साधकों के लिए कल्पवृक्ष–“एकादशमुखहनुमत्कवच”
यह एकादशमुख हनुमत्कवच साधकों के लिए सौम्य तथा शत्रुसमूह का विशेष संहारक है । यह कवच सम्पूर्ण राक्षसों का विध्वंसक होने से “रक्षोघ्न” कवच के नाम से प्रसिद्ध है ।
“रक्षोघ्नसूक्त” तो राक्षसों का संहारक ही है पर यह “रक्षोघ्नकवच” राक्षसों का विध्वंसक होते हुए अप्रतिम सुरक्षा भी प्रदान करता है । यह पुत्र, धन, सर्वसम्पत्ति के साथ ही साधक की कामना के अनुसार स्वर्ग तथा अपवर्ग भी प्राप्त करा देता है ।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि यह कवच सम्पूर्ण कामनाओं को पू्र्ण करने में सहज ही समर्थ है । इसीलिए इसके विनियोग में “सर्वकामार्थसिद्धयर्थे” बोला जाता है । भगवत्प्राप्ति होने पर ही समस्त कामनाओं का अन्त होता है । अतः मोक्ष इसका विशेष फल है और अन्य फल आनुषंगिक । अर्थात मोक्षेच्छुकों को अन्य फल निष्कामता होने पर भी सहज ही प्राप्त हो जायेंगे ।
अयोध्या में २२वर्ष का एक छात्र मुझसे भागवत पढ़ता था किन्तु वह इतना डरपोक था कि रात को अपनी माँ के साथ सोता था । लघुशंका लगने पर वह अकेला नहीं जा पाता था । माँ खड़ी रहे तब वह लघुशंका करे । एक दिन उसने अपनी समस्या मुझसे व्यक्त की ।
मैंने उसे इस कवच का १पाठ करने को कहा । पाठ प्रातः कर लिया पर रात को उसे स्वप्न में भयंकर राक्षस दिखा और बोला कि अब पाठ करोगे तो मैं तुम्हारा प्राण ले लूंगा । भयभीत छात्र ने मुझसे अपनी व्यथा बतायी और पाठ करने का साहस नही जुटा पा रहा था ।
अन्ततः मैंने कहा कि तुम मरोगे नहीं-यह गारंटी मेरी है और पाठ मत छोड़ो । दूसरी रात को वह राक्षस फिर दिखा और उसे डराते हुए बोला “यदि तुम पाठ नहीं छोड़े तो मैं तुम्हारी जान ले लूँगा । इस बार राक्षस और अधिक उग्र था । वह बालक तीसरे दिन पुनः चिन्तित था और मर जाने के भय से पाठ करने की हिम्मत उसमें नहीं थी । फिर भी किसी प्रकार पाठ कर ही लिया ।
मैंने कहा कि आज तीसरा दिन है । तुमने पाठ कर लिया है, अब कल तुम्हें अवश्य पाठ करना है । आज के स्वप्न से कल के पाठ का निर्णय मत बदलना । तीसरे दिन की रात को स्वप्न में वही राक्षस दिखा और कर्कश स्वर में बोला – “आज मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि तुमने कल पाठ किया तो मैं तुम्हें अवश्य मार डालूँगा ।”
छात्र पढ़ने आया और स्वप्न की पूरी बात बतायी । मैंने पूंछा कि पाठ छोड़े तो नही ? उसने कहा – नहीं छोड़ा । चौथी रात को उसे वह राक्षस न दिखा । उस छात्र में इतनी निर्भीकता आ गयी थी कि रात को १२ बजे अयोध्या “बड़ी छावनी” से लगभग ३किमी दूर “हनुमानबाग” नामक आश्रम में भागवत का पाठ करने साइकिल से जाता था ।
“विचार कीजिए कि इस कवच से कितनी अधिक निर्भीकता आती है ।” – यह श्रीअवध की एक सत्य घटना आपके समक्ष प्रस्तुत की गयी ।
इस कवच के कितने परिणाम हैं ? -इसका निर्णय श्रीहनुमान जी के अतिरिक्त और कौन कर सकता है । किन्तु इसका पाठ उससे- जिसे यह परम्परया प्राप्त हो -श्रवण करने के बाद ही आरम्भ करना चाहिए ।। और कुछ दिन यदि उसके सान्निध्य में रहकर किया जाय तो अत्युत्तम होगा । स्वतः आरम्भ कर देने पर कोई विघ्न आये तो मनोबल को कौन बढ़ायेगा ? आवश्यक सुरक्षा कहाँ से प्राप्त होगी ? अतः इसका आरम्भ पूर्वोक्त रीति से किसी के द्वारा श्रवण़ करने के साथ ही पाठशुद्ध हो जाने पर प्रारम्भ करना चाहिए ।
शरभेश्वरकवच के पाठ में गड़बड़ी होने पर पागल हुए साधकों की स्थिति यथावत् करने के लिए विज्ञ महापुरुष इसी कवच का आश्रय लेते हैं । इसके उनका कुछ अनुभव आपके लिए और प्रस्तुत करेंगे जिन्होंने मेरे निर्देशन में आपत्ति के समय इसका पाठ किया है ।
जो द्विज हैं । वे इस कवच का पाठ करने से पूर्व १माला ब्रह्मगायत्री अवश्य जप लें । जप के पूर्व आसनशुद्धि, देहशुद्धि, शिखाबन्धन तथा प्राणायामादि अत्यावश्यक है । गायत्री जप के पश्चात् ही इस कवच का पाठ करें ।
अब आपके समक्ष प्रामाणिक पाठ प्रस्तुत किया जा रहा है । बाजार की पुस्तकों से इस पाठ को संशोधित न करें । अन्यथा हानि की सम्भावना है या लाभ न हो; क्योंकि यह पाठ अतिशुद्ध है । आजकल उपलब्ध पुस्तकों में अनेक अशुद्धियाँ हैं ।
“एकादशमुखहनुमत्कवचम्”
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ लोपामुद्रोवाच- कुम्भोद्भव दयासिन्धो श्रुतं हनुमतः परम् । यन्त्रमन्त्रादिकं सर्वं त्वन्मुखोदीरितं मया ॥१॥
दयां कुरु मयि प्राणनाथ वेदितुमुत्सहे । कवचं वायुपुत्रस्य एकादशमुखात्मनः ॥२॥
इत्येवं वचनं श्रुत्वा प्रियायाः प्रश्रयान्वितम् । वक्तुं प्रचक्रमे तत्र लोपामुद्रां प्रति प्रभुः ॥३॥
अगस्त्य उवाच –
नमस्कृत्वा रामदूतं हनुमन्तं महामतिम् । ब्रह्मप्रोक्तं तु कवचं शृणु सुन्दरि सादरम् ॥४॥
सनन्दनाय सुमहच्चतुराननभाषितम् । कवचं कामदं दिव्यं सर्वरक्षोनिबर्हणम् ॥५।।
सर्वसम्पत्प्रदं पुण्यं मर्त्यानां मधुरस्वरे । ॐ अस्य श्रीकवचस्यैकादशवक्त्रस्य धीमतः ॥६॥
हनुमत्कवचमन्त्रस्य सनन्दनऋषिः स्मृतः । प्रसन्नात्मा हनूमांश्च देवताऽत्र प्रकीर्तिता ॥७॥
छन्दोऽनुष्टुप् समाख्यातं बीजं वायुसुतस्तथा । मुख्यः प्राणः शक्तिरिति विनियोगः प्रकीर्तितः ॥८॥
सर्वकामार्थसिद्ध्यर्थे जप एवमुदीरयेत् ।
यहाँ छठें श्लोक के “ॐ अस्य” से आरम्भ दांये हाथ में जल लेकर ही करना है । और “एवमुदीरयेत्” तक बोलकर पुनः विनियोग पढ़ें —
“ॐ अस्य श्रीकवचस्यैकादशवक्त्रस्य धीमतः हनुमत्कवचमन्त्रस्य सनन्दनऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, प्रसन्नात्मा हनूमान् देवता, वायुसुतो बीजं, मुख्यः प्राणः शक्तिः सर्वकामार्थसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः” -बोलकर हाथ का जल भूमि पर गिरा दें ।
ऋष्यादिन्यास-
ॐ सनन्दनाय ऋषये नमः शिरसि, ॐ अनुष्टुब्छन्दसे नमो मुखे, ॐ प्रसन्नात्महनुमद्देवतायै नमो हृदि, ॐ वायुसुतबीजाय नमो गुह्ये, ॐ मुख्यप्राणशक्तये नमः पादयोः, ॐ सर्वकामार्थसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।
करन्यास-
ॐ स्फ्रेंबीजं शक्तिधृक् पातु शिरो मे पवनात्मजः इत्यङ्गुष्ठाभ्यां नमः, ॐ क्रौंबीजात्मा नयनयोः पातु मां वानरेश्वरः इति तर्जनीभ्यां नमः,
ॐ क्षंबीजरूपी कर्णौ मे सीताशोकविनाशनः इति मध्यमाभ्यां नमः, ॐ ग्लौंबीजवाच्यो नासां मे लक्ष्मणप्राणदायकः इत्यनामिकाभ्यां नमः, ॐ वं बीजार्थश्च कण्ठे मे पातु चाक्षयकारकः इति कनिष्ठिकाभ्यां नमः, ॐ ऐं बीजवाच्यो हृदयं पातु मे कपिनायकः इति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
हृदयादिन्यास-
ॐ स्फ्रेंबीजं शक्तिधृक् पातु शिरो मे पवनात्मजः इति हृदयाय नमः, ॐ क्रौंबीजात्मा नयनयोः पातु मां वानरेश्वरः इति शिरसे स्वाहा, ॐ क्षंबीजरूपी कर्णौ मे सीताशोकविनाशनः इति शिखायै वषट्, ॐ ग्लौंबीजवाच्यो नासां मे लक्ष्मणप्राणदायकः इति कवचाय हुम्, ॐ वं बीजार्थश्च कण्ठे मे अक्षयक्षयकारकः इति नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ ऐं बीजवाच्यो हृदयं पातु मे कपिनायकः इत्यस्त्राय फट् ।
दिग्बन्धन-
इसके बाद बांये हथेली पर दांये हाथ की तर्जनी और मध्यमा इन दोनों अंगुलियों से ३वार ज़ोर से ताली बजाकर दशों दिशाओं ( ४ दिशा, ४ उपदिशा अर्थात् कोने और २ ऊपर तथा नीचे ) की ओर क्रमशः “ॐ भूर्भुवःस्वरोम्” मन्त्र पढ़कर चुटकी बजाता हुआ अपनी सुरक्षा करे । इससे पाठ के विघ्नकर्ता राक्षस आदि से सुरक्षा होती है ।
ध्यान-
उदयकालिक सूर्य की भाँति कान्तिमान् , निखिल पापों के विनाशक, श्रीराम के चरणों में ध्यानमग्न, अनेक वानरभटों से सर्वदा सुसेवित, भयंकर गर्जना से निशाचरों को निरन्तर प्रकम्पित करने वाले और अनेक आभूषणों से विभूषित सुन्दर मन्द मुस्कानयुक्त पवनपुत्र का ध्यान करे-
उद्यद्भानुसमानदीप्तिमनघं श्रीरामपादाम्बुज ध्यानासक्तमनेकवानरभटैः संसेवितं सर्वदा । नादेनैव निशाचरानविरतं संतर्जयन्तं मुदा नानाभूषणभूषितं पवनजं वन्दे सुमन्दस्मितम् ॥
कवचम्-
ॐ स्फ्रें बीजं शक्तिधृक् पातु शिरो मे पवनात्मजः ॥९॥
क्रौं बीजात्मा नयनयोः पातु मां वानरेश्वरः । क्षं बीजरूपी कर्णौ मे सीताशोकविनाशनः ॥१०॥
ग्लौंबीजवाच्यो नासां मे लक्ष्मणप्राणदायकः । वं बीजार्थश्च कण्ठं मे अक्षयक्षयकारकः ॥११॥
ऐं बीजवाच्यो हृदयं पातु मे कपिनायकः । वं बीजकीर्तितः पातु बाहू मे चाञ्जनीसुतः ॥१२॥
ह्रां बीजं राक्षसेन्द्रस्य दर्पहा पातु चोदरम् । ह्सौं बीजमयो मध्यं मे पातु लङ्काविदाहकः ॥१३॥
ह्रीं बीजधरो गुह्यं मे पातु देवेन्द्रवन्दितः । रं बीजात्मा सदा पातु चोरू मे वार्धिलङ्घनः ॥१४॥
सुग्रीवसचिवः पातु जानुनी मे मनोजवः । पादौ पादतले पातु द्रोणाचलधरो हरिः ॥१५॥
आपादमस्तकं पातु रामदूतो महाबलः । पूर्वे वानरवक्त्रो मामाग्नेय्यां क्षत्रियान्तकृत् ॥१६॥
दक्षिणे नारसिंहस्तु नैर्ऋत्यां गणनायकः । वारुण्यां दिशि मामव्यात् खगवक्त्रो हरीश्वरः ॥१७॥
वायव्यां भैरवमुखः कौबेर्यां पातु मां सदा । क्रोडास्यः पातु मां नित्यमीशान्यां रुद्ररूपधृक् ॥१८॥
ऊर्ध्वं हयाननः पातु त्वधः शेषमुखस्तथा । रामास्यः पातु सर्वत्र सौम्यरूपी महाभुजः ॥१९॥
फलश्रुतिः–
इत्येवं रामदूतस्य कवचं प्रपठेत् सदा । एकादशमुखस्यैतद् गोप्यं वै कीर्तितं मया ॥२०॥
रक्षोघ्नं कामदं सौम्यं सर्वसम्पद्विधायकम् । पुत्रदं धनदं चोग्रशत्रुसंघविमर्दनम् ॥२१॥
स्वर्गापवर्गदं दिव्यं चिन्तितार्थप्रदं शुभम् । एतत् कवचमज्ञात्वा मन्त्रसिद्धिर्न जायते ॥२२॥
चत्वारिंशत्सहस्राणि पठेच्छुद्धात्मना नरः । एकवारं पठेन्नित्यं कवचं सिद्धिदं महत् ॥२३॥
द्विवारं वा त्रिवारं वा पठन्नायुष्यमाप्नुयात् । क्रमादेकादशादेवमावर्तनजपात् सुधीः ॥२४॥
वर्षान्ते दर्शनं साक्षाल्लभते नात्र संशयः । यं यं चिन्तयते चार्थं तं तं प्राप्नोति पूरुषः ॥२५॥
ब्रह्मोदीरितमेतद्धि तवाग्रे कथितं महत् ॥२६॥
इत्येवमुक्त्वा कवचं महर्षिस्तूष्णीं बभूवेन्दुमुखीं निरीक्ष्य । संहृष्टचित्तापि तदा तदीय पादौ ननामातिमुदा स्वभर्तुः ॥२७॥
॥ इति श्रीअगस्त्यसंहितायाम् एकादशमुखहनुमत्कवचं सम्पूर्णम् ॥
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