हम सब के मन मे पहले विचार होता है– कौन सी वस्तु त्याज्य है कौन सा ग्राह्म है। कौन अनित्य है कौन नित्य है -हमें विवेक द्वारा जब भलीभांति निश्चय हो जाता है कि एकमात्र परमात्मा एक ग्राह्म है, आत्यन्तिक सुखस्वरूप है, वही नित्य हैं, सत् है, उन्हीं को प्राप्त करना है उनके अतिरिक्त इह लोक और परलोक में सभी कुछ दुख रूप है और त्याज्य है और उनसे भलीभांति छूटना है; तब परमात्मा के प्रति चित का अनुराग होता है और भोगों के प्रति अपने आप ही वैराग्य हो जाता है। इस वैराग्य से छ: प्रकार के संपत्तियां मिलती है उनके नाम है शम (मन का वश में होना), दम (इंद्रियों का वश में होना), तितिक्षा (सहनशीलता), उपरति (भोगों के सामने रहने पर भी उन पर मन न चलना), श्रद्धा (परमात्मा में, उनकी प्राप्ति में और प्राप्ति के साधन चलाने वाले शास्त्र तथा संतो के वाक्यों में प्रत्यक्षवत् विश्वास) और समाधान (सारी शंकाओं का मिट जाना)।
जब यह छ: संपत्तियों मिल जाती हैं तब मोक्ष की, परमात्मा को प्राप्त करने की तीव्र लालसा जाग उठती है। ऐसी अवस्था में साधक सब कुछ भूल कर प्राणपण से परमार्थ साधन में लग जाता है उसका मन बुद्धि इंद्रिय सभी अंतर्मुखी होकर परमात्मा प्राप्ति के पथ पर अनवरत चलने लगते हैं। अतएव जो लोग वैराग्य के नाम पर अकर्मण्यता को आश्रय देते हैं वह सर्वथा भ्रम में हैं। भगवान की निर्भरता में भक्तों का जीवन सर्वथा भगवत्सेवा परायण बन जाता है और वैराग्य उत्पन्न होने पर वह परमात्मा साधन में घुल मिलकर साधन रूप हो जाता है। ऐसे साधकों के द्वारा होने वाले कर्म अवश्य ही विषयी पुरुषों के कर्मों से भिन्न प्रकार के होते हैं। विषयी पुरुषों के कर्म बांधने वाले होते हैं और श्रेष्ठ पुरूष के कर्म कर्मबंधन से मुक्ति दिलाने वाले। इसलिए इन कर्मों का नाम ‘कर्म’ न होकर ‘निष्काम सेवा भाव की संज्ञा दी जाती है।

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