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“ अग्नीषोमात्मकं जगत “ के अनुसार संसार अग्नि और सोम रूप है ! अग्नि ही सूर्य रूप में व्याप्त होता है और सोम चन्द्रमा के रूप में ! स्रष्टि में दोनों की अनिवार्य आवश्यकता है ! आध्यात्मिक भाषा में शिव – शक्ति या प्रकृति – पुरुष सम्पूर्ण विश्व के हेतु है ! विद्युत-प्रकाश में भी ठंडा-गरम दो तार का उपयोग आपेक्षित होता है ! इसी कोटि में अग्नि और सोम का प्रत्येक स्रष्टिकार्य में उपयोग होता है ! प्रश्नोपनिषद में कहा गया है कि “ प्रजा कामना से प्रजापति ने तप करके मिथुन (जोड़ा) उत्पन्न किया ! वह था रयि और प्राण ! प्राण का स्थूल रूप आदित्य है और रयि का चंद्रमा है ! प्रत्यक्ष ही सूर्य तथा चन्द्रमा का सम्बन्ध स्रष्टि से है ! अन्न फलादि के परिपाक तथा मनुष्य के स्वास्थ्य आदि पर भी सूर्य चन्द्र का प्रभव पड़ता है ! जैसे सूर्य मंडल से पृथक भी सूर्य मंडल का प्रभव पड़ता है वैसे ही चन्द्रमा का भी प्रभाव पड़ता है ! जैसे ईधन के बगैर अग्नि का प्रज्वलन नहीं होता , घी के बिना दीपक का प्रजव्लन नहीं होता उसी प्रकार सोम के धारापात के बिना सूर्य का भी प्रजवालन नहीं हो सकता है , इसलिए श्रीभागवत में सोम या चन्द्र को सूर्यमंडल के ऊपर बताया गया है; क्योकि सोम का महान अर्णव सर्वव्यापी है , परन्तु उसका विशुद्ध रूप सूर्यमंडल से ऊपर है ! फिर भी जिसकी पूर्णता में पूर्णमासी होती है , वह द्रश्य चंद्रमा उसी महान सोमार्णव का स्थूल रूप है ! उपनिषदों में रवि या सोम का ही रूपान्तर अन्न माना गया है ! भगवान् कहते है कि “मै रसात्मक सोमरुप से सब अन्नादि ओषधियो का पोषण करता हूँ !” छान्दोग्य के अनुसार मन का अन्नमय होना बताया गया है ! तभी अन्न के द्वारा उसका अप्यायन होता है ! शुद्ध अशुद्ध अन्न का मन पर शीघ्र असर पड़ता है ! मन पर भांग या सुरापान का असर सभी को विदित है ! वेदों में सोम – चन्द्र को परमेश्वर के मन से उत्पन्न हुआ कहा गया है ! सभी जीवो के सभी मनो का वह वैसे ही अधिष्तात्रदेवता है , जैसे सूर्य प्राणियों के चक्षु का अधिष्त्रदेव है ! स्थूल चन्द्र >> शास्त्र स्वयं स्थूल चन्द्र को द्रश्य ही मानते है ! प्राचीन काल में भी रावण ने चन्द्र लोक में जाकर चन्द्रमा पर बाणों का प्रयोग किया था ! ब्रह्माजी की आज्ञा से लौट आया था ! सप्तशती का पाठ करनेवाला प्रत्येक व्यक्ति पढता है महिषासुर ने सूर्य,अग्नि,इन्द्र,वायु और चंद्रमा का अधिकार स्वयं ले लिया था ! हां शास्त्र के अनुसार अग्निहोत्र आदि कर्म्कलाप के अनुष्ठानार्थी धार्मिक लोगो द्वारा प्राप्य चंद्रलोक एक दिव्यधाम या स्वर्ग माना जाता है ! वहा विविध प्रकार का सुख वैभव माना जाता है ! वह सत्कर्म के प्रभाव से ही प्राप्त होता है ! उसे सर्वसाधारण गम्य नहीं माना जाता ! इधर वर्तमान वैज्ञानिक चंद्रलोक पहुँच गए ! वहा से मिटटी , पत्थर भी लाए है ! यह विरोध अवश्य ही प्रतीत होता है ! परन्तु विचार करने से यह भी विरोध नहीं है , कारण कि वह दिव्य भोग या वैभव सुक्ष्म है , स्थूल नहीं: अतः उसकी प्राप्ति के लिए धर्म-कर्मानुष्ठान ही मार्ग है ! जैसे जो पदार्थ सूक्ष्म वीक्षणों से दिखाई देता है , वह मात्र नेत्रों से द्रष्ट नहीं होता ! जैसे भूलोक में काशी , वृन्दावन का दिव्य रूप सर्वसाधारण के लिए अगोचर है , वैसे ही चंद्रलोक की सूक्ष्म विशेषता भी बाह्य चक्षु आदि से अगम्य है ! कैलाश पर्वत पर रावण बिना उपासना के गया था तो उसे केवल बर्फ और पाषाण ही द्रष्टिगोचर हुए थे ! उपासना के पश्चात् जाने पर उसे रत्नमय पाषाण और कल्पवृक्ष का वन दिखाई दिया था ! हरिदास स्वामी जी की कृपा से अकबर को वृन्दावन का केशीघाट रत्नों से निर्मित दिखाई पड़ा था ! इस तरह महान सोमार्णव के स्थूल रूप द्रष्ट चन्द्र मण्डल में भी बहुत सी दिव्यताओ के होने पर भी वैज्ञानिको को उनका अनुभव नहीं हो सकता ! उन्हें वहा मिटटी और ज्वालामुखी का ही दर्शन हुआ है ! यही स्थिति अन्य लोको के सम्बन्ध में भी है ! कई लोक इतने शीत या उष्ण है या वायुहीन है की वहा जीवन तत्व का होना असंभव समझा जाता है ! परन्तु जीवन का तत्व तो अभी वैज्ञानिको के लिए अगम्य ही है ! शास्त्रों के अनुसार लोको के अनुरूप ही शरीर एवम जीवन होते है ! इसलिए जैसे पृथ्वी पर पार्थिव शरीर होता है , वैसे ही आदित्य मंडल में तेजस शरीर होते है , उनके लिए सूर्य का तेज असह्य नहीं है ! जैसे प्रेत , पिशाच, या दिव्य , सिद्ध या देवता सामने रहने पर भी परिलक्षित नहीं होते है , वैसे ही भूलोक-चन्द्र के दिव्य देवता या सिद्ध सामने होने पर भी सर्वसाधारण को द्रष्टिगोचर नहीं होते है ! बर्फ हजारो वर्ष का हो जाने पर नीलमणि बन जाता है , तब यह विश्वास करना और भी कठिन हो जाता है यह भी सूर्य की रश्मियों में रहा होगा ! इस द्रष्टि से तो चन्द्र लोक के मिटटी पत्थर ही नहीं , भूलोक के मिटटी पत्थर भी कभी जल ही थे ! वेदंतानुसार “ अदभ्यः पृथ्वी “ जल से ही पृथ्वी बनती है ! चंद्रोदय होने पर समुद्र में उत्ताल तरंगे उत्पन्न होती है , अतः समुद्र से भी चंद्रमा का विशेष सम्बन्ध जोड़ा गया है ! किन्ही पुराणों के अनुसार चन्द्रमा भी क्षीरसमुद्र-मंथन से ही इतर रत्नों के सामान प्रकट हुआ था ! कुछ भी हो वैज्ञानिको की चंद्रलोक यात्रा से और धर्मो के सामने कठनाई अवश्य आ गयी है. किन्तु वैदिक धर्म पर इससे कुछ भी विपरीत प्रभाव नहीं पड़ सकता है क्योकि अनेक बार लोकलोकांतरो में मनुष्य का गमन शास्त्रों में मान्य है ! रघुवंश के अनुसार वशिष्ठ के मान्त्रिक विधानों के बल पर राजा रघु का रथ समुद्र , पर्वत , आकाश में समान रूप से जा सकता था ! कर्दम ऋषि निर्मित पुष्पक विमान की सर्वत्र अव्याहत गति थी ! अर्जुन आदि का भी इन्द्रलोक का गमनागमन था ही ! हां इन लोगो को वहा की दिव्यता का भी अनुभव होता था , परन्तु अभी वैज्ञानिको को उन लोको की दिव्यता का अनुभव नहीं हुआ. क्योकि उसके लिए विशेष सदाचार एवम पवित्रता भी आपेक्षित है