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आज ज्येष्ठ मास की अमावस्या है, स्त्रियों द्वारा व्रत रखकर वट वृक्ष की पूजन की परम्परा चली आ रही है । इस दिन की विशेष बात यह है कि स्त्रियाँ कच्चे सूत से यज्ञोपवीत बनाकर हल्दी से रंगकर धारण करती हैं ।
इस व्रत में मद्र देश के राजा ‘अश्वपति’ { मद्र, केकय, सिन्धु, गांधार आदि देशों का ही राजा “अश्वपति” हो सकता है } की पुत्री सावित्री और सत्यवान की कथा कही सुनी जाती है कि किस प्रकार सावित्री ने तीन दिन निराहार रहकर यमराज के पीछे पड़कर अपने हठ और चातुर्य से यमराज की बुद्धि तक को चकरा दिया और चार वर माँगकर सब अभीष्ट प्राप्त कर लिये.
इस कथानक का यम-नचिकेता के आख्यान से भी साम्य है. नचिकेता { कश्मीरी भाषा के आलोक मे नचिकेता का अर्थ नवीन ध्वज होता है } भी यमराज की प्रतीक्षा में तीन ही दिन निराहार रहे थे ।
इस परम्परा मे ऐसा आभास मिलता है कि अमावस्या तिथि युद्ध के लिये प्रशस्त मानी गई है, इस दिन पुरुषों को युद्ध के लिए विदा देते समय किसी वट(अश्वत्थ/ब्रह्म) वृक्ष के नीचे अश्वों सहित एकत्र दल को स्त्रियों द्वारा अपने पतियों का तिलक , पूजन आदि किया जाता रहा है. सूर्योदय कालीन ‘सावित्री’ और ‘वट’ का संगम होने से ही यह “ब्रह्म सावित्री ” व्रत हुआ ।
ग्रीष्म ऋतु को इंग्लिश मे “समर” कहते हैं . युद्धकार्य के लिये उपयुक्त होने से ही कदाचित् युद्ध के लिये समर शब्द व्यवहृत हुआ !
व्रत विधि संक्षेपतः लिखते हैं-
ज्येष्ठ कृष्णा त्रयोदशी को प्रातः स्नानादि के पश्चात्
मम_वैधव्यादि_सकलदोषपरिहारार्थं_सत्यवत्सावित्रीप्रीत्यर्थं_च_वटसावित्री_व्रतमहं_करिष्ये।’’ कर नाम, गोत्र, वंश आदि के साथ उच्चारण करते हुए। सहित संकल्प कर तीन दिन उपवास करें। अमावस्या को उपवास कर के शुक्ल प्रतिपदा को व्रत समाप्त करें। अमावस्या को वट वृक्ष के समीप बैठ कर बांस के एक पात्र में सप्त धान्य भर कर उसे दो वस्त्रों से ढक दें और दूसरे पात्र में सुवर्ण की ब्रह्म सावित्री तथा सत्य सावित्री की प्रतिमा स्थापित कर के गंधाक्षतादि से पूजन करें। तत्पश्चात् वट वृक्ष को कच्चे सूत से लपेट कर उस वट का यथाविधि पूजन कर के परिक्रमा करें। पुनः
अवैधव्यं_च_सौभाग्यं_देहि_त्वं_मम_सुव्रते।
पुत्रान्_पौत्रांश्च_सौख्यं_च_गृहाणाघ्र्यं_नमोऽस्तु_ते।।
इस श्लोक को पढ़ कर सावित्री को अघ्र्य दें और वटसिञ्चामि_ते_मूलं_सलिलैरमृतोपमैः।
यथा_शाखा_प्रशाखाभिर्वृद्धोऽसि_त्वं_महीतले।
तथा_पुत्रैश्च_पौत्रैश्च_सम्पन्नं_कुरु_मां_सदा।।
इस श्लोक को पढ़ कर वट वृक्ष से प्रार्थना करें। देश-देशांतर में मत-मतांतर से पूजा पद्धति में विभिन्नता हो सकती है। परंतु भाव सबका एक ही रहता है, जो यमराज द्वारा सावित्री को प्रदत्त वरदान या आशीर्वाद है। इसमें भैंसे पर सवार यमराज की मूर्ति बना कर भी पूजा का विधान है। सावित्री कथा का भी श्रवण करें।
आज की अमावस्या वट-सावित्री व्रत से जानी जाती है। यम के साथ नचिकेता ने संवाद किया, सावित्री ने किया। यम-सावित्री संवाद से।
प्राहु: साप्तपदं मैत्रं … मित्रतां च पुरस्कृत्य।
[सात पग साथ चलने से मैत्री हो जाती है। मुझे मित्रता का पुरस्कार दीजिये यमदेव!]
विज्ञानतो धर्ममुदाहरंति … संतो धर्ममाहु प्रधानं
[विवेक विचार से ही धर्मप्राप्ति होती है। संत धर्म को ही प्रधान बताते हैं]
प्रश्न यह नहीं है कि सावित्री कितनी प्रासंगिक है या कितनी हानिकारक है। प्रश्न यह भी नहीं है कि वह आज के मानकों पर खरी उतरती है या नहीं। प्रश्न यह है कि आप अपनी समस्त प्रगतिशीलता और बौद्धिक प्रखरता के होते हुये भी उसके समान आदर्श गढ़ नहीं सके! यथार्थ अलग हो सकते हैं, होते ही हैं किंतु किसी समाज की गुणवत्ता उसके आदर्शों की भव्यता और दीर्घजीविता से भी आँकी जाती है। आप ‘फेल’ हुये हैं! आप का सारा जोर ऐसे प्राणहीन जल की प्राप्ति की ओर है जिसका स्रोत कृत्रिम है और जिसमें मछलियों के जीवित रहने की बात तो छोड़ ही दीजिये, वे हो ही नहीं सकतीं।
एकस्य धर्मेण सतां मतेन, सर्वे स्म तं मार्गमनुप्रपन्ना:, मा वै द्वितीयं मा तृतीयं च
[सतमत है कि एक धर्म के पालन से ही सभी उस विज्ञान मार्ग पर पहुँच जाते हैं जो कि सबका लक्ष्य है,
मुझे दूसरा तीसरा नहीं चाहिये]
यम सावित्री की वाणी की प्रशंसा करते हैं – स्वराक्षरव्यंजनहेतुयुक्तया [स्वर, अक्षर, व्यंजन और युक्तियुक्त – वाणी तो सबकी ऐसी होती है, इसमें अद्भुत क्या है? अद्भुत यह है कि मर्त्यवाणी देवसंवाद करती है। अक्षर माने जिसका क्षरण न हो। जिससे मृत्यु भागे, अमरत्त्व की प्राप्ति हो। अमृतस्य पुत्रा: की अनुभूति का स्तर है वह]
सतां सकृत्संगतभिप्सितं परं , तत: परं मित्रमिति प्रचक्षते ।
न चाफलं सत्पुरुषेण संगतं, ततं सता: सन्निवसेत् समागमे॥
[सज्जनों की संगति परम अभिप्सित होती है, उनसे मित्रता उससे भी बढ़ कर। उनका साथ कभी निष्फल नहीं होता, इसलिये सज्जनों का साथ नहीं छोड़ना चाहिये]
आप तो सज्जन हैं न यमदेव! आप का साथ कैसे छोड़ दूँ?
अद्रोह: सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा
अनुग्रहश्च दानं च सतां धर्म: सनातन:॥
[मनसा, वाचा, कर्मणा सभी प्राणियों से अद्रोह का भाव, अनुग्रह और दान सज्जनों का सनातन धर्म]
आत्मन्यपि विश्वासस्तथा भवति सत्सु य:
न च प्रसाद: सत्पुरुषेषु मोघो न चाप्यर्थो नश्यति नापि मान:
[अपने पर भी उतना विश्वास नहीं होता जितना संतों पर होता है। उनका प्रसाद अमोघ होता है। उनके साथ अर्थ और सम्मान की हानि भी नहीं होती]
संतों की बात करते करते सावित्री उनके लिये आदर्श गढ़ देती है, उनकी कसौटी तय करती है।
महाभारत : वन पर्व