यद्यात्रया व्यापकता हता ते भिदैकता वाक्परता च स्तुत्या ।
ध्यामेन बुद्धे; परत; परेशं जात्याऽजता क्षन्तुमिहार्हसि त्वं ।।
(यात्रा करके मैंने आपकी व्यापकता, भेद करके एकता, स्तुति करके वाक्परता, ध्यान करके आपकी बुद्धि से दूरी और जाति निश्चित करके आपका अजातिपन का नाश किया है। सो हे परमेश्वर, आप मेरे इन अपराधों को क्षमा करें )
आज संत कवि अब्दुल रहीम द्वारा रचित यह श्लोक प्रस्तुत है। संस्कृत भाषा में लिखा रहीम का यह श्लोक निराकार और निर्विकार ईश्वर को विभिन्न ध्रुवों में बाँट कर भजने की हमारी मूढ़ता को चिन्हित करता है ! रहीम की संस्कृत उनकी जनभाषा जैसी ही सहज, सरल व मनहर है ! माँ गंगा की स्तुति में लिखा उनका एक श्लोक अपने काव्य कौशल से अधिक अपनी गंगा भक्ति के कारण मुझे बेहद प्रिय है ! गंगोत्री से गंगासागर तक मैंने उस श्लोक को न जाने कितनी बार जिया है ! विडंबना ही है कि इस तथाकथित सहिष्णु, समरस व लोकतांत्रिक काल खंड को कबीर और रहीम जैसे पुराने अल्हड़, अलमस्त और मुखर फकीरों की सबसे ज़्यादा आवश्यकता है और यह भी सत्य है कि यदि आज उन जैसे मुखर भारतीयता के गायक शरीर में होते तो व्हाट्स एप विश्वविद्यालय से स्नातक निर्बुद्धि ज्ञानियों की जमात उन पर भी प्रश्नचिन्ह मढ़ कर वितंडा कर चुकी होती ! धर्म और सत्ता के अनपढ़ और कुपढ़ ठेकेदारों के व्यूह से निकलना है तो इन संतों के शरण में अवश्य आश्रय लें 

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम को जन-जन तक पहुँचाने वाले लोक मंगल के महान कवि बाबा तुलसीदास जी के आत्मीय मित्र, हमारे बाबा के समस्त सांसारिक कष्टों को यथाशक्ति दूर रखने में उद्यमरत, योद्धा बैरम खाँ के पुत्र और सम्राट अकबर के नवरत्नों में सबसे प्रांजल अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना को जन्मदिवस पर प्रणाम ! जहॉं एक तरफ़ रहीम ने संस्कृत व अवधी लेखन से हिंदी पाठकों के मन में अनन्य स्थान बनाया तो वहीं जीवन का मूल मंत्र बाँचते उनके नीतिपरक दोहे अकादमिक चर्चाओं और साहित्यिक गोष्ठियों से इतर आज भी भारत की ग्रामीण चौपालों पर चर्चा और उद्धरण का विषय बने ही रहते हैं ! रहीम को लोककंठ में स्थापित करने में उनके नीति परक दोहों का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है ! आज हर सफलता का शार्ट-कट खोजती आतुर “कीबोर्ड क्रांतिकारी” युवा-पीढ़ी को उनके जन्मदिन पर उनका यह दोहा अवश्य पढ़ना चाहिए जो रहीम के रहीम होने की यात्रा का वास्तविक बीजमंत्र है





“यह “रहीम’ निज संग लै, जनमत जगत न कोय ।
बैर, प्रीति, अभ्यास, जस, होत होत ही होय ॥”


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