स्नान पूर्णिमा
ज्येष्ठ मास में गर्मी का आरम्भ होता है, अतः पुरी में श्रीजगन्नाथ जी के चतुर्धा विग्रह को स्नान कराया जाता है। १०८ घड़ों से स्नान के बाद उनको ज्वर हो जाता है, तथा १५ दिन बीमार रहने पर उनकी चिकित्सा होती है। उसके बाद आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को वे घूमने निकलते हैं। ३ रथों में जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा गुण्डिचा मन्दिर तक जाते हैं तथा ९ दिन बाद दशमी को लौटते हैं जिसे बाहुड़ा कहते हैं। लौटने को बहोर कहते हैं-गयी बहोर गरीब नेवाजू सरल सबल साहिब रघुराजू। (रामचरितमानस, बाल काण्ड, १२/४)। चान्द्र मास में भी जब अमावास्या के बाद चन्द्र सूर्य से दूर जाता है तब शुक्ल पक्ष की शुद्ध तिथि होती है। जब सूर्य के निकट लौटता है तब बहुल तिथि होती है।
परब्रह्म के अव्यय पुरुष रूप को जगन्नाथ कहा गया है। इसे गीता (१५/१) में विपरीत वृक्ष कहा गया है। वेद में इनको ५ प्रकार से दारु ब्रह्म कहा गया है-जगत् का आधार, निरपेक्ष द्रष्टा, निर्माण सामग्री, निर्माण की शाखायें या विविधता, चेतन तत्त्व या संकल्प-कर्म-वासना का चक्र।
(१) भूमि-आकाश की निर्माण सामग्री रूपी वृक्ष और वन, आधार-
किं स्विद् वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावा पृथिवी निष्टतक्षुः।
मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तत् यदध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन्॥
(ऋक्, १०/८१/४, तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/८/९/१५, तैत्तिरीय संहिता, ४/६/२/१२)
ब्रह्म वनं ब्रह्म स वृक्ष आसीत् यतो द्यावा पृथिवी निष्टतक्षुः।
मनीषिणो मनसा विब्रवीमि वो ब्रह्माध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन्॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/८/९/१६)
(२) अधिष्ठान और निर्माण आरम्भ-
किं स्विदासीदधिष्ठानमारम्भणं कतमत्स्वित् कथासीत्।
यतो भूमि जनयन् विश्वकर्मा वि द्यामौर्णोन् मह्ना विश्वचक्षाः॥ (ऋक्, १०/८१/२, तैत्तिरीय संहिता, ४/६/२/११)
(३) परम तत्त्व रूपी द्रष्टा-
यस्मात् परं नापरमस्ति किञ्चित्, यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित्।
वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद् ३/९)
(४) निर्माण स्रोत तथा शाखा-
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्। (गीता १५/१)
(५) चेतन तत्त्व की वासना तथा कर्म चक्र-
वासना वशतः प्राणस्पन्दस्तेन च वासना। क्रियते चित्तबीजस्य तेन बीजाङ्कुरक्रमः॥२६॥
द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य प्राणस्पन्दनवासने। एकस्मिँश्च तयोः क्षीणे क्षिप्रं द्वे अपि नश्यतः॥२७॥
द्वे बीजे चित्तवृक्षस्य वृत्तिव्रततिधारिणः। एक प्राण परिस्पन्दो द्वितीयं दृढ़भावना॥४८॥ (मुक्तिकोपनिषद्, अध्याय २)
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः। अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥२॥
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते, नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा। अश्वत्थमेनं सुविरूढ़मूलमसङ्गशस्त्रेण दृढ़ेन छित्वा॥३॥ (गीता, अध्याय १५)
(६) विश्व समुद्र के विभिन्न स्तरों में तैरते लोक जो पूरुष (१/४ निर्मित विश्व, तथा अनिर्मित अमृत भाग-पुरुष सूक्त, ३)
अदो यद्दारुः प्लवते सिन्धोः पारे अपूरुषम्।
तदारभस्व दुर्हणो येन गच्छ परस्तरम्॥ (ऋक् , शाकल्य शाखा, १०/१५५/३)
जगन्नाथ कल्पना से परे हैं, अतः उनको कई रूपों में देखते हैं-
न तस्य कार्यं करणं न विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते ।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च ॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ६/८)
ज्ञानघन = जगन्नाथ, बल रूप = बलभद्र, क्रिया रूप (ज्ञान, बल का परिणाम) = सुभद्रा।
परमात्मा तथा उसके व्यक्ति रूप आत्मा का सम्बन्ध देखने पर, आत्मा का कर्म रूप जीव (बाइबिल का आदम-ईव) पत्नी है, जगन्नाथ पति हैं, उन दोनों के बीच सुभद्रा रूपी माया का आवरण ननद है। ननद का अर्थ है न-नन्दति, अर्थात् भाई को पत्नी से अधिक प्रेम करते देख प्रसन्न नहीं होती। इस भाव में विद्यापति, कबीर, महेन्द्र मिश्र आदि के कई निर्गुण गीत हैं। तुलसीदास जी ने इनका वर्णन किया है-
आगे राम लखन बने पाछे। तापस वेश विराजत काछे॥
उभय बीच सिय सोहति कैसी। ब्रह्म जीव बिच माया जैसी॥ (रामचरितमानस, २/१२२/१)
जगन्नाथ के कई देव रूप हैं-
विश्व का वास या आधार-वासुदेव
जगत् का क्रिया रूप = जगन्नाथ
चेतन तत्त्व = पुरुष
मूल स्रोत से पूर्ववत् सृष्टि = वृषा-कपि (हनुमान)=जल जैसे स्रोत का पान कर ब्रह्माण्ड, तारा, ग्रह आदि विन्दुओं की सृष्टि।
तत्र गत्वा जगन्नाथं वासुदेवं वृषाकपिम्। पुरुषं पुरुषसूक्तेन उपतस्थे समाहितः॥ (श्रीमद् भागवत पुराण, १०/१/२०)
एक ही परम तत्त्व के चतुर्धा विग्रह है-
जगन्नाथ = चेतन तत्त्व
बलभद्र = विश्व के निर्मित रूप
सुभद्रा = माया का आवरण
सुदर्शन = आकाश। सौर मण्डल में क्रान्ति वृत्त (पृथ्वी कक्षा) ही सुदर्शन चक्र है जो चन्द्र के २ पात (राहु-केतु) को काटता है, या राहु का सिर काटता है।
अन्य रूप में ४ व्यूह कहे गये हैं-
वासुदेव – आकाश
संकर्षण = परस्पर आकर्षण से ब्रह्माण्ड, तारा, ग्रह क्रम से सृष्टि।
प्रद्युम्न = तारा से ज्योति निकलना जिससे जीवन चल रहा है।
अनिरुद्ध = अनन्त प्रकार या विविध सृष्टि (चित्राणि साकं दिवि रोचनानि —, अथर्व वेद, १९/७/१)
रथयात्रा सृष्टि चक्र है जिसके १० सर्ग इसके १० दिन हैं। १ अव्यक्त स्रोत, ९ व्यक्त सृष्टि।
अथ यद् दशमे अहन् प्रसूतो भवति यस्माद् दशपेयो (शतपथ ब्राह्मण, ५/४/५/३)
अथ यद् दशमं अहः उपयन्ति। संवत्सरं एव देवता यजन्ते। (शतपथ ब्राह्मण, १२/१/३/२०)
श्रीः वै दशमं अहः (ऐतरेय ब्राह्मण, ५/२२)
प्रतिष्ठा दशमं अहः (कौषीतकि ब्राह्मण, २७/२, २९/५)
अन्तो वा एष यज्ञस्य यद् दशमं अहः (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/२/६/१)
प्रजापतिः वै दश होता (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/२/१/१ आदि)
संवत्सर चक्र रूप में जगन्नाथ के रथ का चक्र जगन्नाथ मन्दिर से गुण्डिचा मन्दिर तक जाने में ३६५ बार घूमता है।
मनुष्य का गर्भ में जन्म चन्द्र की १० परिक्रमा (२७३ दिन) में होता है। प्रेत शरीर चान्द्र कक्षा की वस्तु है, उसका निर्माण पृथ्वी के १० अक्ष भ्रमण या १० दिन में होता है।
जगन्नाथ का स्नान, ज्वर आदि मनुष्य रूप की क्रियायें है। उनका स्नान केवल दिखाने के लिए है, जिसे गज स्नान कहते हैं। हाथी स्नान करने केबाद अपने शरीर पर धूल फेंकता है। अतः स्नान पूर्णिमा के दिन जगन्नाथ भी गणपति वेष धारण करते हैं।
१९७७ की स्नान पूर्णिमा दिन वर्षा हुयी थी। तब उत्तर ओड़िशा (सम्बलपुर) के कमिश्नर श्री सुन्दरराजन, आईएएस ने श्लोक लिखा था-
आकस्मिक वृष्टिपाते जाते स्नानयात्रायाम्-
ज्येष्ठे मासे पूर्णिमायां सभद्रा-रामे स्नातुं निर्गते देवेदेवे।
देवस्नानं सार्थकं कर्तुकामो, मन्ये मेघैर्देवराड् वर्षतीति॥
उदूढ गोवर्धन बाहुना पुरा, व्रजे कृतं वैरमनुस्मरन्निव।
स जात मन्युश्शतमन्युरम्बुदैः, प्रतुद्य वर्षत्यभिमन्यु मातुलम्॥
= पहले कृष्णावतार में गोवर्धन धारण कर इन्द्र कि वर्षा को रोक दिया था, बदला लेने के लिए उनकी स्नान यात्रा के समय अब इन्द्र वर्षा कर रहे हैं।
१९८७ में श्री सुन्दरराजन (तब राजस्व परिषद् सदस्य) ने स्नान पूर्णिमा पर स्तुति लिखी-
देवस्नान पञ्चदशी
ब्रह्माण्ड कोटि शतमंश लवेन सर्वं, वष्टभ्य नाथ जगतामधितिष्ठतस्ते।
को नाम मज्जनविधिं कुरुतात्तदर्थं, तीर्थोदकं कियदुपाहरतात् कुतो वा॥१॥
एवं स्थितेऽपि जगदीश यथार्थयिष्यन्, ’दासेषु सत्य’ इति किं निजनामधेयम्।
त्वं ज्येष्ठ मास्यभिनयस्यवगाहनं तैः, अन्वब्दमद्भुतमितो वद पूर्णिमायाम्॥२॥
प्रत्यूष एव दयितास्समुपेत्य नैके, स्नानाय बालकमनिच्छुमिवैकमेवम्।
बद्ध्वा गुणेन परिवार्य बलेन नीत्वा, त्वां स्नानवेदिमधि साधु निवेशयन्ति॥३॥
मन्त्रैस्स्वरेण सममुच्चरितैर्यथावत्, एलापटीरसुभगेन सुमन्त्रितेन।
त्वां शीतलानिलय कूप जलेन पूर्णैः, पण्डार्चका घटशतैरभिषेचयन्ति॥४॥
त्वां मज्जनाय दयितैरिह नीयमानं, त्वंगन्मतङ्गजनिभं जगदीश धन्याः।
केचित् प्रपत्य पदयोः परिरभ्य केचित्, संस्पृश्य केचिदपहन्तुमघं क्षमन्ते॥५॥
श्रीनीलशैलनिलयः कविवर्णनायां, त्वं मत्तवारण इति प्रथितः प्रकामम्।
स्नानं गजस्य विफलं भवतीत्यजानन्, त्वत्स्नापने प्रयतते तव सेवकौघः॥६॥
(भक्त सालबेग का प्रसिद्ध जगन्नाथ जणान-आहे नील शैल प्रबल मत्त वारण, मो आरत नलिनी वन कु कर दलन)
त्वन्मज्जने परिजनाचरिते समाप्ते, स्नानं गजस्य विहितं विफलं ममेति।
सद्यो गजाकृतिधरस्स्वसृसोदराभ्यां, किं त्वं समस्त जगते प्रकटी करोषि॥७॥
अप्रत्ययात्त्वयि गजानन रूपहीने, स प्रत्ययादथ गजानन भक्त एकः।
तं संनिवर्तयितुमेव गजाननत्वं, एवं त्वया धृतमिति ब्रुवतेऽत्र केऽपि॥८॥
उद्घोषितश्श्रुतिशतेन नमज्जितस्त्वं, त्वां मज्जितं तव चिकीर्षति किंकरौघः।
शब्दस्य सर्वमनवेत्य यथावदर्थं, यत्नो महानपि कृतो विफलो हि तेषाम्॥९॥
त्वां स्नानपीठमधि शीतजलाभिषिक्तं, काये जलेन दयया पुनरन्तरार्द्रम्।
भक्ता अहं प्रथमिकां दधतः प्रपद्य, संनम्य पादयुगलं सहसा स्पृशन्ति॥१०॥
स्नानेन शीतलजलेन सुखप्रदेन, शान्तो भवेज्ज्वर इति प्रवदन्ति लोके।
किन्तु प्रतीपमधुना विषये तवैतत्, स्नानात् परं सपदि विन्दसि यज्ज्वरं त्वम्॥११॥
माहेश्वर-ज्वर निपीडितमग्रजं स्वं, संश्लिष्य वैष्णवमथ ज्वरमुज्जनय्य।
बाणाहवे तमदहो ज्वरमद्य तद्वत्, जातज्वरो ज्वरमपोहितुमाश्रितानाम्॥१२॥
(बाणासुर ने युद्ध में माहेश्वर ज्वर =वुहान् का कोरोना वायरस का प्रयोग किया था जिसके बलराम जी बीमार हो गये थे। तब भगवान् कृष्ण ने वैष्णव ज्वर या योग बल से उसे शान्त किया था। योग द्वारा ही वायरस से सुरक्षा हो सकती है-भागवत पुराण, १०/६३/२२२४, हरिवंश पुराण, विष्णु पर्व, १२२/७१-८१)
स्नाने प्रभोरवसिते बलभद्र भद्रा, युक्तस्य युक्तमिह मत्तगजोपमस्य।
राजाप्यसौ गजपतिर्धृतमार्जनीकः, यत्स्नानवेदिमिह मार्ष्टि यथा रथं ते॥१३॥
(पुरी के राजा को गजपति कहते हैं। वे भगवान् के सेवक रूप में उनकी यत्रा के पहले रास्ते को झाड़ू से साफ करते है। इसी प्रकार मेवाड़ के महाराणा भी एकलिंग के दीवान रूप सेवक हैं)
लक्षप्रदा वसति वक्षसि यस्य लक्ष्मीः, लक्षीकृतो हरिरसाप्यवगाहमानः।
लक्षाधिकैर्ननु जनैरविलक्षभूतः, पक्षं स रक्षतु निजं परपक्षलक्षात्॥१४॥
पुरीमधि श्रीमति नीलपर्वते, पुनान इन्धे भुवनानि कश्चन।
दृढैरयं नायसशृंखलाशतैः, परं गुणैरेव गजो निबध्यते॥१५॥
(भगवान् को सैकड़ों लोहे की शृंखला से नहीं बान्ध सकते, किन्तु गुण (भक्ति, या रस्सी) से बान्ध सकते हैं, जैसे हाथी को बान्धते हैं)
त्वां स्तोतुमुद्यत इतोऽयमहं विहास्यः, स्नानं यथाऽन्य इव देवसमाचरन्तम्।
अत्रोद्यमे करुणया मदवारणेन, स्पष्टीकरोषि भगवान् मदवारणत्वम्॥१६॥
(आपकी स्तुति करने का मेरा प्रयास गज स्नान जैसा हास्यास्पद है। किन्तु आप करुणा रूप मद वारि से मेरा मद दूर कर अपना मत्त-वारण या मत्त हाथी होना सिद्ध करें)
श्री जगन्नाथ देवस्य स्नान पञ्चदशिस्तवः।
क्लृप्तस्सुन्दरराजेन कल्पतां विदुषां मुदे॥१७॥
Arun Kumar Upadhyay जी की कलम से साभार
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