“परशुराम जयंती विशेषांक”
श्रीमद्भागवत से भगवान परशुरामजी का चरित्र
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उर्वशी के गर्भ से पुरुरवा के छः पुत्र हुए—-
“आयु, श्रुतायु, सत्यायु, रय, विजय और जय।”
श्रुतायु का पुत्र था वसुमान्, सत्यायु का श्रुतंजय, रय का एक और जय का अमित।
विजय का भीम, भीम का कांचन, कांचन का होत्र और होत्र का पुत्र था जह्नु।
ये जह्नु वही थे, जो गंगा जी को अपनी अंजलि में लेकर पी गये थे।
जह्नु का पुत्र था पूरु, पूरु का बलाक और बलाक का अजक।
अजक का कुश था।
कुश के चार पुत्र थे- कुशाम्बु, तनय, वसु और कुशनाभ। इनमें से कुशाम्बु के पुत्र गाधि हुए।
गाधि की कन्या का नाम था सत्यवती।
ऋचीक ऋषि ने गाधि से उनकी कन्या माँगी। गाधि ने यह समझकर कि ये कन्या के योग्य वर नहीं है।
ऋचीक से कहा——
‘मुनिवर! हम लोग कुशिक वंश के हैं।
हमारी कन्या मिलनी कठिन है।
इसलिये आप एक हजार ऐसे घोड़े लाकर मुझे शुल्क रूप में दीजिये, जिनका सारा शरीर तो श्वेत हो, परन्तु एक-एक कान श्याम वर्ण का हो’।
जब गाधि ने यह बात कही, तब ऋचीक मुनि उनका आशय समझ गये और वरुण के पास जाकर वैसे ही घोड़े ले आये तथा उन्हें देकर सुन्दरी सत्यवती से विवाह कर लिया।
एक बार महर्षि ऋचीक से उनकी पत्नी और सास दोनों ने ही पुत्र प्राप्ति के लिये प्रार्थना की।
महर्षि ऋचीक ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके दोनों के लिये अलग-अलग मन्त्रों से चरु पकाया और स्नान करने के लिये चले गये।
सत्यवती की माँ ने यह समझकर कि ऋषि ने अपनी पत्नी के लिये श्रेष्ठ चरु पकाया होगा, उससे वह चरु माँग लिया।
इस पर सत्यवती ने अपना चरु तो माँ को दे दिया—
जिससे महाराज गाधि के पुत्र हुए प्रज्वलित अग्नि के समान परमतेजस्वी विश्वामित्र।
उन्होंने अपने तपोबल से क्षत्रियत्व का भी त्याग करके ब्रह्मतेज प्राप्त कर लिया।
माँ का चरु सत्यवती स्वयं खा गयी।
जब ऋचीक मुनि को इस बात का पता चला, तब उन्होंने अपनी पत्नी सत्यवती से कहा कि ‘तुमने बड़ा अनर्थ कर डाला।
अब तुम्हारा पुत्र तो लोगों को दण्ड देने वाला घोर प्रकृति का होगा और तुम्हारा भाई एक श्रेष्ठ ब्रह्मवेत्ता’।
सत्यवती ने ऋचीक मुनि को प्रसन्न किया और प्रार्थना की—–
‘स्वामी! ऐसा नहीं होना चाहिये।’
तब उन्होंने कहा——
‘अच्छी बात है।
पुत्र के बदले तुम्हारा पौत्र वैसा (घोर प्रकृति का) होगा।’ समय पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ।
सत्यवती समस्त लोकों को पवित्र करने वाली परम पुण्यमयी ‘कौशिकी’ नदी बन गयी।
रेणु ऋषि की कन्या थी रेणुका।
जमदग्नि ने उसका पाणिग्रहण किया।
रेणुका के गर्भ से जमदग्नि ऋषि के वसुमान् आदि कई पुत्र हुए।
उनमें से सबसे छोटे परशुराम जी थे।
उनका यश सारे संसार में प्रसिद्ध है।
हैहय वंश का अन्त करने के लिये स्वयं भगवान ने ही परशुराम के रूप में अंशावतार ग्रहण किया था।
उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियहीन कर दिया।
यद्यपि क्षत्रियों ने उनका थोडा-सा ही अपराध किया था-फिर भी वे लोग बड़े दुष्ट, ब्राह्मणों के अभक्त, रजोगुणी और विशेष करके तमोगुणी हो रहे थे।
यही कारण था कि वे पृथ्वी के भार हो गये थे और इसी के फलस्वरूप भगवान परशुराम ने उनका नाश करके पृथ्वी का भार उतार दिया।
हैहय वंश का अधिपति था अर्जुन।
वह एक श्रेष्ठ क्षत्रिय था।
उसने अनेकों प्रकार की सेवा-शुश्रूषा करके भगवान नारायण के अंशावतार दत्तात्रेय जी को प्रसन्न कर लिया और उनसे एक हजार भुजाएँ तथा कोई शत्रु यद्ध में पराजित न कर सके-यह वरदान प्राप्त कर लिया। साथ ही इन्द्रियों का अबाध बल, अतुल सम्पत्ति, तेजस्विता, वीरता, कीर्ति और शारीरिक बल भी उसने उनकी कृपा से प्राप्त कर लिये थे।
वह योगेश्वर हो गया था।
उसमें ऐसा ऐश्वर्य था कि सूक्ष्म-से-सूक्ष्म, स्थूल-से-स्थूल रूप धारण कर लेता। सभी सिद्धियाँ उसे प्राप्त थीं।
वह संसार में वायु की तरह सब जगह बेरोक-टोक विचरा करता।
एक दिन सहस्रबाहु अर्जुन शिकार खेलने के लिये बड़े घोर जंगल में निकल गया था।
दैववश वह जमदग्नि मुनि के आश्रम पर जा पहुँचा।
परम तपस्वी जमदग्नि मुनि के आश्रम में कामधेनु रहती थी।
उसके प्रताप से उन्होंने सेना, मन्त्री और वाहनों के साथ हैहयाधिपति का खूब स्वागत-सत्कार किया।
वीर हैहयाधिपति ने देखा कि जमदग्नि मुनि का ऐश्वर्य तो मुझसे भी बढ़ा-चढ़ा है।
इसलिये उसने उनके स्वागत-सत्कार को कुछ भी आदर न देकर कामधेनु को ही ले लेना चाहा। उसने अभिमानवश जमदग्नि मुनि से माँगा भी नहीं, अपने सेवकों को आज्ञा दी कि कामधेनु को छीन ले चलो।
उसकी आज्ञा से उसके सेवक बछड़े के साथ ‘बाँ-बाँ’ डकराती हुई कामधेनु को बलपूर्वक माहिष्मतीपुरी ले गये।
जब वे सब चले गये, तब परशुराम जी आश्रम पर आये और उसकी दुष्टता का वृतान्त सुनकर चोट खाये हुए साँप की तरह क्रोध से तिलमिला उठे।
वे अपना भयंकर फरसा, तरकस, ढाल एवं धनुष लेकर बड़े वेग से उसके पीछे दौड़े-जैसे कोई किसी से न दबने वाला सिंह हाथी पर टूट पड़े।
सहस्राबाहु अर्जुन अभी अपने नगर में प्रवेश कर ही रहा था कि उसने देखा परशुराम जी महाराज बड़े वेग से उसी की ओर झपटे आ रहे हैं।
उनकी बड़ी विलक्षण झाँकी थी।
वे हाथ में धनुष-बाण और फरसा लिये हुए थे, शरीर पर काला मृगचर्म धारण किये हुए थे और उनकी जटाएँ सूर्य की किरणों के समान चमक रही थीं।
उन्हें देखते ही उसने गदा, खड्ग, बाण, ऋष्टि, शतघ्नी और शक्ति आदि आयुधों से सुसज्जित एवं हाथी, घोड़े, रथ तथा पदातियों से युक्त अत्यन्त भयंकर सहस्र अक्षौहिणी सेना भेजी।
भगवान् परशुराम ने बात-की-बात में अकेले ही उस सारी सेना को नष्ट कर दिया।
भगवान् परशुराम जी की गति मन और वायु के समान थी। वे शत्रु की सेना काटते ही जा रहे थे।
जहाँ-जहाँ वे अपने फरसे का प्रहार करते, वहाँ-वहाँ सारथि और वाहनों के साथ बड़े-बड़े वीरों की बाँहें, जाँघें और कंधे कट-कटकर पृथ्वी पर गिरते जाते थे।
हैहयाधिपति अर्जुन ने देखा कि मेरी सेना के सैनिक, उनके धनुष, ध्वजाएँ और ढाल भगवान् परशुराम के फरसे और बाणों से कट-कटकर खून से लथपथ रणभूमि में गिर गये हैं, तब उसे बड़ा क्रोध आया और वह स्वयं भिड़ने के लिये आ धमका।
उसने एक साथ ही अपनी हजार भुजाओं से पाँच सौ धनुषों पर बाण चढ़ायें और परशुराम जी पर छोड़े।
परन्तु परशुराम जी तो समस्त शस्त्रधारियों के शिरोमणि ठहरे। उन्होंने अपने एक धनुष पर छोड़े हुए बाणों से ही एक साथ सबको काट डाला।
अब हैहयाधिपति अपने हाथों से पहाड़ और पेड़ उखाड़कर बड़े वेग से युद्धभूमि में परशुराम जी की ओर झपटा।
परन्तु परशुराम जी ने अपनी तीखी धार वाले फरसे से बड़ी फुर्ती के साथ उसकी साँपों के समान भुजाओं को काट डाला। जब उसकी बाँहें कट गयीं, तब उन्होंने पहाड़ की चोटी की तरह उसका ऊँचा सिर धड़ से अलग कर दिया।
पिता के मर जाने पर उसके दस हजार लड़के डरकर भाग गये।
विपक्षी वीरों के नाशक परशुराम जी ने बछड़े के साथ कामधेनु लौटा ली।
एक दिन की बात है, परशुराम जी की माता रेणुका गंगा तट पर गयी हुई थीं।
वहाँ उन्होंने देखा कि गन्धर्वराज चित्ररथ कमलों की माला पहने अप्सराओं के साथ विहार कर रहा है।
वे जल लाने के लिये नदी तट पर गयी थीं, परन्तु वहाँ जलक्रीड़ा करते हुए गन्धर्व को देखने लगीं और पतिदेव के हवन का समय हो गया है-इस बात को भूल गयीं।
उनका मन कुछ-कुछ चित्ररथ की ओर खिंच भी गया था।
हवन का समय बीत गया, यह जानकर वे महर्षि जमदग्नि के शाप से भयभीत हो गयीं और तुरंत वहाँ से आश्रम पर चली आयीं।
वहाँ जल का कलश महर्षि के सामने रखकर हाथ जोड़ खड़ी हो गयीं।
जमदग्नि मुनि ने अपनी पत्नी का मानसिक व्यभिचार जान लिया और क्रोध करके कहा——
‘मेरे पुत्रों! इस पापिनी को मार डालो।’
परन्तु उनके किसी भी पुत्र ने उनकी वह आज्ञा स्वीकार नहीं की।
इसके बाद पिता की आज्ञा से परशुराम जी ने माता के साथ सब भाइयों को मार डाला।
क्योंकि वे अपने पिताजी के योग और तपस्या का प्रभाव भली भाँति जानते थे।
परशुराम जी के इस काम से सत्यवतीनन्दन महर्षि जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा—–
‘बेटा! तुम्हारी जो इच्छा हो, वर माँग लो।’
परशुराम जी ने कहा——
‘पिताजी! मेरी माता और सब भाई जीवित हो जायें तथा उन्हें इस बात की याद न रहे कि मैंने उन्हें मारा था’।
परशुराम जी के इस प्रकार कहते ही जैसे कोई सोकर उठे, सब-के-सब अनायास ही सकुशल उठ बैठे।
परशुराम जी ने अपने पिताजी का तपोबल जानकर ही तो अपने सुहृदों का वध किया था।
एक दिन की बात है, परशुराम जी अपने भाइयों के साथ आश्रम से बाहर वन की ओर गये हुए थे।
यह अवसर पाकर वैर साधने के लिये सहस्रबाहु के लड़के वहाँ आ पहुँचे।
उस समय महर्षि जमदग्नि अग्निशाला में बीते हुए थे और अपनी समस्त वृत्तियों से पवित्रकीर्ति भगवान् के ही चिन्तन में मग्न हो रहे थे।
उन्हें बाहर की कोई सुध न थी।
उसी समय उन पापियों ने जमदग्नि ऋषि को मार डाला। उन्होंने पहले से ही ऐसा पापपूर्ण निश्चय कर रखा था।
परशुराम की माता रेणुका बड़ी दीनता से उनसे प्रार्थना कर रही थीं, परन्तु उन सबों ने उनकी एक न सुनी। वे बलपूर्वक महर्षि जमदग्नि का सिर काटकर ले गये।
वास्तव में वे नीच क्षत्रिय अत्यन्त क्रूर थे। सती रेणुका दुःख और शोक से आतुर हो गयीं।
वे अपने हाथों अपनी छाती और सिर पीट-पीटकर जोर-जोर से रोने लगीं—-
‘परशुराम! बेटा परशुराम! शीघ्र आओ’।
परशुराम जी ने बहुत दूर से माता का ‘हा राम!’ यह करुण-क्रन्दन सुन लिया। वे बड़ी शीघ्रता से आश्रम पर आये और वहाँ आकर देखा कि पिताजी मार डाले गये हैं।
उस समय परशुराम जी को बड़ा दुःख हुआ। साथ ही क्रोध, असहिष्णुता, मानसिक पीड़ा और शोक के वेग से वे अत्यन्त मोहित हो गये।
‘हाय पिता जी! आप तो बड़े महात्मा थे।
पिता जी! आप तो धर्म के सच्चे पुजारी थे।
आप हम लोगों को छोड़कर स्वर्ग चले गये’।
इस प्रकार विलाप कर उन्होंने पिता का शरीर तो भाइयों को सौंप दिया और स्वयं हाथ से फरसा उठाकर क्षत्रियों को संहार कर डालने का निश्चय किया।
परशुराम जी ने माहिष्मती नगरी में जाकर सहस्रबाहु अर्जुन के पुत्रों के सिरों से नगर के बीचों-बीच एक बड़ा भारी पर्वत खड़ा कर दिया।
उस नगर की शोभा तो उन ब्रह्मघाती नीच क्षत्रियों के कारण ही नष्ट हो चुकी थी। उनके रक्त से एक बड़ी भयंकर नदी बह निकली, जिसे देखकर ब्राह्मणद्रोहियों का हृदय भय से काँप उठता था।
भगवान् ने देखा कि वर्तमान क्षत्रिय अत्याचारी हो गये हैं।
उन्होंने अपने पिता के वध को निमित्त बनाकर इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय हीन कर दिया और कुरुक्षेत्र के समन्त पंचक में ऐसे-ऐसे पाँच तालाब बना दिये, जो रक्त के जल से भरे हुए थे।
परशुराम जी ने अपने पिता जी का सिर लाकर उनके धड़ से जोड़ दिया और यज्ञों द्वारा सर्वदेवमय आत्म स्वरूप भगवान का यजन किया।
यज्ञों में उन्होंने—-
पूर्व दिशा होता को।
दक्षिण दिशा ब्रह्मा को।
पश्चिम दिशा अध्वर्यु को।
उत्तर दिशा उद्गाता को दे दी।
इसी प्रकार अग्निकोण आदि विदिशाएँ ऋत्विजों को दीं, कश्यप जी को मध्यभूमि दी, उपद्रष्टा को आर्यावर्त दिया तथा दूसरे सदस्यों को अन्यान्य दिशाएँ प्रदान कर दीं।
इसके बाद यज्ञान्त-स्नान करके वे समस्त पापों से मुक्त हो गये और ब्रह्मनदी सरस्वती के तट पर मेघ रहित सूर्य के समान शोभायमान हुए।
महर्षि जमदग्नि को स्मृतिरूप संकल्प मय शरीर की प्राप्ति हो गयी।
परशुराम जी से सम्मानित होकर वे सप्तर्षियों के मण्डल में सातवें ऋषि हो गये।
कमललोचन जमदग्नि नन्दन भगवान् परशुराम आगामी मन्वन्तर में सप्तर्षियों के मण्डल में रहकर वेदों का विस्तार करेंगे।
वे आज भी किसी को किसी प्रकार का दण्ड न देते हुए शान्त चित्त से महेन्द्र पर्वत पर निवास करते हैं।
वहाँ सिद्ध, गन्धर्व और चारण उनके चरित्र का मधुर स्वर से गान करते रहते हैं।
सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा भगवान् श्रीहरि ने इस प्रकार भृगुवंशियों में अवतार ग्रहण करके पृथ्वी के भारभूत राजाओं का बहुत बार वध किया।
@ शिवप्रसाद त्रिपाठी जी के वाल से
                                            May be an image of 2 people and text that says 'भगवान परशुराम जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं डॉ. अश्विनी पाण्डेय Assistant Professor, Lucknow ज्योतिषाचार्य, पीएच.डी. {गोल्डमेडलिस्ट- B.H.U.} वास्तुविद, भारतीय संस्कृति विचारक एवं दार्शनिक Û435 Web-sanskritastronomy.com,'

May be an image of text that says 'शुभ अद्षाय Rसंस्कृत" জ तृतीया उत्तमोडप्रार्थितो दत्ते मध्यम: प्रार्थित: पुनः। याचकैर्याच्यमानोडपि दत्ते न त्वधमाधम: resanskrit.com A noble person gives without being asked, person of the medium category gives when asked, and the worst of them doesn't give even after being asked by the needy. Mahăsubhasitasamgraha उत्तम मनुष्य मांगे बिना देता है, मध्यम मांगने पर देता है, और आधम तो याचकों के मांगने पर भी नहीं देता है|'