भगवान श्रीकृष्ण का अवतार : एक धर्मयुद्ध
प्रत्येक देश और जाति में ऐसे समय आया करते हैं जब कि उन में ऐसे पुरुष उत्पन्न होते हैं। जो ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ कदाचार तथा कायरता के भावों से भरपूर होते हैं। वे समय उस देश और जाति के पतन के सूचक होते हैं। यह कब सम्भव था कि आर्य जाति, जिस की उन्नति सभ्यता और विद्वत्ता का सिक्का संसार पर जम चुका था और जिसका उत्कर्ष चरम सीमा को पहुंच चुका था, कराल काल के चक्र में न आती। गत द्वापर युग का अन्त भारत में ऐसा ही समय था। अब आर्य जाति का ज्ञानकाल व्यतीत हो गया था और उसके स्थान में प्राकृतिक वैभव का साम्राज्य वर्तमान था। अब भरत और राम के स्थान कंस और दुर्योधन जैसे राज्यलोलुप कुलकलंकों ने ले लिया था। अब राज्य इन्द्रिय वासनाओं की तृप्ति और ऐश्वर्य प्रदर्शन का साधन मात्र रह गया था। सर्वत्र ऐहिक उन्नति और बाह्य आडम्बर का प्रसार दिखाई देता था। भारत के चारों ओर ईर्ष्यालु अनेक छोटे-बड़े स्वतन्त्र राज्य फैले हुए थे। वे धन धान्य आदि सुखोपभोग की सभी सामग्रियों से समृद्ध थे। और उन के नरेश शस्त्रविद्यापारंगत और वीर होते हुए भी मद्यपान और द्यूतक्रीड़ा आदि दुर्व्यसनों में रत रहते थे। उन में कोई चक्रवर्ती राजा न था। यद्यपि उस समय मगध नरेश जरासन्ध की शक्ति की धाक बैठी हुई थी। उस ने बहुत से राजाओं को अपने यहां बन्दी बना रखा था। सब राजा उसके अत्याचार से डरते रहते थे और उस के बल का लोहा मानते थे। चेदिदेश का राजा शिशुपाल भी उस समय महाशक्तिशाली समझा जाता था। प्राग्ज्योतिष ( आसाम ) का राजा नरकासुर भी बड़ा दुराचारी और बलवान् माना जाता था। उस ने अपने दुराचार के लिए असंख्य सुन्दरी कुमारियां अपने यहां बन्दी बनाकर रक्खी हुई थीं। तथापि कोई सर्वोपरि सम्राट् उस समय विद्यमान न था। उसी समय शूरसेन ( मथुरा ) के राजा कंस की राज्यलोलुपता इस सीमा तक बढ़ चुकी थी कि वह अपने वृद्ध पिता महाराज उग्रसेन को बन्दी बनाकर स्वयं सिंहासनारूढ़ हो गया था। हस्तिनापुर के विशाल राज्य में सिंहासन के लिए कौरव और पाण्डवों में भयंकर गृह-कलह मच रहा था। उस समय राजाओं, राजघरानों का चरित्र बहुत ही गिर चुका था। सत्यवती और कुन्ती के कानीन पुत्रों की उत्पत्ति, द्रौपदी के स्वयंवर के अवसर पर राजपुत्रों की मुठभेड़, कौरवों का लाक्षागृह, युधिष्ठिर की द्यूतक्रीडा, द्रौपदी का भरी सभा में अपमान और अर्जुन का सुभद्राहरण इस के ज्वलन्त उदाहरण है। जब राजा, राजपुरुष ही चरित्रहीन हो जायें तो प्रजा का चरित्र कैसे उच्च रह सकता है? उन में भी इन्द्रियासक्ति और दुर्योधनादि के अत्याचारों के प्रति विरक्ति तथा कायरता प्रसार पा चुकी थी। ‘यथा राजा तथा प्रजा’ के अनुसार जनता भी अपने प्रभुओं का अनुकरण करती थी। उन में विलासिता और अर्थलोलुपता दिनोंदिन बढ़ रही थी। अनेक विद्याविशारद ब्राह्मण अर्थ के दास होकर राजकुल की सेवा स्वीकार करने लगे थे। जैसा कि गुरु द्रोणाचार्य कौरवों के अर्थक्रीत दास बनकर उन के द्रौपदी के प्रति किए हुए महान् अत्याचार पर भी चुप रहे थे और उन की ओर से महाभारत-युद्ध में सेनापति बनकर लड़े थे। वैश्य शूद्र और स्त्रियों को हीन समझा जाने लगा था। जिस का कि श्रीमद्भगवद्गीता में उल्लेख पाया जाता है। एकलव्य को केवल शूद्र होने के कारण द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या नहीं सिखलाई थी। वेद का पठन-पाठन भी शनैः शनैः घट रहा था। भीष्म पितामह जैसे परम ज्ञानी भी वेद में विशेष प्रवेश न रखते थे, इस का उल्लेख शान्ति-पर्व में विद्यमान है। महाभारत युद्ध की कई घटनाएं बता रही हैं कि उस समय धर्म का ह्नास और अधर्म की वृद्धि हो रही थी? ऐसे धर्म-रक्षाकारिणी व्यवस्था के अनुसार धर्मोद्धारक महापुरुषों का जन्म हुआ करता है। जिन के असाधारण कार्यों की देखकर जनता में उन के नित्य शुद्ध, बुद्ध, विभु, मुक्त, अकाय, अजन्मा, परम ब्रह्म के अवतार होने (शरीर धारण करने) का मिथ्याज्ञान संसार में फैल जाता है। यदि अवतार का अर्थ परमेश की विभूतियों से विशिष्ट (क्योंकि उपासक अपने उपास्य देव की विभूतियों और गुणों को उपासना द्वारा सदैव ग्रहण करते रहते हैं।) अनेक जन्म की संस्कार-सम्पन्न आत्माओ के धराधाम पर पुनः अवतीर्ण होने वा जन्मने को लिया जाए तो इस में वैदिक सिद्धान्त की कुछ भी क्षति नहीं है। ऐसे ही जन्म जन्मान्तर के संस्कृतात्मा तथा विविध विभूतिविशिष्ट एक महापुरुष का लोकाभ्युदयकारक आविर्भाव आज (संवत् १९८१ वि.) से ५१५२ वर्ष पूर्व भाद्रपद कृष्ण-अष्टमी, बुधवार, रोहिणी नक्षत्र में उत्तर भारत के शूरसेन देश की राजधानी मथुरा में हुआ था। इसी शूरसेन देश के राजा उग्रसेन को उस का दुराचारी पुत्र कंस गद्दी से उतार कर आप राजा बन बैठा था, यह ऊपर कहा जा चुका है। कंस को जरासन्ध की दो पुत्रियां अस्ति और प्राप्ति नामक ब्याही थीं और अपने अत्याचारी श्वसुर के बूते पर वह हजारों अत्याचार करता था। प्रजा उस के पीड़न से तंग आ गई थी। प्रजा को कंस के अत्याचारों से बचाने का जो लोग उद्योग करते थे, उन का अग्रगन्ता यादववंशावतंस वसुदेव नामक एक वीर न्यायप्रिय पुरुषरत्न था। इसलिए कंस उस से सदैव जलता रहता था और भयभीत भी रहता था। उग्रसेन के कनिष्ठ भ्राता देवल की कन्या अर्थात् कंस की चचेरी भगिनी देवकी थी जो वसुदेव को ब्याही थी। कंस वसुदेव तथा देवकी की तेजिस्वता से आशंकित रहकर उन के नाश के प्रयत्न में सदा तत्पर रहता था। अन्त को उस ने वसुदेव और देवकी को उन के गृह में अवरुद्ध (नजरबन्द) कर दिया। किसी ने उस को यह सुझा दिया था कि देवकी के पुत्र के हाथ से तुम्हारा वध होगा। इसलिए उसने देवकी के छः पुत्रों को जन्मते ही मार डाला। सातवें गर्भ का भावी नाश के भय से मध्य में ही पात हो गया। श्री वसदेव जी अपनी ज्येष्ठा गर्भवती भार्या रोहिणी को कंस के अत्याचार की आशंका से गोकुल निवासी अपने मित्र नन्द नामक गोपाधिपति के घर पहुँचा आये थे।
भाद्रपद कृष्णाष्टमी की अंधियारी आधी रात को घनघोर वृष्टि के समय देवकी के आठवें पुत्र का जन्म हुआ। वर्षा की शीतल वायु ने पहरेदारों को थपकी देकर घोर निद्रा की गोद में सुला दिया। उसी समय बसुदेव उस बालक को रातेां रात यमुनापार करके नन्द के यहां गोकुल में पहुंचा आए और उसी रात नन्द के यहां उस की स्त्री यशोदा की कोख से तुरन्त जन्मी हुई कन्या को उसके बदले में उठा लाए और उसको देवकी के पास लाकर लिटा दिया। कंस ने उस को देवकी की कन्या समझकर मार डाला। इस के पहले ही नन्द के यहां रहने वाली वसुदेव की ज्येष्ठा भार्या रोहिणी के यहां भी पुत्र का जन्म हो चुका था। इस का नाम बलराम रक्खा गया था। देवकी का पुत्र भी कृष्ण नाम से गोकुल में नन्द के यहां गोपों में पलता रहा। उस समय भारत में नगरों के निकट बड़े-बड़े वन वर्तमान थे। जिन में लाखों गौएँ चर कर भव्य भारत को घृत और दुग्ध के प्रभाव से आप्यायित करती रहती थीं। मथुरा राजधानी के चारों ओर भी ऐसा ही विशाल वन विद्यमान था। उसी में गोपाधिप नन्द का अगणित गौओं का कुल रहता था और वह स्थान अपने अन्वर्थ नाम से गोकुल विख्यात था। वस्तुतः गौओं के ब्रज (समूह) के आवास के कारण ही मथुरा के चारों ओर की वनस्थली की ब्रज वा ब्रज-मण्डल संज्ञा हो गई थी। गोप लोग उसी ब्रजमण्डल के निवासी थे। वे अपने गोसमूह को साथ लिये हुए यत्र-तत्र कुछ-कुछ दिन बसते हुए घूमते रहते थे। ये स्वभाव के सरल, सहृदय तथा शरीर के हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ होते थे। मन और आत्मा को आनन्दित करके उन्नति देने वाला संगीत (गीत वाद्य) शारीरिक विकास के अद्वितीय साधन गोदुग्ध और द्यृत का आहार तथा मल्ल-कला का अभ्यास उन के अहर्निश के समय-यापक प्रिय व्यापार थे। ऐसे लोगों में पलकर श्रीकृष्ण दिनोंदिन चन्द्रमा के समान वृद्धि को प्राप्त होने लगे। गोपों का निष्कपट प्रेम-वनों का बलप्रद यमुनातीरवर्ती स्वतन्त्र धीर समीर और आनन्दमय सरल जीवन का निष्पाप वायुमण्डल इन बातों ने मिलकर सहज सुन्दर श्याम शरीर श्रीकृष्ण को निष्कपट प्रेमी और अतुल पराक्रमी बना दिया। बलराम और श्रीकृष्ण दोनों भ्राता अन्य गोपबाल-बालिकाओं के साथ क्रीड़ा में रत रह कर नन्द, यशोदा, रोहिणी और गोकुल के गोपमात्र को अपनी बाललीला से हर्षित करते रहते थे। गोपों के साथ रहकर श्रीकृष्ण मल्लकला और वेणुवादन वा वंशी बजाने में अति प्रवीण हो गये। उन की सुरीली मुरली के कारण ही उनका नाम मुरली मनोहर वा मुरलीधर पड़ गया था। वे मल्लकला में भी पूर्ण सिद्धहस्त हो गए थे। संगीत और मल्लकला में वे सब गोपों में अग्रणी माने जाने लगे। श्रीकृष्ण अपने इन गुणों तथा प्रेम और पराक्रम से गोपों के अतीव प्रेमपात्र बन गए। बाल्यकाल में ही उन्होंने शारीरिक बल का अद्भुत परिचय दिया। ब्रज के उत्तर की ओर यमुना के एक ह्नद में एक महाभयंकर काला अजगर रहता था जो कालिय नाम से प्रसिद्ध था। उस के भय से आस-पास के पशु-पक्षी यमुना के तट पर नहीं जाते थे। किशोर श्रीकृष्ण ने उस अजगर को वहां से मार भगाया।
गोवर्धन पर्वत के उत्तर और यमुना के तट पर तालवन में वनगर्दभ बड़ा उपद्रव मचाते थे। इन में से एक बड़े बलवान् धेनुक नामक गर्दभराज को बलराज ने अपनी मल्लकला के बल से मार डाला, जिस से वह वन उन वनगर्दभों के उपद्रव से रहित हो गया। श्रीकृष्ण की उन्मत्त बैलों के युद्ध देखने की बड़ी रुचि थी। अन्य गोप भी ऐसे दृश्यों से बड़े प्रसन्न होते थे। यदि कोई अत्यन्त उन्मत्त बैल बेकाबू होकर दर्शकों पर पलटता था तो श्रीकृष्ण ही उस को अपने बाहुबल से वश में लाते थे। इसी प्रकार कृष्ण तथा बलराम के शारीरिक बल की ख्याति चारों ओर फैलने लगी और वह धीरे-धीरे कंस के कानों तक भी जा पहुंची। उस के गुप्तचरों ने खोज करके पता पा लिया कि श्रीकृष्ण और बलराम वस्तुतः वसुदेव के पुत्र हैं और उस ने उन को नन्द के यहां गुप्त रूप में सुरक्षित रख छोड़ा है। यह जानकर कंस को बड़ी चिन्ता हुई और उसने नन्द के यहां ही कृष्ण के वध के अनेक उपाय किए, पर वे विफल हुए। किसी कवि ने क्या ही ठीक कहा है।
अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितं सुरक्षितं दैवहतं विनश्यति।
जीवत्यनाथोऽपि वने विसर्जितः कृतप्रयत्नोऽपि गृहे विनश्यति ।।
अर्थ-जिस की देव रक्षा करता है वह बिना रक्षा किये भी सुरक्षित रहता है, जिस के देव प्रतिकूल होता है वह अच्छी तरह से रक्षा करने पर भी नष्ट हो जाता है। वन में छोड़ा हुआ भी अनाथ जीता रहता है, और प्रयत्न करके घर में भी सुरक्षित नष्ट हो जाता है।
उस ने कृष्ण के मारने के लिए नरपिशाची पूतना तथा अघासुर आदि अनेकों नृशंसों को ब्रज में भेजा, पर उन्होंने पराक्रमी श्रीकृष्ण के बलवान् भुजदण्ड से मृत्यु के मुख में प्रवेश पाया।
महापराक्रमी महापुरुष अपने भावी उत्कर्ष का परिचय अपनी बाल्यावस्था से ही दिया करते हैं और वे सर्वसाधारण के अपवादस्वरूप होते हैं।
अपने प्रयत्नों में विफलमनोरथ होकर कंस ने श्रीकृष्ण और बलराम के नाश के लिए एक षड्यन्त्र रचा। उसने मल्लकला में मल्लों के नैपुण्य प्रदर्शनार्थ एक मल्लयुद्ध का आयोजन किया। कुशल और अपने यहां के प्रसिद्ध मल्ल चाणूर और मुष्टिक से मल्लयुद्ध करने को कृष्ण और बलराम को बुलाने को ब्रज मण्डल में अक्रूर नामक वृद्ध यादव को भेजा। अक्रूर वहां जाकर कृष्ण और बलराम को अन्य बहुत से ब्रजवासियों सहित मथुरा लिवा लाया। वहां पहुंच कर प्रथम तो श्रीकृष्ण ने अपने अमोघ बल से अपना मार्ग रोकने वाले कंस के कुवलयापीड हाथी को उस का दांत उखाड़ कर मार गिराया और फिर कंस के विख्यात मल्लों मुष्टिक और चाणूर को मल्लयुद्ध में वध करके कंस को भी चोटी पकड़कर उस के सिंहासन से नीचे घसीट लिया और तत्काल उस के प्राणपखेरुओं को उस के पापी देह से सदा के लिए विदा कर दिया। श्रीकृष्ण कंस को मारकर उस के सिंहासन के अधिकारी स्वयं नहीं बने। वे उस के पिता उग्रसेन को सम्मानपूर्वक राजगद्दी पर बिठला कर आप एक सामान्य प्रजाजन के समान अपने माता-पिता वसुदेव और देवकी के पास मथुरा में रहने लगे। मथुरा की इस राज्यक्रान्ति से भारत में सर्वत्र श्रीकृष्ण की ख्याति फैल गई और उस समय के अत्याचारी राजा उन को अपना शत्रु समझने लगे। मगध नरेश जरासन्ध कंस का वध सुनकर अपनी पुत्रियों के वैधव्य से अतीव मर्माहत हुआ। श्रीकृष्ण पर उस के कोप की सीमा न रहीं। उस ने भारी सेना लेकर मथुरा पर आक्रमण किया। श्रीकृष्ण ने यादवों की वीरवाहिनी से जरासन्ध के आक्रमण को विफल करके उस को वहां से मार भगाया। परन्तु कुछ दिनों के पश्चात् जरासन्ध ने नई सेना लेकर अपने मित्र नरेशों सहित मथुरा पर फिर चढ़ाई की। मथूरा के वीर पूर्वयुद्ध से श्रान्त थे, इसलिए इस वार वृद्ध यादव विकद्रु की मन्त्रणा से उन्होंने जरासन्ध का सामना उचित न जाना और यह उपाय सोचा गया कि मथुरा को इस संकट से बचाने के लिए श्रीकृष्ण दक्षिण की ओर के पर्वतों पर चले जायें। वहां पर्वतों में जरासन्ध को उन से युद्ध करना कठिन हो जायेगा। तदनुसार श्रीकृष्ण मथुरा से दक्षिण के गोमन्त पर्वत पर चले गए। जरासन्ध भी ससैन्य उन का पीछा करता हुआ वहीं पहुँचा। गोमन्त पर्वत पर श्रीकृष्ण ने जरासंध की सेना के छक्के छुड़ा दिये और वहां से उस को अपने प्राण लेकर भागना पड़ा। दक्षिण में ही श्रीकृष्ण ने यादवकुलोत्पन्न करवीर नरेश श्रृगाल को युद्ध में मारकर उस के पुत्र को उसके राजसिंहासन पर बैठाया और वहां से चलकर फिर मथुरा लौट आए।
नन्द के यहां बाल्य और किशोर अवस्था बिताते हुए श्री कृष्ण ने नियमपूर्वक गुरुकुल में रहकर विद्याभ्यास न किया था, न उन का अभी तक यथाशास्त्र उपनयन संस्कार ही हुआ था। इसलिए मथुरा आने पर अब २१ वर्ष की आयु में उन का और बलराम का यज्ञोपवीत-संस्कार करके उन को उज्ज्वल भविष्य हेतु सान्दीपिन संकाश्य के गुरुकुल में नियमपूर्वक शास्त्र और शस्त्रविद्या के अभ्यास के लिए भेजा गया। वहां रहकर वे शीघ्र ही सांगोपांग वेदों और धनुर्विद्या के पारंगामी हो गए। गुरुकुल में वे अपने सहाध्यायी सुदामा आदि के साथ वन से समिधा, कुशा और फल लाने तथा गोपालन आदि गुरुसेवा में समान रूप से तत्पर रहते थे। गुरुकुल में विद्या समाप्त करके अपना समावर्त्तन कराकर मथुरा लौट आये और अपने माता-पिता के पास रहने लगे। इसी समय उन को अपने सम्बन्धियों का परिचय पाने और उन से मिलने का अवसर मिला। उनके पिता वसुदेव की भगिनी पृथा उपनाम कुन्ती हस्तिनापुर के राजा पाण्डु को विवाही थी। वानप्रस्थी पाण्डु की मृत्यु के पश्चात् वह अपने छोटे पुत्रों की रक्षा के लिए अपने मातृ धर्म के पालनार्थ उन को लेकर हिमालय से हस्तिनापुर आ गई थी। श्रीकृष्ण ने अक्रूर को उसके पास यह सन्देश देकर भेजा कि पराक्रमी कृष्ण तुम्हारे बालकों के सदा संरक्षक रहेंगे। उन्होंने हस्तिनापुर अधिराज धृतराष्ट्र, भीष्म और द्रोणादि से भी यह कहला भेजा कि मेरे फुफेर भाइयों का यथोचित पालन कीजिए। उस समय कुन्ती के पुत्र युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की अवस्था क्रमशः ७, ५, और ४ वर्ष की थी। श्री कृष्ण उस समय २५ वर्ष के युवा थे।
चेदिदेश के राजा दमघोष की स्त्री अर्थात् शिशुपाल की माता भी महाराज वसुदेव की भगिनी और श्रीकृष्ण की बुआ थी, किन्तु पुत्र शिशुपाल कृष्ण से शत्रुता रखता था। उन्हीं दिनों विदर्भ (वर्तमान बरार) के राजा भीष्मक ने अपनी राजधानी कुण्डिनपुर में अपनी रूपवती कन्या रुक्मिणी का स्वयंवर रचाया। भीष्मक और उस का पुत्र रुक्मी भी जरासन्ध के दल में थे, इसलिए उन्होंने श्रीकृष्ण को स्वयंवर का निमन्त्रण नहीं भेजा परन्तु रुक्मिणी श्रीकृष्ण के पराक्रमों की कथा सुनकर उन को मन ही मन अपना पति वर चुकी थी। श्रीकृष्ण भी गुप्त रूप से इस का समाचार पाकर स्वयंवर में जा पहुँचे। परन्तु जरासन्ध और शिशुपाल आदि श्रीकृष्ण के ईर्ष्यालु राजाओं ने कृष्ण के मूर्धाभिषिक्त राजा न होने का बहाना बनाकर उन को स्वयंवर ही में सम्मिलित न होने दिया और इस गड़बड़ में स्वयंवर ही विलम्बित कर दिया गया। अब तीसरी बार जरासन्ध ने फिर मथुरा पर चढ़ाई की। उस ने पश्चिम की ओर से सम्भवतः भारतीय सीमा के बाहर से कालयवन को उभार कर मथुरा पर आक्रमण कराया और स्वयं पूर्व की ओर चढ़ दौड़ा। श्रीकृष्ण ने इस सम्मिलित शत्रु-सेना का सामना करने में यादवों को अशक्त पाकर पूर्व ही मथुरा को त्यागकर आनर्त (वर्तमान गुजरात देश) के निकट कुशस्थली द्वीप में अपने बन्धु-बान्धवों को जा बसाया और उस नई बस्ती का नाम द्वारिका रक्खा, जो समय पाकर यादवों की समृद्धिशालिनी राजधानी द्वारिकापुरी बन गई। श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव जी वहां के सम्राट् अभिषिक्त हुए। कालयवन और जरासन्ध की सेना कृष्ण का पीछा करती हुई पर्वतों में पहुंच कर नष्ट भ्रष्ट हो गई और कालयवन भी वहीं मृत्यु का ग्रास बन गया। फिर जरासन्ध को कृष्ण पर चढ़ाई करने का साहस न हुआ।
इधर श्रीकृष्ण अपने पराक्रम और बाहुबल से द्वारिका में समृद्ध राज्य स्थापित कर उस का संचालन कर रहे थे। उधर गंगा के तीर पर हस्तिनापुर में कौरव और पाण्डवों में राज्य-प्राप्ति के लिए षड्यन्त्र चल रहे थे। पांचो पाण्डव युवक अपनी माता कुन्ती सहित वारणावत के मेले में दुर्योधन के लाक्षागृह से बचकर इधर-उधर भ्रमण करते हुए पांचाल के नरेश द्रुपद की राजधानी में उसकी पुत्री द्रौपदी के स्वयंवर में पहुँचे। श्रीकृष्ण भी अपने पुत्र प्रद्युम्र के लिए पत्नी-प्राप्ति की इच्छा से सपरिवार उस स्वयंवर में गये थे। परन्तु स्वयंवर के मत्स्यवेध प्रण को कोई भी पूरा न कर सका। अन्त में ब्राह्मण वेशधारी मध्यम पाण्डव अर्जुन ने धनुष उठाकर मत्स्यवेध कर द्रौपदी से वरमाला पाकर उसका पाणिग्रहण किया। ब्राह्मण वेशधारी पुरुष के अर्जुन ज्ञात होने पर श्रीकृष्ण अपने पितृष्वसीय (फुफेरे) पाण्डवों और पितृष्वसा कुन्ती मिलकर बहुत प्रसन्न हुए। अन्धराज धृतराष्ट्र ने कृष्ण और द्रुपद की सहायता प्राप्त पाण्डवों से भयभीत होकर तथा लोक लज्जा से पाण्डवों को हस्तिनापुर बुलाकर और दुर्योधन के भाग में धनधान्य-पूर्ण हस्तिनापुर (वर्तमान जिला मेरठ) की ओर का राज्य आया। और पाण्डवों को यमुना तीरवर्ती निर्जन खाण्डव वन मिला परन्तु पाण्डवों ने अपने पराक्रम और परिश्रम से खाण्डव वन को जलाकर यमुना तट पर खाण्डवप्रस्थ नगरी बसाकर उस को अपनी राजधानी बनाया। वह कुछ ही वर्षों में पाण्डवों के धर्म और न्यायानुमोदित शासन से समृद्धिशालिनी महानगरी बनकर इन्द्रप्रस्थ कहलाने लगी और राजपूती काल में दिल्ली के नाम से प्रसिद्ध होकर अब भी भारत की राजधानी बनी हुई है। पाण्डवों के राज्य की यहां तक उन्नति हुई तथा उनमें और श्रीकृष्ण में सौहार्द यहां तक बढ़ा कि उन्होंने श्रीकृष्ण की अनुमति और सहायता से चारों दिशाओं का दिग्विजय करके राजसूय यज्ञ करने का संकल्प किया।
सब से पूर्व श्रीकृष्ण ने सेना के बिना अर्जुन और भीम के साथ जरासन्ध की राजधानी राजगृह में पहुँचकर भीम से उस का शस्त्र रहित बाहुयुद्ध कराकर जरासन्ध को उस के हाथ से परलोक पहुँचाया और उस का राजसिंहासन उसके पुत्र सहदेव को देकर सानन्द इन्द्रप्रस्थ लौट आये। इस के अनन्तर अर्जुन ने उत्तर, भीम ने पूर्व, सहदेव ने दक्षिण और नकुल ने पश्चिम का दिग्विजय करके सब राजाओं को युधिष्ठिर का वशवर्ती बना दिया और ससमारोह राजसूय यज्ञ की आयोजना की गई। महर्षि कृष्ण-द्वैपायन व्यास इस यज्ञ के ब्रह्मा बने। याज्ञवल्क्य अध्वर्यु, धनंजय उद्गाता तथा पैल और धौम्य होता बनाए गए। स्वस्तिवाचन करके सोने के हल से यज्ञभूमि तैयार की गई और यज्ञायतन बनाए गए। महाराज युधिष्ठिर को यज्ञदीक्षा दी गई। देश-देशान्तरों से आए हुए राजा-महाराजाओं और कौरवों को यज्ञ के अतिथिसत्कार आदि कार्य बांट दिये गए। अवभृथ-स्नान से पूर्व श्रेष्ठ पुरुष की पूजा का अवसर आया। युधिष्ठिर ने कृताकृत के परीक्षक कुरुवृद्ध भीष्मपितामह से इस विषय में प्रश्न किया। उन्होंने कृष्ण को अग्रपूजा का अधिकारी बतलाया परन्तु श्रीकृष्ण के पुराने शत्रु उनके पितृष्वसीय शिशुपाल से उन का यह मान न सहा गया। वह क्रुद्ध होकर श्रीकृष्ण को कुवाच्य बकने लगा। भीष्मपितामह ने उस को बहुतेरा समझाया, किन्तु उसका क्रोध भड़कता ही जाता था। ज बवह श्रीकृष्ण पर आक्रमण करने दौड़ा तो उन्होंने अपने सुदर्शनचक्र से उसका सिर काट दिया। इस के अनन्तर महाराजा युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ को विधिपूर्वक पूरा किया। उस में सम्मिलित सब ऋषि-मुनियों और राजाओं ने युधिष्ठिर को भारत का सम्राट् स्वीकार किया। परन्तु उनके साम्राज्य वैभव और उनके मय दानव निर्मित प्रशस्त राजप्रासादों को देखकर दुर्योधन ईर्ष्यानल से दग्ध हो गया। एक स्थान पर उस को स्फटिक के फर्श को देखकर जल की भ्रान्ति हो गई और वह अपने वस्त्र ऊपर उठा कर उस पर चलने लगा। वहां जल न पाकर वह बहुत लज्जित हुआ। दूसरे स्थल पर उसने जलपूर्ण सरोवर को स्फटिक शिला समझ कर और उस में गिरकर अपने वस्त्र भिगो लिये। इस पर द्रौपदी और पाण्डवों को हंसी आ गई। दुर्योधन के हृदय में इससे गहरा घाव हो गया और हस्तिनापुर लौटकर पाण्डवों के सर्वनाश का उपाय सोचने लगा। अपने शठ सभासदों से कुमन्त्रणा कर उसने युधिष्ठिर को अपने यहां बुलाकर द्यूत-क्रीड़ा में फंसाया। दुर्योधन के मामा सिद्धहस्त कितव (जुआरी) शकुनि ने छल से युधिष्ठिर का सारा राज्य उस की सहधर्मिणी द्रौपदी और चारों भ्राताओं सहित जुए में जीत लिया। दुष्ट दुःशासन के द्वारा भरी सभा में एकवस्त्रा द्रौपदी को उसके केश पकड़ कर घसीट मंगवाया और भरी सभा में उस को दासी कह कर अपमानित किया। मर्माहता द्रौपदी ने कुरुवृद्ध भीष्मपितामह आदि को सम्बोधित करके पूछा कि क्या मैं दुर्योधन की दासी कहला सकती हूँ। भीष्म ने उत्तर दिया युधिष्ठिर ने स्वयं दास होकर तुम को दांव पर रखा। यह अन्याय है, पर तुम दास युधिष्ठिर की अर्धांगिनी हो कर दासी हुई या नहीं यह कहना कठिन है। भीष्म पितामह की इस धर्मव्यवस्था को सुनकर दुर्योधन बड़ा आनन्दित हुआ और उस ने दुःशासन को पाण्डवों और द्रौपदी के अमूल्य वस्त्र उतार करके द्रौपदी को भी निर्वस्त्रा करना चाहा, किन्तु दीनवत्सल परमपिता परमात्मा ने द्रौपदी की लाज रखी ! द्रौपदी का वस्त्र दुष्ट दुःशासन न खींच सका। यहां श्रीकृष्ण के अलौकिक चरित्र के लेखकों ने यह गाथा वर्णित की है कि द्रौपदी के श्रीकृष्ण को स्मरण करने पर उन्होंने उस के वस्त्र को इतना बढ़ा दिया कि दुःशासन के हाथ उस को खींचते-खींचते अशक्त हो गए और वह उसके वस्त्र उतारने में असमर्थ रहा। किन्तु ऐतिहासिक बुद्धि इस वर्णन को स्वीकार नहीं कर सकती। सम्भव है कि सती, साध्वी, शूरक्षत्रिया, वीर वधू, वीरस्नुषा, द्रौपदी के अधृष्य तेज के सामने पापी दुर्बलहृदय दुःशासन का दुःसाहस उस की ओर हाथ बढ़ाने का न हुआ हो। ऐसी घटनाएं अनेक बार घटी हैं। तेजस्वियों के सामने बड़े-बड़े अत्याचारियों के हाथ भी रुक गये हैं, या सम्भव है कि धृतराष्ट्र आदि वृद्ध कौरवों ने बीच-बचाव करा दिया हो। आगे की घटना इस बात की पुष्टि भी करती है। इसके अनन्तर ही पाण्डवों के बारह वर्ष वनवास और तेरहवें वर्ष के अज्ञातवास के पण पर पुनः द्यूत क्रीड़ा का वर्णन है। प्रतीत होता है कि बीच-बचाव करने वालों ने राजस्त्रुषा और राजवधू द्रौपदी का घोर अपमान टालने के लिए यह बात तय कर दी कि इस बार तो चारों भ्राता और द्रौपदी सहित युधिष्ठिर का राज्य उस को लौटा दिया जाए और दुर्योधन उपर्युक्त पण पर पासा फेंके और यदि युधिष्ठिर का सौभाग्य उसकी सहायता करे तो वह पूर्ववत् अपने साम्राज्य का सुखोपभोग करता रहे और यदि दैव उसके विपरीत हो तो वह सभार्याबान्धव बारह वर्ष और तेरहवें अज्ञात वर्ष (वस्तुतः आजीवन) वन में वास करे। क्योंकि कौरवों को अपनी कूट अक्षक्रीड़ा के भरोसे से यह पूर्ण निश्चय था कि हम दांव को जीत ही लेंगे और तेरहवें अज्ञात वर्ष में कहीं न कहीं पाण्डवों को पाकर उन को पुनः १२ वर्ष के लिए बाधित करते रहेंगे।
जहां तक प्रबल अनुमान की पहुंच हो सकती है, उस से उपर्युक्त घटनाक्रम ही प्राप्त होता है। हमारे वर्तमान महाभारत आदि ऐतिहासिक ग्रन्थों के अलौकिक घटनावली के घटाटोप से आच्छादित रहते हुए बेचारे ऐतिहासिक को उपर्युक्त प्रकार से अन्धेरे में लकड़ी टटोलने के अतिरिक्त और गति क्या है? हां, भारतीय आर्यसामाजिक ऐतिहासिक पुरुष अपने पूर्वपुरुषों के गौरव पर दृष्टि रखते हुए ऐसा कहते हैं। किन्तु भारतीय गौरव से सहानुभूति शून्य और भारतीय आचार-विचार से सर्वथा अनभिज्ञ विदेशी ऐतिहासिकों से ऐसी आशा दुराशामात्र है। भारतीय इतिहास के कर्त्ता टालबोए ह्नीलर (Tallboy-Wheeler) कौशल्या के विष-प्रयोग से उत्तर कोसल (अवध नरेश) दशरथ का मृत्यु विषयक दूषित अनुमान इसका ज्वलन्त उदाहरण है।
अन्त में कौरवों की चाण्डाल चैकड़ी की मनचाही हुई। पासा युधिष्ठिर के उल्टा पड़ा और वे सपरिवार वनवासी बने।
पांचों पाण्डव और द्रौपदी अपने पुरोहित धौम्य सहित काम्यक वन में वास कर रहे थे कि श्रीकृष्ण सपरिवार उन से मिलने आये। द्रौपदी ने रो-रो कर उन को अपनी विपत्ति कह सुनाई। श्रीकृष्ण ने उनको बहुत सान्त्वना दी और कहा कि मैं द्वारिका में नहीं था, इसी से यह अनर्थ हो गया। अन्यथा मैं अवश्य हस्तिनापुर पहुँच इस द्यूत की दुर्घटना को न होने देता। मैं शाल्व का पीछा करता हुआ, जिस ने वायुयानों द्वारा द्वारिका पर आक्रमण किया था, मार्तिकावर्त तक चला गया था और वहीं मैंने उस का वध किया। श्रीकृष्ण के इस कथन से भी उपर्युक्त अनुमान की पुष्टि होती है कि कृष्ण को उस समय द्यूतक्रीड़ा आदि का कुछ भी ज्ञान न था।
इस समय श्रीकृष्ण की आयु ७० वर्ष के लगभग थी। वे गृहस्थाश्रम को पूरा करके और पौत्र अनिरुद्ध का मुख देकर वैदिक मर्यादानुसार तृतीय आश्रम में प्रवेश की तैयारी कर रहे थे और ऋषियों से ज्ञान-श्रवण और योगाभ्यास के लिए काम्यक वन में आये थे। बाल्यकाल तथा यौवन के मल्ल श्रेष्ठ और वीरवर श्रीकृष्ण अब योगिराज बन गये थे।
वनवास और अज्ञातवास को पूरा करके पाण्डव राजा विराट् की राजधानी विराट् नगरी (वर्तमान वैराट जो जयपुर से ४० मील उत्तर में है) मैं प्रकट हुए। तब श्रीकृष्ण अपनी भगिनी सुभद्रा जो अर्जुन को विवाही थी, भागिनेय अभिमन्य तथा यादवों सहित उन से वहीं आकर मिले। विराट् राज ने अपनी पुत्री का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्य के साथ कर दिया। विवाह के पश्चात् सब ने सम्मति करके कौरवों के पास दूत भेजकर पाण्डवों को उनका राज वापस कर देने का सन्देश भेजा। राजर्षि भीष्म ने भी उनको यही परामर्श दिया परन्तु दुर्योधन को यह बात न भाई। और उस ने यह बहाना बनाया कि पाण्डव १४ वर्ष पूर्ण होने से पूर्व प्रकट हो गए हैं, अतः उनका राज्य वापस नहीं हो सकता। यह उत्तर सुनकर पाण्डवों ने युद्ध की तैयारी की। उन के पास अपनी सेना न थी। विराट् और द्रुपद आदि सम्बन्धियों ने अपनी सेनाओं और युद्ध सामग्री से उन को सहायता दी। श्रीकृष्ण भी पाण्डवों के सहायक बने। युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व श्रीकृष्ण ने एक बार फिर कौरवों के पास जाकर सन्धि कराने का उद्योग किया। वे हस्तिनापुर पहुँचकर प्रथम विदुर के यहां वास करने वाली अपनी बुआ कुन्ती से मिले। कुन्ती ने उनको कौरवों का दुराग्रह और दुश्चरित्र सुनाकर युद्ध की अवश्यम्भाविता बतलाई। उस ने कहा-
यदर्थं क्षत्रिया सूते तस्य कालोऽयमागतः।
अर्थ-क्षत्राणियां जिस लिए वीरों को उत्पन्न करती हैं उस का समय अब आ गया है।
श्रीकृष्ण ने कौरवों की राजसभा में जाकर कहा-
कुरूणां पाण्डवानां च शमः स्यादिति भारत।
अप्रणाशेन वीराणाम् एतद्याचितुम् आगतः।।
अर्थ-हे दुर्योधन ! वीरों के नाश के बिना ही कौरवों और पाण्डवों की शान्ति हो जाये, मैं यह याचना करने के लिए आया हूँ किन्तु दुर्योधन ने इस पर कुछ भी कान न दिया और यही कहा-
सूच्यग्रं न प्रदास्यामि विना युद्धेन केशव!
अर्थ-हे केशव! बिना युद्ध के मैं सुई की नोक के बराबर भी भूमि नहीं दूंगा।
अन्त में विवश होकर श्रीकृष्ण वापस चले आये और दोनों सेनाएं मारकाट करने के लिए कुरुक्षेत्र (हरियाणा) के मैदान में आमने-सामने आ डटीं।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन के श्वेत घोड़ों वाले रथ के सारथि बन कर उस को पाण्डव सेना के अग्रभाग में ला खड़ा किया। कौरववाहिनी के सेनापति १७० वर्ष के वृद्ध भीष्मपितामह भी अपने रथ में अपनी सेनाओं के आगे आ उपस्थित हुए। दोनों सेनाओं ने अपने-अपने जयघोष से स्वसेनापतियों का स्वागत किया। बहुत से शंखों के नादों, भेरियों और नगाड़ों की ध्वनियों, हाथियों की चिंघाड़ों और घोड़ों की हिनहिनाहटों से आकाश प्रतिध्वनित हो उठा। दोनों सेनाओं में वीररस का पूर्ण संचार हो रहा था। इतने में अर्जुन को कौरव सेना में भीष्म, द्रोण आदि पूज्यों और निकट सम्बन्धियों को युद्ध में मरने-मारने के लिए उद्यत देखकर मोह उत्पन्न हो गया। उसने श्रीकृष्ण से कहा कि जिस युद्ध में अपने महामान्यों और प्रियों को अपने हाथ से मुझ को हनन करना पड़ेगा, उस में मैं प्रवृत्त न हूंगा। इस अवसर पर श्रीकृष्ण ने उस को उस के मोहनिवारण के लिए जो कर्मयोग का उपदेश दिया है, वही सारी उपनिषदों का सार कृष्णद्वैपायन की कीर्ति को अमर करने वाली ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ है। उस के विषय में नीचे लिखा हुआ प्रचलित पद्य सर्वथा यथार्थ ही है-
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।।
अर्थ-सब उपनिषदें गौ हैं, श्रीकृष्ण उनका दुहने वाला है, अर्जुन उस का बछड़ा है, बुद्धिमान् लोग उस दुग्ध का उपभोग करने वाले हैं और गीतारूप महाअमृत ही यह दुग्ध है।
इस के आगे महाभारत का युद्ध किस प्रकार 18 दिन तक चलता रहा। किस प्रकार उस में भारत के ज्ञानी मानी वीर योद्धा और गोवर्धन एक-एक करके धराशायी हुए, उसमें कैसे कैसे कूटनीति के कुचक्र चले और अन्त में यही युद्ध पापपुंज के नाश के साथ-साथ भारत के सर्वनाश का भी कैसे कारण बना, यह विषय श्रीकृष्ण की पावनी जीवनी से नगण्य वा अतीव स्वल्प सम्बन्ध रखता है, इसलिए उस का वर्णन करके इस लेख की कलेवर वृद्धि अभीष्ट नहीं है।
एक बार त्रयोदशी में अमावस्या का संयोग हुआ और उसी में सूर्यग्रहण पड़ा। इस अवसर पर सारे यादव समुद्र में सरस्वती नदी के संगम स्थान प्रभास तीर्थ में स्नान के लिए गए। वहां की प्राकृतिक शोभा देखकर उन लोगों को मद्यपान की सूझी। बलराम, सात्यकि, गद, बभ्रु तथा कृतवर्मा आदि श्रीकृष्ण के सम्मुख ही निर्लज्ज होकर मद्य पीने लगे, सब के सब क्षण भर में उल्लू बन गये और परस्पर गाली-गलौच, मारपीट करने लगे। इस शुष्क कलह ने बढ़कर संग्राम का रूप धारण कर लिया और वहां एकत्रित भोज, अन्धक, यादव और श्रीकृष्ण के सारे पारिवारिक जन आपस में लड़कर कट मरे। केवल स्त्रियां ही बचीं, जिन को श्रीकृष्ण ने द्वारिका पहुंचा दिया। यादवों का इस प्रकार संहार देखकर श्रीकृष्ण और बलराम द्वारिका को छोड़कर वन में तपक रने चले गये। वहां बलराम ने योग द्वारा अपने प्राण ब्रह्मरन्ध्र से बाहर निकाल कर इस नश्वर शरीर को त्याग दिया। श्रीकृष्ण भी ब्रह्मासन लगाकर योगनिद्रा में वहीं लेटे थे। एक जरा नामक व्याध ने दूर से उन को हरिण समझ कर उनके बाण मारा, जो उनके पांव में आकर लगा और उसी से उनका देहान्त हो गया। इस प्रकार वसुदेव देवकी और नन्द-यशोदा के प्यारे पुत्र गोकुल के गोपसखा गोपाल मथुरा और वृन्दावन के प्राण कंस, जरासन्ध, कालयवन, शिशुपाल आदि के काल, द्वारिका के विधाता, पाण्डवों के परित्राता, धर्म के उपदेष्टा, नीति के तत्ववेता, राजा और प्रजा के गुरु, धर्मभ्रष्ट-क्षत्रियकुल के संहारक, धर्मराज्य के संस्थापक दीनों के उद्धारक, वेदशास्त्रपारंगत, चतुर-शिरोमणि सर्वगुणागार, सकल संसारादर्श मृत्युंजय, योगीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने चारुचरित्र से संसार को मुग्ध करके १२५ वर्ष की अवस्था में इहलोक-लीला संवरण की। उनके वृद्ध पिता वसुदेव जी इस दारुण शोक को न सह सके और इस संसार से चल बसे। सर्वत्र शोक की काली घटा छा गई। अर्जुन इस दुर्घटना की सूचना पाकर शोकसंतप्त हो हस्तिनापुर से द्वारिका आए और श्रीकृष्ण के परिवार के बालकों और विधवाओं को अपने साथ हस्तिनापुर ले गये। मार्ग में किरातों ने उनकी सम्पत्ति लूट ली। महाभारत के महावरी योद्धा अर्जुन के गाण्डीव धनुष ने इस समय कुछ भी काम न दिया। सच है, प्रताप क्षीण होने पर पाण्डवों ने हस्तिनापुर के राज्य सिंहासन पर अपने पौत्र परीक्षित को बिठलाकर अपनी पुरानी राजधानी इन्द्रप्रस्थ का राज्य श्रीकृष्ण के प्रपौत्र अनिरुद्ध के पुत्र वज्र को देकर हिमालय के लिए महाप्रस्थान किया।