विद्या विभाग-विद्या के मुख्य २ विभाग हैं-परा विद्या या विद्या, अपरा विद्या या अविद्या। अविद्या का अन्य अर्थ है, विद्या का अभाव। इसी को ज्ञान और विज्ञान भी कहते हैं। विद्या या ज्ञान का अर्थ है एकत्व या समन्वय। सबके लिए भाषा या शब्दों के एक अर्थ हों, या विज्ञान के नियम हर स्थान तथा काल में एक हों तभी उनका प्रयोग हो सकता है। या एक ज्ञान अन्य से कैसे सम्बन्धित है तभी उसे समझा तथा स्मरण किया जा सकता है। ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानं इदं वक्ष्यामशेषतः। यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥ (गीता, ७/२) = अब मैं तुमको विज्ञान सहित ज्ञान पूरी तरह बताता हूं, जिसे जानने के बाद अन्य कुछ जानना बाकी नहीं रहता। द्वे विद्ये वेदितव्ये, इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति, परा चैव अपरा च॥४॥ तत्र अपरा ऋग्वेदः, यजुर्वेदः, सामवेदः, अथर्ववेदः, शिक्षा, कल्पः, व्याकरणं, निरुक्तं, छन्दः, ज्योतिषं- इति। अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते॥५॥ (मुण्डकोपनिषद्, १/१/४-५) = ब्रह्मविद् कहते हैं कि २ प्रकार की विद्या जाननी चाहिए-परा, और अपरा। यहां अपरा में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, तथा ज्योतिष हैं। अपरा विद्या से अक्षर प्राप्ति होती है (स्थायी स्मरण, एकत्व, अक्षर ब्रह्म या मोक्ष प्राप्ति)। विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह। अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया ऽमृतमश्नुते॥(ईशावास्योपनिषद्, ११) जो विद्या और अविद्यादोनों को एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करता है (जीवन यापन करता है) तथा विद्या से अमृत (स्थायी ज्ञान, मोक्ष) पाता है। मोक्षेधीर्ज्ञानमन्यत्र विज्ञानं शिल्पशास्त्रयोः (अमरकोष, १/५/६) ज्ञान से मोक्ष तथा धी (धी = धारणा, बुद्धि = समन्वय) होती है, विज्ञान में शिल्प शास्त्र हैं। आज भी विज्ञान की परिभाषा यही है कि यह वर्गीकृत या क्रमबद्ध ज्ञान है। अविद्या के ५ स्तर हैं, विद्या के अभाव रूप या वर्गीकरण रूप से। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश। (समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च॥२॥ अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष-अभिनिवेशाः क्लेशाः॥३॥-योग सूत्र, २/२-३) समाधि = समन्वय से भावना या सुख होता है क्लेश से शरीर क्षीण होता है। अविद्या की परिभाषा है (योगसूत्र, २/५)-अनित्य को नित्य, अपवित्र को पवित्र, दुःख को सुख तथा अनात्मा को आत्मा समझना। अस्मिता का अर्थ है द्रष्टा (आत्मा) और दृश्य (शरीर, विश्व) को एक मानना (योग सूत्र , २/६) राग का अर्थ है सुख के पीछॆ भागना (योग सूत्र, २/७) द्वेष का अर्थ है दुःख के कारण चित्त की स्थिति (योग सूत्र, २/८) अभिनिवेश का अर्थ है अपने रस (विचार या जीवन) का वहन करना जिसमें विद्वान् भी लिप्त होते हैं (स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः-योगसूत्र, २/९)। जीवन का मोह या जो विचार आ गया उसमें अड़े रहना। विज्ञान अर्थ में ये क्रम हैं- अविद्या= वर्गीकरण अस्मिता-प्रत्येक वर्ग की परिभाषा या परिचय। राग= एक वर्ग या विषय का अन्य से सम्बन्ध। द्वेष = अन्य वर्ग या विषय से भिन्नता। अभिनिवेश = सिद्धान्त स्थिर करना (प्रयोग आदि द्वारा)। विषयों के विस्तृत वर्गीकरण में १४ या १८ विद्या गिनते हैं- अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः। पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश॥२८॥ आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्वश्चैव ते त्रयः। अर्थशास्त्रं चतुर्थं तु विद्या ह्यष्टादशैव ताः॥२९॥ (विष्णु पुराण, ३/६/२८-२९) १४ विद्या हैं-४ वेद (ऋक्-यजु-साम-अथर्व), ६ अंग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, कल्प, ज्योतिष), मीमांसा, न्याय, पुराण, धर्मशास्त्र। इनमें ४ जोड़ने पर १८ विद्या हैं-आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद, अर्थशास्त्र। वेद तथा अंग मिला कर १० हैं, शैव आगम या महाविद्या १० हैं। मस्तिष्क के भागों में विचार करने के १८ प्रकार हैं, जो रौद्र आगम के भेद हैं। समुन्मीलत् संवित्, कमल मकरन्दैक रसिकम्, भजे हंस-द्वन्द्वं किमपि महतां मानस चरम्। यदालापादष्टादश गुणित विद्या परिणतिः, यदादत्ते दोषाद्, गुणमखिलमद्भ्यः पय इव॥ (शंकराचार्य, सौन्दर्य लहरी, ३८) =ज्ञान रूपी खिलते हुए कमल पर २ हंस हैं, जिनमें १ मकरन्द का रसिक है। मन में विचरण करने वाले उन हंसों की वन्दना करता हूं, जिनके वार्तालाप से १८ प्रकार के विद्या की पूर्णता होती है, जिससे मनुष्य दोषों से गुणों को वैसे ही निकाल लेता है, जैसे जल से दूध निकलता हो। यहां जल और दूध को अलग समझने की बात है, कोई हंस उनको अलग नहीं कर सकता है। मन के भीतर २ हंस आत्मा-जीव हैं, जिनमें एक कर्म (मकरन्द) में लिप्त रहता है, अन्य उससे अलग होकर द्रष्टा मात्र है। यही शिव-पार्वती संवाद है जिससे सभी विद्या की उत्पत्ति हुयी है। जिस ज्ञान में वस्तुओं की गणना हो सके वह गणेश है। एक वस्तु कण है, उसका समूह गण है, इस प्रकार का ज्ञान गणेश है। जो अलग अलग गिना नहीं जा सके वह सबमें मिला हुआ रस है। इस रस या भाव की विद्या रसवती या सरस्वती है। वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि। मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणी विनायकौ॥ (रामचरितमानस, मंगलाचरण) यहां वर्ण, शब्द आदि गिने जा सकते हैं, जिनका ज्ञान विनायक से है। उसका भाव या रस नहीं गिन सकते, वह वाणी है। दोनों मंगल कारक हैं। सरस्वती के मूर्ति रूप में दोनों कुण्डल ९-९ अंक के मकर जैसे हैं, जो १८ विद्या के प्रतीक हैं। या उनकी १८ भुजा की मूर्ति बनती है। अस्या यदष्टादश संविभज्य विद्याः श्रुतीः दध्रतुरर्धमर्धम्। कर्णान्तरुत्कीर्णगभीररेखः किं तस्य संख्यैव नवा नवाङ्कः।। (नैषध चरित, ७/६३) इस कारण पुराण तथा उपपुराण १८-१८ हैं, महाभारत के १८ पर्व तथा गीता के १८ अध्याय हैं।