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।।जीवन मे भय की आवश्यकता।।
मानव जीवन मे पाँच प्रकार का भय जरूरी होता है। जिसके कारण मनुष्य अधर्म से बचता है और धर्म को सुरक्षित रखने मे समर्थ होता है।
1 –ईश्वर का भय 2–शास्त्र का भय 3–कुल मर्यादा के टूटने का भय 4–राज्य के कानून का भय 5–शारीरिक तथा आर्थिक अनिष्ट का भय।
इनमें ईश्वर तथा शास्त्र सर्वथा सत्य होने पर भी वे श्रद्धा पर निर्भर करते हैं, प्रत्यक्ष हेतु नही है।राज्य के कानून प्रजा के लिए ही प्रधानतया होते हैं, जिनके हाँथो मे अधिकार होता है , वे उन्हें प्रायः नहीं मानते। शारीरिक तथा आर्थिक अनिष्ट की आशंका अधिकतर व्यक्तिगत रूप मे होती है।एक कुल मर्यादा ही ऐसी है जिसका सम्बन्ध सारे कुटुंब के साथ रहता है। जिस समाज या कुल मे परंपरा से चली आयी हुयी शुभ और श्रेष्ठ मर्यादाएं नष्ट हो जाती हैं, वह समाज या कुल बिना लगाम के मतवाले घोड़ों के समान यथेच्छाचारी हो जाता है।यथेच्छाचार किसी भी नियम को सहन नही कर सकता , वह मनुष्य को उच्छृंखल बना देता है।जिस समाज के मनुष्य मे इस प्रकार की उच्छृंखलता आ जाती है उस समाज या कुल मे स्वाभाविक ही पाप छा जाता है।
इसी लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के प्रथम अध्याय के 40वे श्लोक मे कहा है कि
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुल धर्मा सनातना।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोsभिभवत्युत।।
अर्थ :—कुल के नाश से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाते है।धर्म के नष्ट हो जाने पर सम्पूर्ण कुल मे पाप बहुत फैल जाता है।