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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
कृष्णात्परं किमपि तत्वमहं न जाने
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार ज्ञानयोग- निष्काम योग- परमात्मा की अवधारणा।
ज्ञान कर्म योग- इसमे साधक अपने शक्ति सामर्थ्य को समझ कर सामने रखकर हानि लाभ का निर्णय लेकर इस कर्म को संपादित करता है ।य।इस मार्ग पर चलने वाला साधक जानता है कि आज मेरी स्थिति यह है जो आगे चलकर अमुक भूमिका मे परिणत हो जायेगी ।फिर अपने स्वरूप को प्राप्त करूगा। चूंकि वह इस भावना को लेकर कर्म यानी आराधना करता है इसी लिए ज्ञान मार्गी कहलाता है।
निष्काम कर्म योग- समर्पण के साथ उसी नियत कर्म अर्थात आराधना मे प्रवृत्त होकर लाभ हानि का निर्णय इष्ट पर छोडकर चलता है चलता है वह निष्काम कर्म योग भक्ति मार्ग है।ज्ञान मार्गी एवं निष्काम कर्म मार्गी दोनो के प्रेरक सदगुरू ही है । एक ही सदगुरू महापुरुष से शिक्षा लेकर एक स्वावलम्वी होकर तो दूसरा उसी से शिक्षा लेकर अपने असाध्य पर पूरी तरह निर्भर होकर साधना पथ पर अग्रसर होता है ।
योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते है कि हे अर्जुन! सांख्य द्वारा जो परम सत्य मिलता है ठीक वही परम सत्य निष्काम कर्म योगी को भी मिलता है ।जो दोनो को एक देखता है वही यथार्थ को देखता है ।दोनो को क्रिया बोध कराने वाला एक तत्वदर्शी महापुरुष होता है क्रिया भी एक ही होती है ।आराधना । कामनायो का त्याग दोनो ही करते है और परिणाम भी एक ही है । मात्र अन्तर है तो वह है दृष्टि कोण का ।
परमात्मा श्रीमद्भगवद्गीता के आध्यात्मिकभाष्यकार यथार्थ गीता के लेखक परम पूज्य के मतानुसार जब नियत कर्म मन और इन्द्रियो की एक निर्धारित अन्तःक्रिया है ।जब कर्म का विशुद्ध स्वरूप यही है तो लोग बाहर मंदिर मस्जिद चर्च बना कर अनावश्यक रूप से देवतायो की पूजा करते है ।
भगवान कृष्ण कहते है कि हे अर्जुन देवताओ के स्थान पर वास्तव मे कोई देवता नाम की शक्ति नही है परन्तु जहाॅ कही भी मनुष्य की श्रद्धा झुकती है उसकी ओट मे मै ही खड़ा हो कर उसकी श्रद्धा को पुष्ट करते हुवे फल देता हूॅ ।परन्तु उसका वह पूजन का फल नाशवान है कारण अविधिक है ।कामनायो के कारण उनका ज्ञान कुंठित हो गया है इसीलिए मुढ बुद्धि के लोग मुझ परमतत्व को छोड अपनी कामना प्रवृत्ति के अनुसार देवता यक्ष गन्धर्व राक्षस भूत-प्रेत अन्य की आराधन करते मुझे ही कृश करते है ।
भगवद्गीता पर लिखित आध्यात्मिक भाष्य यथार्थ गीता के भाष्यकार के अनुसार मंदिर मस्जिद चर्च तीर्थ मूर्ति स्मारक अपने पूर्ववर्ती महापुरुषो की स्मृति सजोने का माध्यम हो सकता है जिससे उनके उपलब्धियो का स्मरण होता रहे ।इस प्रकार अपने आदर्शो के उपदेशो को हृदयंगम कर उससे प्रेरणा ग्रहण करने के लिए ही स्मारको का उपयोग है। उसका आप नामकरण कुछ भी करे आश्रम मंदिर मस्जिद चर्च मठ विहार गुरूद्वारा आदि परन्तु यह अकाट्य सत्य है कि उसका धर्म से कोई संबंध नही है ।
इस प्रकार प्रारंभ मे धार्मिक स्थलो की स्थापना का एकमात्र उद्देश्य मात्र सामूहिक उपदेश केन्द्र के रूप मे विकसित किया जाना रहा होगा जो कालान्तर मे चल कर यही प्रेरणास्थली ही मूर्ति पूजा की रूढि बन धर्म का स्थान ग्रहण कर लिया । हरिःॐतत्सत्