य ‘ के नाम से प्रसिद्ध है — ये द्वैत सम्प्रदाय के प्रवर्तक हुए —
इनका मत है कि ब्रह्म और जीव कुछ अंशों में एक और कुछ अंशों में भिन्न मानना परस्पर विरूद्ध और असम्बद्ध है– इसलिए दोनों को सदा भिन्न ही मानना चाहिए– क्यों कि इन दोनों में पूर्ण अथवा अपूर्ण रीति से भी एकता नहीं हो सकती — लक्ष्मी ब्रह्म की शक्ति ब्रह्म के ही अधीन रहती है किन्तु उनसे भिन्न रहती है —
आर्यसमाज के प्रवर्तक श्री दयानंद स्वामी का सिद्धांत भी द्वैतवाद कहलाता है- किन्तु इन दोनों में यह अंतर है कि जहाँ श्री माधवाचार्य ने अधिकतर पुराणों का आश्रय लिया है– वहाँ स्वामी दयानंद ने वेद – वैदिक दर्शन और स्मृतियों का उसके साथ समन्वय दिखाने का प्रयास किया है ।
🌻 ४•— श्री वल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैत सिद्धांत :–
श्री बल्लभाचार्य का जन्म संवत् १५३६ तदनुसार सन् १४९७ में हुआ — इनका ब्रह्मसुत्र भाष्य ” अनुभाष्य ” कहलाता है—
उनका मत निर्विशेष – अद्वैत — विशिष्ट – अद्वैत और द्वैत तीनों सिद्धांतों से भिन्न है–
यह भगवत्पाद् शिवावतार आदि शंकराचार्य जी के समान इस बात को नहीं मानते कि जीव और ब्रह्म एक हैं और न मायात्मक जगत को मिथ्या मानते हैं– बल्कि माया को ईश्वर की इच्छा से विभक्त हुई एक शक्ति बतलाते हैं–
माया अधीन जीव को बिना ईश्वर की कृपा के मोक्षज्ञान नहीं हो सकता– इसलिए मोक्ष का मुख्य साधन ईश्वर भक्ति है — मायारहित शुद्ध जीव और परब्रह्म ( शुद्धब्रह्म ) एक वस्तु ही है दो नहीं– इसलिए इसको शुद्ध- अद्वैत- सम्प्रदाय कहते हैं ।
🌹 ५• — श्री निम्बार्काचार्य का द्वैताद्वैत सिद्धांत :—
श्री निम्बार्काचार्य लगभग संवत् १२१९ तदनुसार सन् ११६२ में हुआ–इन्होंने ‘ वेदांत- पारिजात ‘ नाम से ब्रह्मसुत्र पर भाष्य लिखा—
जीव – जगत और ईश्वर के सम्बन्ध में इनका मत है कि यद्यपि ये तीनों परस्पर भिन्न हैं तथापि जीव और जगत् का व्यवहार तथा अस्तित्व ईश्वर की इच्छा पर अवलम्बित है – स्वतंत्र नहीं है और ईश्वर में ही जीव और जगत् के सूक्ष्म तत्व रहते हैं– विशिष्ट अद्वैत से अलग करने के लिए इसका नाम द्वैत- अद्वैत सम्प्रदाय रखा गया है ।
ये सभी विद्वान सनातन परंपरा के ही विद्वान रहे — जिन्होंने सनातन धर्म के अंतर्गत ही अपने मत चलाये — इनसे इतर दयानंद स्वामी- जैन – बौद्ध सिक्ख सनातनी होकर भी सनातन से अलग मत चलाये।
Credit Goes to Anil Vashisth जी