कृष्ण के जीवन पर एक दृष्टि-
कृष्ण के चरित्र में सत्य प्रकट करना बड़ा ही कठिन है क्योंकि मिथ्या और अलौकिक घटनाओं की भस्म में यहां सत्य रूपी अग्नि ऐसी छिप गई है कि उस का पता लगाना टेढ़ी खीर है। जिन उपादानों से सच्चा कृष्ण चरित्र प्रकट हो सकता है वह असत्य के समुद्र में निमग्न हो गये हैं। फिर भी जितना सत्य उपलब्ध होता है, उस के आधार पर कृष्ण चरित्र का बड़ा उत्तम प्रतिपादन होता है। बचपन में श्रीकृष्ण आदर्श बलवान् थे। उस समय उन्होंने केवल शरीर बल से ही हिंसक जन्तुओं से वृन्दावन की रक्षा की थी और कंस के मल्लादि को भी मार गिराया था। गौ चराने के समय ग्वालों के साथ खेल-कूद और कसरत कर उन्होंने अपने शारीरिक बल की वृद्धि कर ली थी। कुरुक्षेत्र युद्ध में उन के रथ हांकने की भी बड़ी प्रशंसा पाई जाती है।
अस्त्र शस्त्र की शिक्षा मिलने पर वे क्षत्रिय-समाज में सर्वश्रेष्ठ वीर समझे जाने लगे। उन्हें कभी कोई परास्त न कर सका। कंस, जरासन्ध, शिशुपाल आदि तत्कालीन प्रधान योद्धाओं से तथा काशी, कलिंग, गान्धार आदि राजाओं से वे लड़ गए और सब को उन्होंने हराया। सात्यकि और अभिमन्यु उन के शिष्य थे। वे दोनों भी सहज ही हारने वाले न थे। स्वयम् अर्जुन ने भी युद्ध की बारीकियां उन से सीखी थीं। केवल शारीरिक बल और शिक्षा पर जो रण-पटुता निर्भर है, वह सामान्य सैनिक में भी हो सकती है। सेनापतित्व ही योद्धा का वास्तविक गुण है। महाभारत आदि में एक भी अच्छे सेनापति का पता नहीं लगता। भीष्म या अर्जुन अच्छे सेनापति न थे। श्रीकृष्ण के सेनापतित्व का कुछ विशेष परिचय जरासन्ध युद्ध में मिलता है। उन्होंने अपनी मुट्ठी भर यादव सेना से जरासन्ध का सामना करना असाध्य समझ कर मथुरा छोड़ना, नया नगर बसाने के लिए द्वारिका द्वीप का चुनना और उसके सामने की रैवतक पर्वत माला में दुर्भेद्य दुर्ग निर्माण करना जिस रणनीति का परिचायक है, वह उस समय के और किसी क्षत्रिय में नही देखी जाती।
कृष्ण की ज्ञानार्जनी वृत्तियां सब ही विकास की पराकाष्ठा को पहुंची हुई थी। वे अद्वितीय वेदज्ञ थे। भीष्म ने उन्हें अर्घ प्रदान करने का एक कारण यह भी बताया था। शिशुपाल ने इस का कुछ उत्तर नहीं दिया था। केवल इतना ही कहा था कि वेदव्यास के रहते कृष्ण की पूजा क्यों? कृष्ण ने वेद प्रतिपादित उन्नत, सर्वलोक हितकारी सब लोगों के आचरण योग्य धर्म का प्रसार किया। इस धर्म में जिस ज्ञान का परिचय मिलता है। वह प्रायः मनुष्य बुद्धि से परे है। श्रीकृष्ण ने मानुषी शक्ति से सब काम सिद्ध किए हैं। गीता कृष्ण की अनुपम देन है।
श्रीकृष्ण मन से श्रेष्ठ और माननीय राजनीतिज्ञ थे। इसी से युधिष्ठिर ने वेदव्यास के कहने पर भी श्रीकृष्ण से परामर्श बिना राजसूय यज्ञ में हाथ नहीं लगाया। स्वेच्छाचारी यादव और कृष्ण की आज्ञा में चलने वाले पाण्डव दोनों ही उन से पूछे बिना कुछ नहीं करते थे। जरासन्ध को मार कर उस की कैद से राजाओं को छुड़ाना उन्नत राजनीति का अति सुन्दर उदाहरण है। यह साम्राज्य स्थापना का बड़ा सहज और परमोचित उपाय है। धर्मराज्य स्थापना के पश्चात् उस के शासन के हेतु भीष्म से राज्य-व्यवस्था ठीक कराना राजनीतिज्ञता का दूसरा बड़ा प्रशंसनीय उदाहरण है।
कृष्ण की सब कार्यकारिणी वृत्तियां चरमसीमा तक विकसित हुई थीं। उन का साहस, उन की फुर्ती और तत्परता अलौकिक थी। उन का धर्म तथा सत्यता अचल थी। स्थान-स्थान पर उन के शौर्य, दयालुता और प्रीति का वर्णन मिलता है। वे शान्ति के लिए दृढ़ता के साथ प्रयत्न करते थे और इसके लिए वे दृढ़प्रतिज्ञ थे ‘वे सब के हितैषी थे। केवल मनुष्यों पर ही नहीं गोवत्सादि जीव जन्तुओं पर भी वे दया करते थे। वे स्वजन प्रिय थे। परलोक हित के लिए दुष्टाचारी स्वजनों का विनाश करने में कुण्ठित न होते थे। कंस का मामा था। उन के जैसे पाण्डव थे वैसे शिशुपाल भी था। दोनों ही उन की फूफी के बेटे थे। उन्होंने मामा और भाई का लिहाज न कर दोनों को ही दण्ड दिया। जब यादव लोग सुरापायी (शराबी) को उद्दण्ड हो गए थे। उन्होंने उन को भी अछूता न छोड़ा।
श्रीकृष्ण आदर्श मनुष्य थे। मनुष्य का आदर्श प्रचारित करने के लिए उनका प्रादुर्भाव हुआ था। वे अपराजेय, अपराजित, विशुद्ध, पुण्यमय, प्रेममय, दयामय, दुढ़कर्मी, धर्मात्मा, वेदज्ञ, नीतिज्ञ, धर्मज्ञ, लोकहितैषी, न्यायशील, क्षमाशील, निर्भय, निरहंकार, योगी और तपस्वी थे। वे मानुषी शक्ति से काम करते थे परन्तु उन में देवत्व अधिक था। पाठक अपनी बुद्धि के अनुसार ही इस का निर्णय कर लें कि जिस की शक्ति मानुषी पर चरित्र मनुष्यातीत था, वह पुरुष मनुष्य या देव था। राइम डेविड्स ने भगवान् बुद्ध को हिन्दुओं में सब से बड़ा ज्ञानी और महात्मा माना है। (The wisest and the greatest of the Hindus) हम भी कृष्ण को ऐसा ही मानते है।
‘देखो! श्रीकृष्ण जी का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है। उन का गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र आप्त पुरुषों के सदृश है। जिस में कोई अधर्म का आचरण श्रीकृष्ण जी ने जनम से मरण-पर्यन्त बुरा कुछ भी किया हो ऐसा नहीं लिखा, और इस भागवत वाले ने अनुचित मनमाने दोष लगाए हैं। दूध, दही, मक्खन आदि की चोरी लगाई और कुब्जा दासी से समागम, परस्त्रियों से रासमण्डल क्रीड़ा आदि मिथ्या दोष श्रीकृष्ण जी में लगाए हैं। इस को पढ़-पढ़ा, सुन-सुना के अन्यगत वाले श्रीकृष्ण जी की बहुत सी निन्दा करते हैं। जो यह भागवत न होता तो श्रीकृष्ण जी के सदृश महात्माओं की झूठी निन्दा क्योंकर होती है?’
-सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ११ ।।
श्रीकृष्ण ने उच्च तत्वज्ञान और असीम वैराग्य के साथ कर्मयोग का अनुपम उपदेश अर्जुन को दिया है। उस से उन का महत्व उत्तरोत्तर बढ़ता चला है और उनके प्रति श्रद्धा का भाव अधिकाधिक दृढ़ हो जाता है। सक्षीण-ऐश्वर्य विलुप्त वैभव और अवनत आर्य जाति को श्रीकृष्ण प्रभृति अपने महापुरुषों का ही अवलम्ब है, उन्हीं के सहारे वह श्वास ले रही है, और जिस मल्लयुद्ध कला (कुश्ती) में श्रीकृष्ण सर्वोपरि सिद्धहस्त और पांरगत थे, उस का प्रदर्शन उनके स्मरण में किया जाये। अखाड़ों में मल्ल-कला के कौशल दिखलाए जायें। रात्रि वा सायंकाल के समय श्रीकृष्ण जयन्ती की स्मारक सभा करके उसमें श्रीकृष्ण-गुणगान और उनके तत्वदर्शन श्रीमद्भगवद्गीता पर उत्तम भाषण हों या निबन्ध-पाठ हों।