अश्वत्थामा – एक समग्र चिन्तन
महाभारत में अश्वत्थामा की क्रूरता का व्यासजी द्वारा वर्णन -कृपाचार्य और कृतवर्मा ने अश्वत्थामा से पूछा , ‘ तुम रथ किसलिये तैयार कर रहे हो , तुम्हारा क्या करनेका विचार है ? हम भी तो तुम्हारे साथ ही हैं और सुख – दुःखमें तुम्हारे साथ ही रहेंगे । ‘यह सुनकर अश्वत्थामा ने जो कुछ वह करना चाहता था, उन्हें साफ साफ सुना दिया । वह बोला
“‘धृष्टद्युम्नने मेरे पिताजी को उस स्थिति में मारा था , जब उन्होंने अपने शस्त्र रख दिये थे । अतः आज उस पापी पाञ्चालपुत्रको मैं भी उसी तरह पापकर्म करके कवचहीन अवस्थामें मारूंगा । मेरा यही विचार है कि उसे शस्त्रों के द्वारा प्राप्त होने वाले लोक नहीं मिलने चाहिये । आप दोनों भी जल्दी ही कवच धारण कर लें , खड्ग् तथा धनुष लेकर तैयार हो जाये और मेरे साथ रहकर अवसरको प्रतीक्षा करें ।
‘ऐसा कहकर अश्वत्थामा रथपर सवार हुआ और शत्रुओंको ओर चल दिया । उसके पीछे – पीछे कृपाचार्य और कृतवर्मा भी चले ।
वह रात्रिमें हो , जव कि सब लोग सोये हुए थे , पाण्डवोंके शिविरमें पहुंचा और उसके द्वार पर जाकर खड़ा हो गया । वहां उसने चन्द्रमा और सूर्यके समान तेजस्वी एक विशालकाय पुरुषको दरवाजेपर खड़ा देखा ।
उस महापुरुषको देखकर शरीरमें रोमाञ्च हो जाता था । वह व्याघ्रचर्म धारण किये था , ऊपरसे मृगचर्म ओढ़े था तथा सर्पो का यज्ञोपवीत पहने हुए था । उसकी विशाल भुजाओं में तरह – तरहके शस्त्र सुशोभित थे , बाजूबंदोंके स्थानमें बड़े – बड़े सर्प बंधे हुए थे तथा उसके मुख से अग्निको ज्वालाएं निकल रही थीं । उसके मुख , नाक , कान और हजारों नेत्रोंसे भी बड़ी – बड़ी लपटें निकल रही थीं । उसके तेज की किरणों से शङ्ख , चक और गदा धारण करनेवाले सैकड़ों – हजारों विष्णु प्रकट हो जाते थे ।
समस्त लोकोंको भयमीत करनेवाले उस अद्भुत पुरुष को देखकर भी अश्वत्थामा घबराया नहीं , बल्कि उसपर अनेकों दिव्य अस्त्रोंको वर्षा – सी करने लगा । वह देव अश्वत्थामा के छोड़े हुए समस्त शस्त्री को निगल गया ।
यह देखकर उसने एक अग्निके समान देदीप्यमान यशक्ति छोड़ी । परंतु वह भी उससे टकराकर टूट गयी । तब अश्वत्थामाने उसपर एक चमचमाती हुई तलवार चलाई । वह भी उसके शरीरमें लीन हो गयी । इसपर उसने कुपित होकर एक गदा छोड़ी , किंतु वह उसे भी लील गया ।
इस प्रकार जब अश्वत्थामा के सब शस्त्र समाप्त हो गये तो उसने इधर – उधर दृष्टि डाली । इस समय उसने देखा कि सारा आकाश विष्णुओं से भरा हुआ है ।
शस्त्रहीन अश्वत्थामा यह अत्यन्त अद्भुत दृश्य देखकर बड़ा ही दुखी हुआ और आचार्य कृप के वचन याद करके कहने लगा , ‘ जो पुरुष अप्रिय किंतु हित की बात कहनेवाले अपने सुहृदों की सीख नहीं सुनता , वह मेरी ही तरह आपत्तिमें पड़कर शोक करता है । जो मूर्ख शास्त्र जानने वालों की बात का तिरस्कार करके युद्ध में प्रवृत्त होता है , वह धर्ममार्ग से भ्रष्ट होकर कुमार्गमें जानेसे उलटे मुंहको खाता है । मनुष्यको गौ , ब्राह्मण , राजा , स्त्री , मित्र , माता , गुरु , दुर्बल , मूर्ख , अंधे , सोये हुए , डरे हुए , नींद से उठे हुए , मतवाले , उन्मत्त और असावधान पुरुषों पर हथियार नहीं चलाना चाहिये ।
गुरुजनों ने पहले ही से सब पुरुषोंको ऐसी शिक्षा दे रक्खी है । किंतु मैं उस शास्त्रीय सनातन मार्गका उल्लङ्घन करके उलटे रास्तेसे चलने लगा था । इसी से इस घोर आपत्तिमें पड़ गया हूँ ।
जब मनुष्य किसी काम को आरम्भ करके भय के कारण उसे बीच ही में छोड़ देता है तो बुद्धिमान् लोग इसे उसकी मूर्खता ही कहते हैं ।
इस समय इस काम को करते हुए मेरे आगे भी ऐसा ही भय उपस्थित हो गया है । यों तो द्रोणपुत्र किसी प्रकार युद्ध से पीछे हटने वाला नहीं है । परंतु यह महाभूत तो मेरे आगे विधाता के दण्डके समान आकर खड़ा हो गया है ।
मैं बहुत सोचनेपर भी इसे कुछ समझ नहीं पाता हूँ । निश्चय ही मेरो बुद्धि जो अधर्म से कलुषित हो गयी है , उसका दमन करने के लिये ही यह भयंकर परिणाम सामने आया है । निःसंदेह इस समय मुझे जो युद्धसे हटना पड़ रहा है , वह देव का ही विधान है । सचमुच देवकी अनुकूलताके बिना आरम्भ किया हुआ मनुष्यका कोई भी काम सफल नहीं हो सफता । अतः अब मैं भगवान् शंकर की शरण लेता हूँ जो जटाजूटधारी , देवताओं के भी वन्दनीय , उमापति , सर्व पापापहारी और त्रिशूल धारण करनेवाले हैं , वे ही इस भयानक देवी विघ्नको नष्ट करेंगे ।ऐसा सोचकर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा रथ से उतर पड़ा और देवाधिदेव श्रीमहादेवजीके शरणागत होकर इस प्रकार स्तुति करने लगा ……
आप उग्र हैं , अचल हैं , कल्याणमय हैं , रुद्र हैं , शर्व हैं , सकल विद्याओं के अधीश्वर हैं , परमेश्वर हैं , पर्वत पर शयन करने वाले हैं , वरदायक हैं , देव हैं , संसार को उत्पन्न करनेवाले हैं , जगदीश्वर हैं , नीलकण्ठ हैं , अजन्मा हैं , शुक्र हैं , दक्षयज्ञका विनाश करनेवाले हैं , सर्वसंहारक हैं , विश्वरूप – हैं , भयानक नेत्रोंवाले हैं , बहुरूप हैं , उमापति हैं , श्मशान में निवास करने वाले हैं , गर्वीले हैं , महान् गणाध्यक्ष हैं , व्यापक हैं , खट्वाङ्ग ( खाट का पाया ) धारण करने वाले हैं । आप रुद्र – नाम से प्रसिद्ध हैं , आपके मस्तकपर जटा सुशोभित है , – आप ब्रह्मचारी हैं और त्रिपुरासुरका वध करनेवाले हैं।।
मैं अत्यन्त शुद्ध हृदय से आत्मसमर्पण करके आपका यजन व भजन करता हूँ । सभी ने आपकी स्तुति की है , सभी के आप स्तुत्य हैं और सभी आपकी स्तुति करते हैं । आप भक्तों के सभी संकल्पोंको पूर्ण करनेवाले हैं , गजराज के चर्म से सुशोभित हैं , रक्तवर्ण हैं , नीलग्रीव है , असह्य हैं , शत्रुओंके लिये दुर्जय हैं , इन्द्र और ब्रह्माकी भी रचना करनेवाले हैं , साक्षात् परब्रह्म हैं , यतधारी हैं , तपोनिष्ठ हैं , अनन्त हैं , तपस्वियोंके आश्रय है , अनेक रूप हैं , गणपति हैं , बिनयन हैं , अपने पार्षदोंको प्रिय हैं , धनेश्वर हैं , पृथ्वीके मुखस्वरूप हैं , पार्वतीजीके प्राणेश्वर है , स्वामिकात्तिकेयके पिता हैं , पीतवर्ण हैं , वृषवाहन हैं , दिगम्बर हैं ।। आपका वेष बड़ा ही उग्र है । आप पार्वतीजी को विभूषित करने में तत्पर हैं , ब्रह्मादिसे श्रेष्ठ हैं , परात्पर है तथा आपसे श्रेष्ठ कोई नहीं है । आप उत्तम धनुष धारण करने वाले हैं , सम्पूर्ण दिशाओं की अन्तिम सीमा है , सब देशों के रक्षक हैं , सुवर्णमय कवच धारण करनेवाले हैं , आपका स्वरूप दिव्य है तथा आप अपने मस्तकपर आभूषणके रूपमें चन्द्रमला को धारण करने वाले है । मैं अत्यन्त समाहित होकर आपफी शरण लेता हूँ । यदि आज मैं इस दुस्तर आपत्ति के पार हो गया तो समस्त भूतों के ग्घातरूप इस शरीर को बलि देकर आपका यजन करूंगा ।
इस प्रकार अश्वत्थामा का दृढ़ निश्चय देखकर उसके सामने एफ सुवर्णमयी वेदी प्रकट हुई । उस वेदीमें अग्नि प्रज्वलित हो गयी ।
उससे बहुत – से गण प्रकट हुए । उनके मुख और नेत्र देदीप्यमान थे ; वे अनेकों सिर , पैर और हाथ वाले थे ; उनकी भुजाओंमें तरह – तरह के रत्नजटित आभूषण सुशोभित थे तथा वे ऊपर की ओर हाथ उठाये हुए थे ।
उनके शरीर द्वीप और पर्वतोंके समान विशाल थे । वे सूर्य , चन्द्रमा , ग्रह और नक्षत्रोंके सहित सम्पूर्ण द्युलोक को धराशायी करने की शक्ति रखते थे तथा उनमें जरायुज , अण्डज , स्वेपन और उद्भिज्ज – चारों प्रकारके प्राणियोंका संहार करनेकी शक्ति थी । उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं था , वे इच्छानुसार आचरण करनेवाले थे तथा तीनों लोकोंके ईश्वरों के भी ईश्वर थे । वे सर्वदा आनन्दमग्न रहते थे , वाणीके अधीश्वर थे , मत्सरहीन थे तथा ऐश्वर्य पाकर भी उन्हें अभिमान नहीं था । उनके अद्भुत कर्मो से सर्वदा भगवान् शंकर भी चकित रहते थे तथा वे मन , वाणी और कर्मा द्वारा सर्वदा उन्हीं की आराधना करते थे । इससे भगवान् शंकर भी सर्वदा अपने औरस पुत्रोंके समान उनको रक्षा करते थे । ये सब भूत बड़े ही भयंकर थे । इन को देखनेसे तीनों लोक भयभीत हो सकते थे । तथापि महावली अश्वत्थामा इन्हें देखकर डरा नहीं । अब उसने स्वयं अपने – आपको ही वलिरूप से समर्पित करना चाहा । इस कर्म को सम्पन्न करने के लिये उसने धनुषको समिधा , बाणोंको दर्भ और अपने शरीर को ही हवि बनाया । उसने सोमदेवता का मन्त्र पढ़कर अग्नि में अपनी आहुति देनी चाही । उस समय यह हाथ जोड़कर .भगवान् रुद्रकी इस प्रकार स्तुति करने लगा ,
‘ विश्वात्मन् । इस आपत्तिके समय आपके प्रति अत्यन्त भक्तिमावसे मैं समाहित होकर यह मंत्र समर्पण करता हूँ । आप इसे स्वीकार कीजिये । समस्त भूत आप में स्थित है , आप सम्पूर्ण भूतों में स्थित हैं तथा आपही में मुख्य – मुख्य गुणोंको एकता होती है । विभो ! आप समस्त भूतोंके आश्रय हैं । यदि इन शत्रुओं का पराभव मेरे द्वारा नहीं हो सकता तो आप हविष्यरूपसे सम्पन्न किये हुए इस शरीरको स्वीकार कीजिये ।
‘द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ऐसा कह उस अग्नि से देदीप्यमान वेदीपर चढ़ गया और अपने प्राणोंका मोह छोड़कर आग के बीच में आसन लगाकर बैठ गया ।
उसे अग्नि पर निश्चेष्ट बैठे देखकर भगवान् शंकर ने हंसकर कहा ,
‘श्रीकृष्णने सत्य , शौच , सरलता , त्याग , तपस्या , नियम , क्षमा , भक्ति , धैर्य , बुद्धि और वाणी के द्वारा मेरी ययोचित आराधना की है । इसलिये उनसे बढ़कर मुझे कोई भी प्रिय नहीं है । पाञ्चालोंकी रक्षा करके भी मैंने उन्हीं का सम्मान किया है । किंतु कालवश अब ये निस्तेज हो गये हैं , अब इनका जीवन शेष नहीं है ।
‘ऐसा कहकर भगवान् शंकरने अश्वत्थामाको एक तेज तलवार दी और अपने आपको उसीके शरीरमें लीन कर दिया । इस प्रकार उनसे आविष्ट होकर अश्वत्थामा अत्यन्त तेजस्वी हो गया ।
अब द्रोणपुत्र अश्वथामा ने शिविर में प्रवेश किया तथा कृपाचार्य और कृतवर्मा दरवाजे पर खड़े हो गये । उन्हें अपना साथ देने के लिये तैयार देखकर अश्वत्थामाको वड़ी प्रसन्नता हुई और उसने उनसे धीरे से कहा , ‘आप दोनो यदि तैयार हो जाये तो सभी क्षत्रियों का संहार कर सकते हैं , फिर निंद्रा में पड़े हुए इन बचे – खुचे योद्धाओंकी तो बात ही क्या है ?
मैं शिविरके भीतर जाऊंगा और काल के समान मार – काट मचा दूंगा । आपलोग ऐसा फरें , जिससे कोई भी आपके हाथोंसे जीवित बचकर न जा सके ।
ऐसा कहकर द्रोणपुत्र पाण्डवों के उस विशाल शिविर में द्वार से न जाकर बीच ही से घुस गया । उसे अपने लक्ष्य धृष्टद्युम्नके तंबूका पता था , इसलिये वह चुपचाप वहीं पहुंच गया । वहाँ उसने देखा कि सब योद्धा युद्ध में थक जाने के कारण अचेत होकर सोये पड़े हैं ।
उनके पास ही एक रेशमी शय्यापर उसे धृष्टद्युम्न सोता दिखायी दिया । तब अश्व त्यामाने उसे पैर से ठुकराकर जगाया । पैर लगते ही रणोन्मत्त धृष्टद्युम्न जग पड़ा और महारथी अश्वत्थामाको आया देख ज्यों ही वह पलंगसे उठने लगा कि उस वीरने उसके बाल पकड़कर पृथ्वीपर पटक दिया ।
इस समय धृष्टद्युम्न भय और निंद्रा से दबा हुआ था , साथ ही अश्वत्थामाने उसे जोर की पटक भी लगायी थी । इसलिये वह निरुपाय हो गया ।
अश्वत्थामाने उसकी छाती और गलेपर दोनों घुटने टेक दिये । धृष्टद्युम्न बहुतेरा चिल्लाया और छटपटाया , किंतु अश्वत्थामा उसे पशुको तरह पीटता रहा । अन्तमें उसने अश्वत्थामाको नखोंसे चीरते हुए लड़खड़ाती जवानमें कहा , “आचार्यपुत्र ! व्यर्थ देरी मत करो , मुझे हथियारसे मार डालो ।
‘उसने इतना कहा ही था कि अश्वत्थामाने उसे जोर से दबाया और उसकी अस्पष्ट वाणी सुनकर कहा , ‘ रे कुलकलंक ! अपने आचार्य की हत्या करनेवालों को पुण्यलोक नहीं मिल सकते । इसलिये तुझे शस्त्र से मारना उचित नहीं है । ‘ ऐसा कहकर उसने कुपित होकर अपने पैरों की चोटों से धृष्टद्युम्न के मर्मस्थानों पर प्रहार किया ।
इस समय धृष्टद्युम्नको चिल्लाहट से घर की स्त्रियां और रखवाले भी जग पड़े । उन्होंने एक अलौकिक पराक्रम वाले पुरुषको धृष्टद्युम्नपर प्रहार करते देखकर उसे कोई भूत समझा । इसलिये भयके कारण उनमें से कोई भी बोल न सका ।
अश्वत्थामा ने धृष्टद्युम्न को इसी प्रकार पशु की तरह पीट – पीटकर मार डाला । इसके बाद वह उस तंबू से बाहर आया और रथ पर चढ़कर सारी छावनी में चक्कर लगाने लगा ।
पाञ्चालराज धृष्टद्युम्नको मरा देखकर उसकी रानियाँ और रखवाले शोकाकुल होकर विलाप करने लगे । उनके कोलाहलसे आस – पासके क्षत्रिय वीर चौंककर कहने लगे , ‘ क्या हुआ ? क्या हुआ ? ‘ तब स्त्रियोंने बड़ी दीन वाणीसे कहा , ‘ अरे ! जल्दी दौड़ो ! जल्दी दौड़ो ! हमारी तो समझमें नहीं आता यह कोई राक्षस है या मनुष्य है । देखो , इसने पाञ्चालराजको मार डाला और अब रथपर चढ़कर इधर – उधर घूम रहा है । यह सुनकर उन योद्धाओंने एक साथ अश्वत्थामाको घेर लिया ।
किंतु पास आते ही अश्वत्थामाने उन्हें रुद्रास्त्र से मार डाला । इसके बाद उसने बराबर के तंबू में उत्तमौजा को पलंग पर सोते देखा । उसके भी कण्ठ और छाती को उसने पैरों से दवा लिया । उत्तमौजा चिल्लाने लगा , किंतु अश्वत्थामाने उसे भी पशुकी तरह पीट – पीटकर मार डाला ।
युधामन्युने समझा कि उत्तमौजा को किसी राक्षसने मारा है । इसलिये वह गदा लेकर दौड़ा और उससे अश्वत्थामाको छातीपर भौंचक्के से रह चोट की ।
अश्वत्थामाने लपककर उसे पकड़ लिया और फिर पृथ्वीपर पटक दिया । युधामन्यु ने छूटनेके लिये बहुतेरे हाथ – पैर पटके , किंतु अश्वत्थामाने उसे भी पशुकी तरह मार ठाला ।
इसी प्रकार उसने नींद में पड़े हुए अन्य महारथियोंपर , भी आक्रमण किया । वे सब भय से कांपने लगे , किंतु अश्वत्थामाने उन सभीको तलवार से मौतके घाट उतार दिया ।
शिविरके विभिन्न भागोंमें उसने मध्यम श्रेणीके सैनिकोंको भी निद्रा में बेहोश देखा और उन सबको भी एक क्षणमें ही तलवारसे तहस – नहस कर डाला ।
इसी तरह अनेकों योद्धा , घोड़े और हाथियोंको उस तलवारको भेंट चढ़ा दिया । इससे उसका सारा शरीर खून में लथपथ हो गया और वह साक्षात् काल के समान दिखायी देने लगा ।
उस समय जिन योद्धाओं को नींद टूटती थी , वे ही अश्वत्थामाका शब्द सुनकर जाते थे और उसे राक्षस समझकर आँखें मूंद लेते थे । इस प्रकार भयंकर रूप धारण किये वह सारी छावनी में चक्कर लगा रहा था ।
जब द्रौपदी के पुत्रोंने धृष्टद्युम्न के मारे जाने का समाचार सुना तो वे निर्भय होकर अश्वत्थामापर वाण बरसाने लगे । अश्वत्थामा अपनी दिव्य तलवार लेकर उनपर टूट पड़ा और उससे प्रतिविन्ध्य की कोष फाड़ डाली । इससे वह प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा ।
सुतसोम ने पहले तो प्रास से चोट की । फिर वह भी तलवार लेकर द्रोणपुत्रको ओर चला । अश्वत्यामाने तलवार के सहित उसकी वह भुजा काट डाली और फिर उसफी पसलो पर प्रहार किया । इससे हृदय फट जानेके कारण वह पृथ्वीपर गिर गया । इसी समय नकुल के पुत्र शतानीक ने एक रथका पहिया उठाकर बड़े जोरसे अश्वत्थामाको छातीपर मारा । अश्वत्यामाने भी तुरंत ही उसपर चोट की । उससे वह व्याकुल होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा । फिर अश्वत्थामा ने उसका सिर काट डाला ।
अब श्रुतकर्मा परिघ लेकर अश्वत्थामाकी ओर चला और उसके बायें गाल पर चोट की । किंतु अश्वत्यामाने अपनी तीखी तलवार से उसके मुंहपर ऐसा वार किया कि जिससे उसका चेहरा बिगड़ गया और वह बेहोश होकर पृथ्वीपर जा पड़ा । उसका शब्द सुनकर महारथी श्रुतकीर्ति अश्वत्थामाके सामने आया और उसपर बाणोंफी वर्षा करने लगा । किंतु अश्व त्यामाने उसकी बाणवर्षा को ढालपर रोक लिया और उसके सिरको धड़ से अलग कर दिया ।
इसके बाद उसने तरह – तरहके शस्त्रोंसे शिखण्डी और प्रभद्रक वीरोंको मारना आरम्भ किया । उसने एक बाण से शिखंडी की कुटियों के बीच में चोट की और फिर पास
जाकर तलवारके एक ही हाथसे उसके दो टुकड़े कर दिये । इस प्रकार शिखण्डी को मारकर वह अत्यन्त क्रोधमें भर गया और बड़े वेगसे प्रभद्रकों पर टूट पड़ा ।
राजा विराट की जो कुछ सेना बची थी , उसे उसने एकदम कुचल डाला तथा राजा द्रुपदके पुत्र , पौत्र और सम्बन्धियों को खोज – खोजकर मौत के घाट उतार दिया ।
अश्वत्थामाका सिंहनाद सुनकर पाण्डवों की सेना में सैकड़ों – हजारों वीर जाग पड़े । उसने उनमें से किसी के पैर , किसी की जांघे और किसी की पसलियां काट डाली ।
उन सभी को बहुत अधिक कुचल दिया गया था , इससे वे भयानक चीत्कार कर रहे थे । इसी प्रकार घोड़े और हाथियों के बिगड़ जानेसे भी अनेकों योद्धा पिस गये थे ।
उन सबकी लोथो से सारी रणभूमि पट गयी थी । घायल वीर ‘ यह क्या है ? कौन है ? किसका शब्द है ? यह क्या कर गला ? ‘ इस प्रकार चिल्ला रहे थे ।
उनके लिये अश्वत्थामा प्राणान्तक काल के समान हो रहा था । पाण्डव और सृञ्जय वीरों में जो शस्त्र और कवचों से रहित ये और जिन्होंने कवच धारण कर लिये थे , उन सभी को अश्वत्यामा ने यमलोक भेज दिया । जो लोग नींद के कारण अंघे और अचेत – से हो रहे थे , वे उसके शब्दसे चौंककर उछल पड़े , किंतु फिर भयभीत होफर जहां – तहां छिप गये । डर के मारे उनको घिग्घी बंध गयी और वे एक – दूसरेसे लिपटकर बैठ गये ।
इसके बाद अश्वत्थामा फिर अपने रथ सवार हुआ और हायमें धनुष लेकर दूसरे योद्धाओंको यमराजके हवाले करने लगा ।
फिर वह हाथ में ढाल – तलवार लेकर उस सारी छावनीमें चक्कर लगाने लगा । अश्वत्थामाका सिंहनाद सुनकर योद्धालोग चौंक पड़ते थे ; किंतु निद्रा और भयसे व्याकुल होनेके कारण अचेत – से होकर इधर – उधर भाग जाते ये । उनमेंसे कोई बुरी तरह चिल्लाने लगते थे और कोई अनेकों ऊटपटांग बातें करने लगते थे । उनके गाल बिखरे हुए थे ।
इसलिये आपस में एक – दूसरेको पहचान भी नहीं पाते थे । कोई इधर – उधर भागने में गिर गये थे । किन्हीं को चक्कर आ रहा था । किन्हींका मल – मूत्र निकल गया था ।
हायी और घोड़े रस्से तुड़ाकर सब ओर गड़बड़ी करते दौड़ रहे थे । कोई उरके मारे पृथ्वीपर पड़कर छिप रहते थे ; किंतु हाथी – घोड़े उन्हें पैरोंसे खूद गलते थे । इस प्रकार बड़ी ही गड़बड़ी मची हुई थी । लोगोंके इधर – उधर दौड़नेसे बड़ी धूल छा गयी , जिससे उस रात्रिके समय शिविरमें दूना अन्धकार हो गया । उस समय पिता पुत्रोंको और भाई भाइयोंको नहीं पहचान पाते थे ।
हाथी हाथियों पर और बिना सवार के घोड़े घोड़ोंपर टूट पड़े तथा एकदूसरेपर चोटें करते घायल होकर पृथ्वी पर लोटने लगे ।
बहुत – से लोग निद्रामें अचेत पड़े थे , वे अंधेरेमें उठकर आपस मै ही आघात करके एक दूसरेको गिराने लगे । दैववश उनकी बुद्धि नष्ट हो गयी थी । वे हा तात ! हा पुत्र ! ‘ इस प्रकार चिल्लाते हुए अपने बन्धु – बान्धवोंको छोड़कर इधर – उधर भागने लगे । बहुत – से तो हाय ! हाय ! करते पृथ्वीपर गिर गये ।
अनेकों वीर यन्त्र और कवचोंके बिना ही शिबिर से बाहर जाना चाहते थे । उनके बाल खुले हुए थे और वे हाय जोड़े भय से थर – थर कांप रहे थे तो भी कृपाचार्य और कृतवर्मा ने शिविर से बाहर निकलने पर किसी को जीवित नहीं छोड़ा । इन दोनों ने अश्वत्थामाको प्रसन्न करनेके लिये शिविरके तीन ओर आग लगा दी । इससे सारी छावनी में उजाला हो गया और उसकी सहायतासे अश्वत्थामा हाथमें तलवार लेकर सब ओर घूमने लगा ।
इस समय उसने अपने सामने आनेवाले और पीठ दिखाकर भागनेवाले दोनों ही प्रकारके योद्धाओंको तलवारके घाट उतार दिया । किन्हीं – किन्हींको उसने तिल के पौधेके समान बीचही से दो करके गिरा दिया । इसी प्रकार उसने किन्हींके शस्त्रसहित भुजदण्डोंको , किन्हीके सिरोंको , किन्हींकी जंघाओंको , किन्हींके पैरोंको , किन्हींकी पीठको और किन्हींकी पसलियोंको तलवारसे उड़ा दिया ।
इसी प्रकार उसने किसी का मुंह फेर दिया , किसीको कर्णहीन कर डाला , किन्हींके कंधेपर चोट करके उनका सिर शरीरमें घुसेड़ दिया । इस प्रकार वह अनेकों वीरोंका संहार करता शिविरमें घूमने लगा ।
उस समय अन्धकारके कारण रात बड़ी भयावनी हो रही थी । हजारों मरे और अधमरे मनुष्योंसे तथा अनेकों हायी – घोड़ों से पटी हुई पृथ्वीको देखकर हृदय काँप उठता था ।लोग हाहाकार करते हुए आपसमें कह रहे थे , ‘ भाई ! आज पाण्डवों के पास न रहनेसे हो हमारी यह दुर्गति हुई है । अर्जुनको तो असुर , गन्धर्व , यक्ष और राक्षस – कोई भी नहीं जीत सकता , क्योंकि साक्षात् श्रीकृष्ण उनके रक्षक हैं ।
‘दो घड़ी के बाद वह सारा कोलाहल शान्त हो गया । सारी भूमि खूनसे तर हो गयी थी । इसलिये ऐक क्षणमें ही वह भयानक धूल दब गयी । अश्वत्थामाने क्रोधमें भरकर ऐसे हजारों वीरों को मार डाला , जो किसी प्रकार प्राण बचाने के प्रयत्नमें लगे हुए थे , एकदम घबराये हुए थे और जिनमें तनिक भी उत्साह नहीं था । एक दूसरेसे लिपटकर पड़ गये थे , शिबिर छोड़कर भाग रहे थे , छिपे हुए थे अथवा किसी प्रकार लड़ रहे थे , उनमें से भी किसीको उसने जीवित नहीं छोड़ा ।
जो लोग आग में झुलसे जाते थे और जो आपस में ही मार – काट कर रहे थे , उन्हें भी उसने यमराजके हवाले कर दिया । राजन् ! इस प्रकार उस आधीरातके समय द्रोणपुत्रने पाण्डवोंकी उस विशाल सेनाको वात – की – बातमें यमलोक पहुंचा दिया ।
पौ फटते ही अश्वत्थामाने शिविर से बाहर आनेका विचार किया । उस समय नररक्त से सनकर वह तलवार इस प्रकार उसके हाथसे चिपक गयी थी कि मानो वह उसी एक अङ्ग हो ।
इस प्रकार अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार वह कठोर कर्म करके अश्वत्थामा पिताके ऋणसे मुक्त होकर निश्चिन्त हुआ । वह छावनीसे बाहर आया और कृपाचार्य एवं कृतवर्मासे मिलकर उन्हें प्रसन्नतापूर्वक अपनी सारी करतूत सुनाकर आनन्दित किया ।
वे भी अश्वत्थामाका ही प्रिय करनेमें लगे हुए थे । अतः उन्होंने भी यह सुनाकर कि हमने यहाँ रहकर हजारों पाञ्चाल और सृञ्जय वीरोंका संहार किया है , उसे प्रसन्न किया ।
दूसरी और राजा धृतराष्ट्र पूछते हैं – सञ्जय ! अश्वत्थामा तो मेरे पुत्रको विजय के लिये ही कमर कसे हुए था । फिर उसने ऐसा महान् कर्म पहले क्यों नहीं किया ?
सञ्जयने कहा – राजन् ! अश्वत्थामाको पाण्डव , श्रीकृष्ण और सात्यकि से खटका रहता था । इसीसे अबतक वह ऐसा नहीं कर सका । इस समय उनके पास न रहनेसे ही उसने यह कर्म कर डाला । इसके बाद अश्वत्यामा ने आचार्य कृप और कृतवर्माको गले लगाया और उन्होंने उसका अभिनन्दन किया । फिर उसने हर्ष में भरकर कहा , ‘ मैंने समस्त पाञ्चालोंको , द्रौपदीके पाँचों पुत्रोंको और संग्रामसे बचे हुए सभी मत्स्य एवं सोमक वीरोंको नष्ट कर डाला है ।
अब हमारा काम पूरा हो गया । इसलिये जहाँ राजा दुर्योधन हैं , वहीं चलना चाहिये । यदि वे जीवित हों तो उन्हें भी यह समाचार सुना दिया जाय ।
सभी दुर्योधन के पास गए, एवं अपने द्वारा किये गए भयँकर कर्म की बात दुर्योधन को बताई । दुर्योधन बड़ा प्रसन्न हुआ, एवं मरते समय उसने कहा “
तुम्हारे ऐसे महान कर्म के कारण आज में स्वयं को इंद्र समझ रहा हूँ” ।।
साभार संकलित