रथ यात्रा : जगन्नाथ पुरी
प्रायः २०,००० वर्षों से श्री जगन्नाथ कई रथ यात्रा का आयोजन हो रहा है, तत्त्व रूप में अनादि और अनन्त है। यह ब्रह्म के स्रष्टा रूप की प्रतिमा है जिसे अव्यय या यज्ञ पुरुष कहते हैं। इसके आधिदैविक (आकाश में), आधिभौतिक (पृथ्वी पर) तथा आध्यात्मिक (शरीर के भीतर) भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। मनुष्य शरीर या विश्व की कोई स्थिर रचना पुर है, जिसका निवासी पुरुष है। पुर का गतिशील रूप रथ है जिसका सञ्चालक वामन या सूक्ष्म ईश्वर है।
१. रथ और पुर-पुर का लौकिक अर्थ नगर है। वेद में इसके अर्थ की वृद्धि कर इसका अर्थ अनुष्य शरीर या विश्व की कोई भी रचना है, जो सीमाबद्ध है।
अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या (अथर्व, १०/२/३१)
अष्टाचक्रं वर्तते एक नेमि (अथर्व,११/४/२२)
नवद्वारे पुरे देही हंसो लेलायते बहिः।
वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च॥
(श्वेताश्वतर उपनिषद्, ३/१८)
एकचक्रं वर्तते एकनेमि (अथर्व, १०/८/७)
शरीर रूपी पुर में ८ चक्र तथा ९ द्वार हैं, हंस रूप आत्मा इस शरीर में है तथा बाहर भी स्थावर-जंगम को चला रहा है। पूरे विश्व को चलाने वाले को एक ही पुरुष मानें तो एक ही नेमि या नियन्त्रक है।
शरीर के ७ चक्र आकाश के ७ लोकों की प्रतिमा हैं। मस्तिष्क के पीछे विन्दु चक्र अष्टम है। आकाश में यह मूल असत् है जिससे सत् सृष्टि का आरम्भ हुआ।
गतिशील पुर को रथ कहा है-
आत्मानं रथिनं विद्धि, शरीरं रथमेव तु। बुद्धिं तु सारथिं विद्धि, मनः प्रग्रहमेव च॥३॥
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्। आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः॥४॥
(कठोपनिषद्, १/३/३-४)
= शरीर रथ है, इसका रर्थी या स्वामी आत्मा है। बुद्धि सारथी या चालक है, जो मन रूपी प्रग्रह (पगहा, रस्सी) से इन्द्रिय रूपी अश्वों को नियन्त्रित कर रहा है। इन्द्रिय तथा मन द्वारा आत्मा इसका उपभोग कर रहा है।
हंसः शुचिषद् वसुरन्तरिक्षसद्, होता वेदिषद् अतिथिर्दुरोणसत्।
नृषद् वरसदृतसद् व्योमसदब्जा, गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत्॥२॥
ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति। मध्ये वामनमासीनं विश्वे देवा उपासते॥।३॥
(कठोपनिषद्, २/२/२-३)
(श्लोक २-महानारायण उपनिषद्, ८/६, १२/३, नृसिंह पूर्वतापिनी उप. ३/६, ऋक्, ४/४०/५ में भी है)
= परम सत्य (ऋतं बृहत्) है कि परम व्योम में (शुचि-सद्) वह ब्रह्म हंस है, अन्तरिक्ष में वसु है। यज्ञ वेदी में वह होता है, घर में अतिथि है, हर नर में है (नृषद्, वैश्वानर रूप), उच्च जीवों में भी है (वर-सद्), ऋत् या (ऋत्-सत् में है, शून्य में है (इन्द्र रूप में व्योम-सत्, नेन्द्रात् ऋते पवते धाम किं च न-ऋक्, १/६९/६), अप् से सृष्ट विश्व में है (अब्ज), किरण या पृथ्वी (गो) में है (गोजा), पर्वत में है (अद्रिजा, पार्वती)।
जो प्राण को उठाता है (उदान वायु) तथा अपान से नीचे ठेलता वह्, वह शरीर के मध्य (हृदय) में वामन है, जिसकी उपासना सभी देव करते हैं।
इसी अर्थ में शंकराचार्य ने जगन्नाथाष्टकम् में लिखा है
महाम्भोधेस्तीरे कनक रुचिरे नील शिखरे, वसन् प्रासादान्ते सहज बलभद्रेण बलिना।
सुभद्रा मध्यस्थं सकल सुरसेवावसरदो, जगन्नाथस्वामी, नयनपथगामी भवतु मे॥
स्वामी रामभद्राचार्य जी ने कठोपनिषद् टीका में एक स्फुट श्लोक उद्धृत किया है-
हंसः शुद्धमनःस्थितो वसुरथो वायुर्नभस्थोऽनलो।
वेद्याम् वै कलशे शशी गृहगतो विप्रो नरे पूरुषः।
मत्स्यो राघवकेशवौ नरऋषिर्नारायणो वामनः।
देवे विष्णुरथो मखे मखपतिः हृत्स्थः प्रभुः वारिणि॥
परम लोक में वह नारायण है, शून्य आकाश में वह हंस है, जल में मत्स्य अवतार है (ऋक्, ७/१८/६, में आकाश के समुद्रों में तैरते ब्रह्माण्डों या ताराओं को भी मत्स्य कहा है)। पृथ्वी पर उसके अवतार हैं-नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण। वही हमारे हृदय में स्थित हो कर नियन्त्रण करता है।
गीता में भी कहा है कि ईश्वर सभी भूतों के हृदय में रह कर उनका नियन्त्रण करता है, जैसे माया-यन्त्र (रोबोट) को उसका मशीन चला रहा है। जीव बहु वचन है, किन्तु वह हृदय एक वचन है। सर्वव्यापी के लिए एक ही हृदय है।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन् सर्व भूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥
(गीता, १८/६१)
इसका तुलसीदास जी द्वारा अनुवाद-
उमा दारु-जोषित (कठपुतली) की नाईं।
सबहिं नचावत राम गोसाईं॥ (रामचरितमानस, ४/१०/७)
२. रथ यात्रा-इसका वर्णन स्कन्द पुराण, वैष्णव खण्ड, उत्कल खण्ड, अध्याय ३३ में है। इस सम्बन्ध में एक प्रसिद्ध श्लोक प्राचीन कोषों शब्द कल्पद्रुम तथा वाचस्पत्यम् में रथ शब्द के अर्थ में उद्धृत है। इस तरह के कुछ महत्त्वपूर्ण श्लोकों को बाद के पुराण संस्करनों से निकाल दिया गया जो १८९० ई तक थे।
दोलायमानं गोविन्दं मञ्चस्थं मधुसूदनम्।
रथस्थं वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते।
= जो दोलायमान गोविन्द को, मञ्च स्थित मधुसूदन को, तथा रथ में स्थित वामन को देखता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
परब्रह्म हमारी कल्पना से परे है किन्तु हम उसे ३ प्रकार से जानते हैं, जो त्रयी विद्या है। परब्रह्म-को मिला कर यह चतुर्धा मूर्त्ति है।
न तस्य कार्यं करणं न विद्यते, न तत् समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते।
पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च॥
(श्वेताश्वतर उपनिषद्, ६/८)
यहां ज्ञानघन = जगन्नाथ, विश्व की रचनायें या भद्र (बलभद्र), लोकों की क्रिया रूप सुभद्रा। आकाश में सृष्टि चक्र रूप सुदर्शन।
ब्रह्म वेद अथर्व है, जो सदा एक जैसा है। थर्व = कम्पन, अथर्व = स्थिर।
इसके दृश्य रूप ३ वेद हैं-(१) यजुर्वेद-क्रिया रूप यज्ञ है जो चक्र में होता है। यज्ञ स्वरूप गो है, अविनाशी चक्र रूप में वह अघ्न्या है। इस गो रूपी यज्ञ-चक्र को जो चला रहा है, वह गोविन्द है। यज्ञ चक्र उसका दोलन है।
(२) ऋग्वेद-यह मूर्ति स्वरूप है। पृथ्वी मूर्ति पर हम स्थित हैं, अतः यह पद्म है (पद्भ्यां भूमिः-पुरुष सूक्त)। इस पर बैठने के कारण पृथ्वी मञ्च है। इसका निर्माण मधु-कैटभ को मार कर हुआ था, अतः यह रूप मधु-सूदन है।
(३) सामवेद-साम का अर्थ महिमा या प्रभाव है। किसी वस्तु की महिमा हम तक पहुंचे तभी उसका ज्ञान हो सकता है, अतः भगवान् ने अपने को वेदों में सामवेद कहा है (गीता, १०/२२)। वामन बहुत सूक्ष्म है, किन्तु उसका प्रभाव रथ के चलने से दीखता है। अतः रथ में स्थित वामन है।
ब्रह्म के ३ रूपों को देख कर परब्रह्म की कल्पना करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता है-
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥ (गीता ८/१६)
३. तन्त्र की रथ यात्रा-कुण्डलिनी तन्त्र में मुक्ति के लिए साधना है कि मूलाधार में स्थित आदि शक्ति रूप कुण्डलिनी को क्रमशः ६ चक्रों को भेदते हुए उठाते हैं। सबसे ऊपर सहस्रार चक्र में पहुंचने पर उसका अमृत पान होता है जिससे मद्य पीने जैसा आनन्द होता है। उसके बाद पुनः भूमि रूप मूलाधार में कुण्डलिनी वापस आ जाती है। बार-बार उसका उत्थान कर सहस्रार में ब्रह्मानन्द का अनुभव करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता है।
पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा, यावत् पतति भूतले।
उत्थाय च पुनः पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते।।
(कुलार्णव तन्त्र, ७/१००)
बार-बार पी कर भूमि पर गिरता है। उसके बाद उठ कर जो पुनः पीता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
शंकराचार्य ने यही सौन्दर्य लहरी में लिखा है-
महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं,
स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि।
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्त्वा कुलपथम्,
सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसि।।
( शंकराचार्य, सौन्दर्य लहरी, श्लोक ९)
(कुण्डलिनी शक्ति) भूमि तत्त्व रूप मूलाधार में है। वह जल (कं) रूप मणिपूर में, अग्नि रूप स्वाधिष्ठान में, मरुत् रूप हृदय (अनाहत चक्र) में, उसके ऊपर (कण्ठ में विशुद्धि चक्र के) आकाश तत्त्व में, भ्रूमध्य (के पीछे) मन (आज्ञा चक्र) को भेदते हुए कुल पथ में ऊपर जाकर सहस्रार पद्म में जाती है और पति के साथ विहार करती है।
उत्थान के लिए हर काण्ड से आगे बढ़ना पड़ता है, जैसे दूर्वा। दूर्वा दान का मन्त्र है-
काण्डात् काण्डात् प्ररोहन्ति परुषः परुषस्परि।
एवा नो दूर्वे प्र तनु सहस्रेण शतेन च॥
(वाज. यजु, १३/२०)
इसका आरम्भ मूलाधार के अन्नमय कोष से होता है-
तदन्नेनातिरोहति (पुरुष सूक्त, २, वाज यजु, ३१/२)
४. लौकिक वर्णन-आत्मा बहुत सूक्ष्म है, अतः इसे वामन कहते हैं।
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः (कठोपनिषद् ६/१७, श्वेताश्वतर उपनिषद् ३/१३)
अङ्गुष्ठमात्रो रवितुल्य रूपः सङ्कल्पाहङ्कार समन्वितो यः (श्वेताश्वतर उपनिषद् ५/८)
वालाग्र शतभागस्य शतधा कल्पितस्य च।
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते॥
(श्वेताश्वतर उपनिषद् ४/५)
वालाग्र मात्रं हृदयस्य मध्ये विश्वं देवं जातरूपं वरेण्यम्। तमात्मस्थं ये नु पश्यन्ति धीरास्तेषां शान्तिर्भवति नेतरेषां॥ (अथर्वशिर ऊपनिषद् ३/११)
वालाग्र शतसाहस्रं तस्य भागस्य भागिनः।
तस्य भागस्य भागार्धं तत्क्षये तु निरञ्जनम्॥
(ध्यानविन्दु उपनिषद् ४)
हृदय स्थित वामन रूपी आत्मा में ध्यान की विधि भागवत पुराण में है। भगवान् के परम धाम जाने पर युधिष्ठिर द्वारा साधना क्रम-वाक् की मन में आहुति, मन की प्राण में, प्राण की अपान में, उत्सर्ग सहित अपान की मृत्यु में, मृत्यु की पञ्चत्व में, पञ्चत्वकी त्रित्व में, त्रित्व की एकत्व में, आत्मा की आहुति अव्यय में की।
वाचं जुहाव मनसि तत्प्राणे इतरे च तं।
मृत्यावपानं सोत्सर्गं तं पञ्चत्वेह्यजोहवीत्॥४१॥
त्रित्वे हुत्वाथ पञ्चत्वं तच्चैकत्वेऽजुहोन्मुनिः।
सर्वमात्मन्यजुहवीद् ब्रह्मण्यात्मानमव्यये॥४२॥
(भागवत पुराण, १/१५/४१-४२)
लौकिक रूप से जगन्नाथ स्वामी अर्थात् मनुष्यों के पति हैं। वामन रूप के कारण उनको बालक कहते है। पति से मिलने में माया के ७ आवरण सुभद्रा है। परिवार में पति की बहन नहीं चाहती है कि उसका भाई उसे छोड़ कर अपनी पत्नी के निकट रहे। उनके सम्बन्ध से वह सुखी या नन्दित नहीं होती अतः उसे ननान्दृ (ननद) कहते हैं। सुभद्रा ननद हैं। हमारा शरीर और अन्य सभी पुर बलभद्र हैं। इस आशय का एकप्रसिद्ध गीत मैथिल भक्त कवि विद्यापति ने लिखा था-
पिया मोरे बालक, हम तरुणी गे,
कौन तप चूक लौं, भएलौं जननी गे।
———
भणए विद्यापति, सुनु ब्रज (वर) नारी,
धैरज धए रहु, मिलत मुरारी॥
तुलसीदास जी ने भगवान् राम को ब्रह्म, उनके पीछे चलते लक्ष्मण (बलभद्र जैसे शेष अवतार) को जीव, तथा उनके बीच चलती सीता को माया कहा है-
आगे रामु लखनु बने पाछें। तापस बेष बिराजत काछें।।
उभय बीच सिय सोहति कैसे। ब्रह्म जीव बिच माया जैसे।।
(रामचरितमानस, अयोध्या काण्ड, १२२/१)
५. आधिदैविक अर्थ-आकाश में सृष्टि का आरम्भ सूक्ष्म हिरण्यगर्भ से हुआ था, जो वामन है।
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ (ऋक् १०/१२१/१, वाजसनेयी यजुर्वेद १३/४, २३/१, अथर्व ४/२/७)
= हिरण्यगर्भ (तेज-पुञ्ज) सबसे पहले हुआ था, वही भूतों (५ महाभूत) का एक पति था। उसने पृथिवी तथा आकाश को धारण किया। उस क (कर्त्ता) रूपी देवता को हम हवि द्वारा पूजते हैं।
यहां आकाश सुदर्शन चक्र, कई स्तरों की पृथ्वी बलभद्र तथा उनकी अलग स्थिति सुभद्रा है।
आकर्षण द्वारा सृष्टि का निर्माण हुआ। इसका केन्द्र वामन कृष्ण है, जिससे रजः = गतिशील लोक स्थित हैं। लोक रचना बलभद्र है, अमृत-मर्त्य आदि विभाजन सुभद्रा है। कृष्ण का एक अन्य अर्थ है काला रंग। इस अर्थ में ब्लैक होल के आकर्षण से ब्रह्माण्ड स्थित है।
आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥
(ऋक १/३५/२, वाजसनेयि यजु ३३/४३, तैत्तिरीय संहिता, ३/४/११/२)
आकृष्णेन = आकर्षण द्वारा, ब्लैक होल द्वारा जो सभी रंगों को आकर्षित करता है।
विष्णु पुराण (२/७/१९) के अनुसार बड़े ३ लोक-जनः, तप, सत्य-अमृत हैं, इनका परिवर्तन बहुत धीमा है। सौर मण्डल के भीतर भू, भुवः, स्वः-लोक मर्त्य हैं। इन दोनों भागों के केन्द्र में सूर्य है जो अपने रथ (सौर मण्डल) के साथ ब्रह्माण्ड केन्द्र के कृष्ण की परिक्रमा कर रहा है और अपना हिरण्य (तेज) फैला रहा है। देव का अर्थ है क्रियात्मक प्राण। असुर प्राण से सृष्टि नहीं होती है।
सौर मण्डाल् ही सूर्य का रथ है। उसके केन्द्र में सूर्य वामन है। विष्णु पुराण (२/८/३) के अनुसार सौर मण्डल सूर्य व्यास का १५७.५ गुणा बड़ा है। अतः इसे वामन कहते हैं। मंगल तक का क्षेत्र ठोस ग्रहों का है जिनको दधि कहते हैं। भागवत पुराण आदि में दधि समुद्र का आकार मंगल कक्षा के बराबर है। इस समुद्र में सबसे बड़ा पृथ्वी ग्रह है। उसकी सीमा पर होने के कारण मंगल को भूमि का पुत्र कहा गया है। पिता का कार्य काल समाप्त होते समय पुत्र का कार्य आरम्भ हो जाता है।
६. काल चक्र-(१) आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा को जगन्नाथ का उन्मेष या जागरण होता है। उसके बाद द्वितीया से दशमी तक रथ यात्रा होती है। यह १० दिन का सृष्टि चक्र है, जिसमें १ अव्यक्त से ९ व्यक्त सृष्टि होती हैं।
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वे प्रभवन्त्यहरागमे ।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्त संज्ञके ॥ (गीता, ८/१८)
सूर्य सिद्धान्त (१४/१) के अनुसार ९ काल मान हैं जो ९ सृष्टि चक्रों के काल हैं।
मनुष्य का गर्भ में जन्म चन्द्र की १० परिक्रमा (२७३ दिन) में होता है। प्रेत शरीर चान्द्र मण्डल का है, उसका निर्माण पृथ्वी के १० अक्ष भ्रमण (१० दिन) में होता है।
आकाश के १ अव्यक्त से ९ व्यक्त सर्गों की सृष्टि को भी १० दिन कहा है। यहां हर दिन का मान भिन्न-भिन्न होगा। शान्त स्थिति अर्थात् रात्रि में निर्माण होता है, अतः इनको रात्रि भी कहा है। इसी कारण शक्ति को भी रात्रि रूप कहा है।
अथ यद्दशममहरुपयन्ति।
संवत्सरमेव देवतां यजन्ते। (शतपथ ब्राह्मण, ५/४/५/३)
श्रीर्वै दशममहः। (ऐतरेय ब्राह्मण, ५/२२)
मितमेतद्देवकर्म्म यद्दशममहः। (कौषीतकि ब्राह्मण २७/१)
प्रतिष्ठा दशममहः। (कौषीतकि ब्राह्मण, २७/२, २९/५)
अन्तो वा एष यज्ञस्य यद्दशममहः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/६/१)
अथ यद्दशरात्रमुपयन्ति।
विश्वानेव देवान् देवतां यजन्ते।।
(शतपथ ब्राह्मण, १२/१/३/१७)
दशवीराः (यजु १९/४८) प्राणा वै दश वीराः। (शतपथ ब्राह्मण १२/८/१/२२)
प्रजापतिर्वै दशहोता। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/३/५/६, २/२/१/१, २/२/३/२, २/२/८/५)
यज्ञो वै दशहोता (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/१/६)
विराड् वा एषा समृद्धा यद्दशाहानि। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, ४/८/६)
इन सर्गों के नाम विभिन्न पुराणों में हैं जिनको समझना कठिन है।
कालाख्यं लक्षणं ब्रह्मन् यथा वर्णय नः प्रभो॥१०॥ गुणव्यतिकराकारो निर्विशेषोऽप्रतिष्ठितः।–११॥
सर्गो नवविधस्तस्य प्राकृतो वैकृतस्तु यः॥१३॥
श्लोक (१४-२६) ६ प्राकृतिक सर्ग-
१. महत्तत्त्व, २. अहङ्कार, ३. भूतसर्ग, ४. इन्द्रिय (ज्ञान-क्रिया युक्त), ५. देवसर्ग (सात्विक अहङ्कार से, मन), ६. तमस सर्ग
वैकृत सर्ग-७. मुख्य सर्ग-६ प्रकार के स्थावर वृक्ष, ८. तिर्यक् योनि (विचार शून्य पशु पक्षी), ९. मनुष्य।
प्राकृत-वैकृत-कौमार सर्ग
ब्राह्मं पित्र्यं तथा दिव्यं प्राजापत्यं च गौरवम् ।
सौरं सावनं चान्द्रमार्क्षं मानानि वै नव ॥
(सूर्य सिद्धान्त, १४/१)
सृष्टि चक्रों में २ प्रकार की विपरीत गति हैं-सम्भूति-विनाश (ईशावास्योपनिषद्, ११), उद्ग्राभ-निग्राभ (फैलना-सिकुड़ना, वाज.यजु.१७/६३, आर्यभटीय, कालक्रियापाद, २/९, शतपथ ब्राह्मण, ३/९/४/१५ आदि)।
इनका व्यापक यज्ञ दर्श-पूर्णमास कहते हैं-दर्श से पूर्ण तथा पूर्णिमा से दर्श तक की चन्द्र कला जैसा।
एष वै पूर्णिमाः। य एष (सूर्यः) तपत्यहरहर्ह्येवैश पूर्णोऽथैष एव दर्शो यच्चन्द्रमा ददृश इव ह्येषः। अथोऽइतरथाहुः।
एष एव पूर्णमा यच्चन्द्रमा एतस्य ह्यनु पूरणं पौर्णमासीत्याचक्षते ऽथैष एष दर्षो य एष (सूर्यः) तपति ददृश इव ह्येषः। (शतपथ ब्राह्मण ११/२/४/१-२) सवृत 😊 चक्रीय) यज्ञो वा एष यद्दर्शपूर्णमासौ। (गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, २/२४)
दर्शपूर्णमासौ वा अश्वस्य मेध्यस्य पदे। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/९/२३/१)
इसका स्वरूप बाहुड़ा (सीधी, बहुत्व सृष्टि) यात्रा तथा उलटा रथ है।
(२) वर्ष चक्र-संवत्सर का आरम्भ पहले माघ मास से होता था जिसका वर्णन वेदांग ज्योतिष में है। कार्त्तिकेय के समय अभिजित का पतन हुआ था (महाभारत, वन पर्व, २३०/८-१०) तब अभिजित के बदले धनिष्ठा से संवत्सर का आरम्भ हुआ। उस समय (१५,८०० ईपू) में धनिष्ठा से वर्षा का आरम्भ होता था, अतः संवत्सर को वर्ष कहा गया।
माघ शुक्ल प्रपन्नस्य पौष कृष्ण समापिनः।
युगस्य पञ्च वर्षस्य काल ज्ञानं प्रचक्षते॥५॥
स्वराक्रमेते सोमार्कौ यदा साकं स-वासवौ।
स्यात्तदाऽऽदि युगं माघस्तपः शुक्लोऽयनं ह्युदक्॥६॥
प्रपद्येते श्रविष्ठादौ सूर्य-चन्द्रमसावुदक्।
सार्पार्धे दक्षिणार्कस्तु माघ-श्रवणयोः सदा॥७॥
(याजुष ज्योतिष, ५-७)
वर्तमान संवत्सर का आरम्भ चैत्र मास से होता है। किन्तु वर्षा का आरम्भ आषाढ़ मास से होता है, जब ५७ ईपू में विक्रम संवत् का आरम्भ हुआ। अतः चन्द्र दर्शन के अनुसार आषाढ़ के प्रथम दिन (द्वितीया तिथि) को वर्षा आरम्भ के समय रथयात्रा होती है। नरसिंह गुरु ने मेघदूत की ब्रह्म प्रकाशिका टीक्आ में यही व्याख्या की है
आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्ट सानुः (मेघदूत, २)
यजुर्वेद, माध्यन्दिन, (१५/१७)-अयं पश्चाद् विश्वव्यचाः तस्य रथ-प्रोतश्च असम-रथश्च सेनानी ग्रामण्यौ।
शतपथ ब्राह्मण (८/६/१/१८)-पश्चाद् = पश्चिम देशे। आदियो विश्वव्यचा, यदा ह्येवैष उदेति अथेदं सर्वं व्यचो भवति। रथप्रोतश्च असमरथश्च सेनानी ग्रामण्यौ इति वार्षिकौ तौ ऋतू। — अहोरात्रे तु ते ते हि प्रम्लोचतो अनुम्लोचतो–। = अहरेव प्रम्लोचन्ती, रात्रिरेव अनुम्लोचन्ती।
यदा वै वर्षाः पिबन्ते अथैनाः सर्वे देवा सर्वाणि भूतानि उपजीवन्ति। (शतपथ ब्राह्मण १४/३/२/२२)
वर्षं सावित्री (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व १/३३)
वर्षाः उत्तरः (पक्षः संवत्सरस्य) वर्षाः पुच्छम् (संवत्सरस्य) -तैत्तिरीय ब्राह्मण (३/११/१०/३-४)
यह परम्परा वामन से आरम्भ हुई जो अदिति के पुत्र थे।
वामनो ह विष्णुरास (शतपथ ब्राह्मण १/२/५/५)
अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम् (ऋग्वेद १/८९/१०, अथर्व ७/६/१, वाजसनेयि सं. २५/२३, मैत्रायणी सं. ४/२४/४)
अदिति का नक्षत्र पुनर्वसु हौ जिससे संवत्सर का अन्त तथा नये का जन्म होता है। आज भी रथ यात्रा तथा उलटा रथ के समय सूर्य पुनर्वसु में ही रहते हैं।
वर्षा में घूमना फिरना बन्द हो जाता है, अतः घर के अखाड़ा (आषाढ़) में ही व्यायाम होता है। इस मास के नाम का यही अर्थ होता है। संयोग से १९९२ में अमेरिका में लास एंजेल्स ओलम्पिक रथ यात्रा के दिन ही आरम्भ हुआ था। वर्षा का आरम्भ होने के समय सूर्य की उत्तर यात्रा (उत्तरायण) समाप्त हो कर दक्षिणायन आरम्ब होता है, जिसे पार्श्व परिवर्तन कहते हैं।
यजुर्वेद, वाजसनेयि संहिता, अध्याय ३१, उत्तरनारायण सूक्त (मन्त्र १७-२२) अन्तिम मन्त्र
श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पार्श्वे—-
(३) काल तथा पुरुष-परिवर्तन का आभास काल है। जो आज है वह कल (श्वः) नहीं रहेगा, अतः काल को अश्व भी कहते हैं (अथर्व, १९/५३/१)
विष्णु पुराण, १/२-विष्णोः स्वरूपात् परतो हि ते द्वे, रूपे प्रधानं पुरुषश्च विप्र।
तस्यैव तेऽन्येन धृते वियुक्ते, रूपान्तरं तद् द्विज कालसंज्ञम्॥२४॥
श्रीमद् भागवत पुराण, स्कन्ध ३, अध्याय १०-
कालाख्यं लक्षणं ब्रह्मन् यथा वर्णय नः प्रभो॥१०॥ गुणव्यतिकराकारो निर्विशेषोऽप्रतिष्ठितः।–११॥
परिवर्तन ३ प्रकार के हैं जिसके अनुसार ३ प्रकार के काल हैं, तथा इसके अनुसार ३ प्रकार के पुरुष हैं-
१. क्षर पुरुष-सर्वदा क्षरण या नास होता रहता है, एक बार जो चला गया वह वापस नहीं आता। यह नित्य काल है जिसे मृत्यु भी कहते हैं।
२. अक्षर पुरुष-क्षरण होने पर भी क्रियात्मक परिचय (कूटस्थ, अदृश्य) समान रहता है। इसके सभी यज्ञ चक्र में होते हैं जिनसे साय की माप होती है। प्राकृतिक चक्र दिन-मास वर्ष हैं जिनके अनुसार यज्ञ होते हैं। यज्ञ में निर्माण होता है, अतः इसे जन्य काल कहते है। इससे समय की माप तथा गणना होती है, अतः इसे कलनात्मक काल भी कहते हैं। सभी प्रकार की गणना में काल की गणना कठिन है जिसे आज तक पूरा नहीं समझा जा सका है। अतः भगवान ने अपने को गणना में काल कहा है।
३. अव्यय पुरुष-पूर्ण विश्व या व्यवस्था को देखें तो उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो रहा है। इसका अक्षय काल है, जो विश्व को धारण करता है। इसे समय या मुहूर्त्त आदि कहते हैं।
लोकानामन्तकृत्कालः कालोऽन्यः कलनात्मकः॥
(सूर्य सिद्धान्त, १/१०)
गीता, अध्याय ३-
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरो वाच प्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥१०॥
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ॥१३॥
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥१६॥
कालोऽस्मि लोक क्षयकृत्प्रवृद्धो । (गीता, ११/३२)
कालः कलयतामहम् । (गीता, १०/३०)
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः (गीता, १०/३३)
गीता, अध्याय १५-
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१६॥
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥१७॥
यस्मात् क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥१८॥
अव्यय पुरुष क्षर-अक्षर दोनों से उत्तम है, अतः इसे पुरुषोत्तम कहते हैं। पुरुष सूक्त तथा गीता में इसे पुरुष के पु को दीर्घ कर पूरुष कहा है। पूरुष केवल पुर में निवास नहीं करता, यह पुर से बड़ा है।
बहुत सूक्ष्म या बहुत बड़े रूप का अनुभव नहीं हो सकता अतः उन रूपों को परात्पर पुरुष तथा परात्पर काल कहते हैं (भागवत पुराण, ३/११/२-३)
साभार Arun Kumar Upadhyay जी