कवि वेंकटाध्वरी-
कवि वेंकटाध्वरी मात्र ग्यारह वर्ष की अवस्थामें माता पितासे दूर उनसे अलग हो कर काशी में संस्कृत पढ़ने आया। उसे कुछ भी नहीं मालूम था कि उसे कहाँ किसके पास रुकना है।
वह संस्कृत संकाय में चला गया। उसके पास एक पोटली थी, एक गमछा और एक बोरा जिसमें सब कुछ रख लेता था और उसे बिछा कर सो भी लेता था। वहीं उसकी भेंट एक संस्कृत के आचार्य से हुई। आचार्य को उस छोटे बच्चे को देख कर आश्चर्य हुआ। जिज्ञासा रुकी नहीं तो पूछ ही लिया–
आचार्य– किससे मिलना है?
वेंकटाध्व– सरस्वती से।
आचार्य–क्या करती हैं? कहाँ रहती हैं?
वेंकटाध्व–ज्ञान बांटती हैं। विद्या मंदिर में रहती हैं।
आचार्य–यहाँ इस नाम की कोई विदुषी नहीं रहती हैं।
वेंकटाध्व– वह तो मुझे भी मालूम है।
आचार्य ने पूरा वृतान्त सुनने के बाद कहा–
तुम्हे यहाँ अपरिचित स्थानमें अकेले आने में डर नहीं लगा?
वेंकटाध्व–मैं अकेले कहाँ हूँ आचार्य? मेरे साथ एक और है।
आचार्य–कौन?
वेंकटाध्व– मेरा ईश्वर? और कौन।
आचार्य–तुम मुझे मूर्ख समझ रहे हो?
वेंकटाध्व– नहीं आचार्य!जब बच्चा माता के उदरमें आता है तब माता को भी पता नहीं होता कि उसके स्तनों में दूध कब उतर आया?यह माता की विशेषता नहीं है।यह ईश्वर की विशेषता है कि उस बच्चे के लिए वह स्तनों को दूध से भर देता है।बच्चे की पहली चिंता ईश्वर करता है दूसरी चिंता माँ करती है–
का चिंता मम जीवने यदि हरि:विश्वम्भरो गीयते
नो चेदर्भक जीवनाय जननी स्तन्यं कथं निःसरेत्?
इत्यालोच्य मुहुर्मुहुः यदुपते लक्ष्मीपते केवलं
त्वत्पादाम्बुज – सेवनेन सततं कालो मया नीयते।।
आचार्य के आश्चर्य का समुद्र हिलोर मारने लगा जैसे उसके सामने पूर्ण चंद्र अपनी समस्त कलाओं से भरा खड़ा हो।
आचार्य–क्या तुमने सार्त्र केअस्तित्ववाद को पढ़लिया है?
वेंकटाध्व–नहीं , माँ ने जितना बतलाया है वही बोल रहा हूँ।उसने यह भी कहाहै–डरना मत।मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगी।देखो! प्रह्लाद कभी डरा था?वह तो तुमसे भी छोटा
था।
आचार्य बुदबुदा रहे थे–फ्रांस के लिए अस्तित्ववाद बौद्धिकता का विषय है वही भारत के लिए जीवन का।
माँ का नाम क्या है आचार्य ने पूछा -दो माताएं हैं–पहली सरस्वती और दूसरी अनिरुद्धा।पिता जीवित नहीं हैं।माँ ने कहा है– मैं तब तक प्रतिदिन भोजननहीं करूंगी जबतक तुझे भोजन नहीं मिल जाएगा।
*–उन्हें कैसे मालूम होगा कि तुझे भोजन मिल गया?
*–वो प्रतिदिन भिक्षा मांगकर एक व्यक्ति को खिलाती हैं जो बचता है उसी को खा कर सो जाती हैं।
*-यदि भोजन के अभाव में तुम्हारी मृत्यु हो गयी तब?
*–ब्रह्म हत्या का घोर पाप काशी विश्वनाथ और अन्नपूर्णा को लगेगा।
वह बालक तेजी से आगे बढ़ने लगा जैसे उसे लक्ष्य मालूम हो।आचार्य दौड़ कर उसे क्षमस्व, क्षमस्व बोलने लगे।वेंकटाध्व के हाथ को पकड़े हुएउसे अपने शोध कक्ष
में ला कर आचार्य सायं काल के भोजनके प्रबंध हेतु कहीं चले गए।
रात्रि में आचार्य ने कहा–रोटी सब्जी है खा लो।
*–वेंकटाध्व ने कहा– मैं रात्रि भोजन नहीं लेता।
*–कमजोर हो जाएगा?
*–मेरे ईश्वर में बहुत शक्ति है।मैं सूर्य की किरणों को खा कर भी जी सकता हूँ।
*– गजब बात करते हो?
*–नहीं आचार्य–मेरी माँ कहती है–सुग्गे को हरा रंग, हंस को सफेद रंग, मयूर को विविध रंग कौन देता है?–ईश्वर।
वही तुम्हारी (वेंकट की) रक्षा करेगा।
बालक बोरा बिछा कर जमीन पर सो गया।
आचार्य की नींद गायब हो गयी।यह है ईश्वर। उसी ने मुझे इसकी व्यवस्था का दायित्व दिया है। सार्त्र! तुम्हारे लिए नास्तिकों को समझाने के लिए अस्तित्ववाद होगा? ईश्वर का अस्तित्व होगा? पर मेरे लिए तो यह ईश्वर का आदेश है कि मैं वेंकटाध्वरीको रहने की व्यवस्था करूँ।यदि वह अनजान जगह में अपने ईश्वर पर विश्वास कर आ सकता है तो मैं भी आज से इस विश्वास के साथही जीवन काटूंगा कि ईश्वर सदा मेरे साथ है।
साभार
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