संस्कारविमर्श ७ ( गर्भाधान-संस्कार के बाद गर्भकी संरचना)- पारस्कर गृह्यसूत्र १काण्ड,१३कण्डिका,१ सूत्र में कहा हैं — यदि किसी कारणवश पत्नी गर्भ धारण न कर सके तो श्वेतपुष्पोंवाली कण्टकारिका-ओषधि को पुष्य नक्षत्र के साथ चन्द्रयोग होनेपर उपवास करके (उड़िद वा जौ के दानों से निमंत्रण दैकर) जड़ के साथ उखाड़ (किसी की छाया न पड़े इस तरह सफेदवस्त्र में लपैटकर घर) लाकर पुनः पत्नी के रजोदर्शन के चौथे दिन जब वह स्नान करके शुद्ध हो जाय तो रात में पानी के साथ पीसकर उसके रस की दो-चार बूँदे उसकी नाक के दाहिने छिद्र में उपनीतद्विज(अपने कुलाचार्य से अपनीशाखा का मंत्र जानकर) मंत्र पढ़ते हुएँ डालें, अनुपनीत केवल मंत्र के भाव का स्मरण करें – “( सा यदि गर्भं न दधीत सिंह्याः श्वेतपुष्प्या उपोष्य पुष्येण मूलमुत्थाप्य चतुर्थेऽहनि स्नातायां निशायामुदपेषं पिष्ट्वा दक्षिणस्यां नासिकायामासिञ्चति।। “” *मन्त्रः– इयमोषधी त्रायमाणा सहमाना सरस्वती। अस्या अहं बृहत्याः पुत्रः पितुरिव नामहो जग्रभमिति।।पारस्कर०१/१३/१)” मंत्र का भावार्थ हैं — प्रजापति,बृहती,औषधि आदि इस मंत्र के ऋष्यादि हैं , इसका विनियोग ओषधीसेचन में हैं “(ओषध्यासेचने विनियोगः।।) गर्भधारण में बाधक दोषों को हटाकर गुणों का आधान करने वाली यह काष्ठौषधि कष्ट सहन करके भी सेवन करनेवालों की रक्षा करती हैं और दोष के वेगों को नष्ट कर देतीं हैं। अनेक प्रकार के फलदेनेवाली इस वनस्पति की कृपा से जैसे मैं अपने पिता का नाम लेता हूँ, वैसे ही मेरी सन्तान भी मेरा नाम उज्ज्वल करें। गदाधरभाष्यकार ने गर्गपद्धति में इस प्रसंग का उल्लेख करते हुए कहा हैं , कि पत्नी की नाक में यह औषधि ड़ालने के बाद ही पति भोजन करें — ” (ततो भर्त्रा भोजनं कार्यमिति गर्गपद्धतौ।। गदाधरः।।)” इस प्रकार ओषधिसेचन कर्म के अनन्तर पुनः उक्त मुर्हूतकाल में “गर्भाधान प्रधान रात्रिकालिक क्रियाओं को पुनः पुनः दोहराते हुएँ)” स्त्रीगमन करें। दैव की प्रेरणा से कर्मानुरोधी शरीर प्राप्त करने के लिये जीव पुरुष के वीर्यकण का आश्रय लेकर स्त्री के उदर में प्रविष्ट होता हैं, एकरात्रि में वह शुक्राणु कलल के रूप में पाँच रात्रि में बुदबुद् के रूप में, दसदिन में बैर के समान उसके पश्चात् दमांसपेशियों से युक्त अण्डाकार हो जाता हैं, (आयुर्वेद के ग्रन्थों में कहा हैं कि प्रथम मास में अव्यक्त अर्थात् स्त्रीभ्रूण या पुरुषभ्रूण हैं इसको व्यक्त नहीं कर सकतें, इसलिये इसी मास में स्त्रीत्व अथवा पुंस्त्व की अभिव्यक्ति के लिये पूर्व ही पुंसवन विधि का प्रयोग करें ।। अष्टांग हृदय शारीरस्थान ३७।। पारस्कर गृह्यसूत्र में गदाधर ने भाष्य में हेमाद्री में यम के वचन से भी प्रथममास को माना हैं, पारस्कर-गृह्यसूत्रकार दूसरे ,तीसरे अथवा गर्भ में बच्चा कुछ कुछ हिलने-डुलने लगे तब पुंन्नक्षत्र आदि उचित मुर्हूतों में कहा हैं, इसकी क्रमशः चर्चा अग्रिम पुंसवनसंस्कार के लेख में करेंगे)” गर्भ के दो मास में बाहु आदि शरीर के सभी अङ्ग, तीसरे मास में नख,सोम,अस्थि,चर्म तथा लिङ्गबोधक चिन्ह उत्पन्न होतें हैं, चौथे मास में रस,रक्त,मांस,मेद,अस्थि,मज्जा और शुक्र -ये सात धातुएँ, (आयुर्वेदिक ग्रन्थों के अनुसार गर्भ नाना प्रकार की वस्तुओं की इच्छा करता हैं और इसीलिये नारी दो हृदयोंवाली “दौहृदिनी” मानी जाती हैं। तत्कालीन विशिष्ट प्रकार की इच्छा या अभिलाषा का नाम दौहृद या दोहद हैं। उक्त दोहद की इच्छा पूर्ण न होने से गर्भपर बुरा प्रभाव पड़ता हैं।अतः उन दिनों गर्भवती जिन-जिन विहित पदार्थों का उपभोग करना चाहे, यथाशक्ति उपलब्ध कराना चाहिये।)” पाँचवें मास में भूख-प्यास पैदा होती हैं। छठे मास में जरायु में लिपटा हुआ वह जीव विष्ठा,मूत्र के दुर्गन्धयुक्त गड्डे अर्थात् गर्भाशय में सोता हैं। वहाँ गर्भस्थ क्षुधित कृमियों के द्वारा उसके सुकुमार अङ्ग-प्रत्यङ्ग प्रतिक्षण बार-बार काटे जाते हैं, जिससे अत्यधिक क्लेश होने के कारण वह जीव मूर्च्छित हो जाता हैं, माता के द्वारा खाएँ हुएँ षड्रस पदार्थों के अति-उद्वेजक संस्पर्श से उसे समूचे अहं में वेदना होती हैं और जरायु से लिपटा हुआ वह जीव आँतो द्वारा बाहर से ढका रहता हैं (गरुडपुराण सारोद्धार ६/७—११) सातवें मास में जीव से संयुक्त और आठवे मास में सर्वलक्षण सम्पन्न होता हैं (गर्भोपनिषद् ३)। माता से गर्भ में और गर्भ से माता में ओज का संचार होता रहता हैं। अतः वे दोनों बार-बार म्लान(अप्रसन्न)एवं मुदित(प्रसन्न)होते रहतें हैं और इसीलिये आठवें मास में जन्मा बच्चा अरिष्टयोग से सम्पन्न होता हैं;क्योंकि ओज स्थिर नहीं होता। कौमारभृत्य(बालतन्त्र)का मत हैं कि वह बच्चा “नैर्ऋत्य नामक बालग्रह का भाग होता हैं,इसलिये नहीं जीता, तथापि शीघ्र उक्त ग्रह की शान्ति के लिये शास्त्रविधा से उपाय करना चाहिये – बालतन्त्र में लिखा हैं कि भगवान् रुद्र ने आठवें मासमें जन्में बच्चे नैऋत्य नामक ग्रहको दे दिये थे। अतः इस मास में उक्त बालग्रह के निमित्त सदीप विधापूर्वक भात की बलि देनी चाहिये। आगे गरुडपुराण में कहा कि – सातवें महिने से भगवान् की कृपासे अपनें सैकड़ो जन्मों के कर्मों को स्मरण करता हुआ वह गर्भस्थ जीव लम्बी श्वास लेता हैं, ऐसी स्थिति में भला उसे कौनसा सुख प्राप्त हो सकता हैं ? माँस-मज्जा आदि सातधातुओं के आवरण में आवृत्त वह ऋषिकल्प जीव भयभीत होकर हाथ जोड़कर विकलवाणी से उन (विष्णु)भगवान् की स्तुति करता हैं। सातवें महीने के आरम्भ से ही सभी जन्मों के कर्मों का ज्ञान हो जानेपर भी गर्भस्थ जीव प्रसूति वायु के द्वारा चालित होकर वह उसी पेट में विष्टा में उत्पन्न अन्य कीड़े की भाँति एक स्थानपर ठहर नहीं पाता। जीव भगवान् की स्तुति करता हैं । मैं लक्ष्मी के पति जगत् के आधार, अशुभ का नाश करनेवाले तथा शरण में आयें हुए जीवों के प्रति वात्सल्य रखनेवाले भगवान् विष्णु की शरण में जाता हूँ। हे नाथ ! आप की माया से मोहित होकर में देह में अहंभाव तथा पुत्र और पत्नी आदि में ममत्व भाव के अभिमान से  जन्म-मरण के चक्कर में फँसा हूँ, मैंने अपने परिजनों के उद्देश्य से शुभ और अशुभ कर्म किये किंतु अब मैं उन कर्मों के कारण अकेला जल रहा हूँ। उन कर्मों के फल भोगनेवाले पुत्र कलत्रादि अलग हो गये #एकाकी_तेन_दह्योऽहं_गतास्ते_फलभोगिनः।।गर्भोपनिषद् ३।। यदि इस गर्भ से निकलकर मैं बाहर आऊं तो फिर आपके चरणों का स्मरण करूँगा और ऐसा (स्वधर्मकर्म आश्रमों का आचरण के)उपाय करूँगा जिससे मुक्ति प्राप्त कर लूँ।*विष्ठा और मूत्र के कुएँ में गिरा हुआ तथा जठराग्नि से जलता हुआ एवं यहाँ से बहार निकलने की इच्छा करता हुआ मैं कब बाहर निकल पाऊँगा ? जिस दिन दयालु परमात्माने मुझे इस प्रकार का विशेष ज्ञान दिया हैं, मैं उन्हीं की शरण ग्रहण करता हूँ, जिससे मुझे पुनः संसार के चक्कर में न आना पड़े अथवा मैं माता के गर्भगृह से कभी भी बाहर जाने की इच्छा नहीं करता। क्योंकि बाहर जानेपर पापकर्मों से पुनः मेरी दुर्गति हो जायेगी इसलिये यहाँ बहुत दुःख की स्थिति में रहकर भी मैं खैद रहित होकर आपके चरणों का आश्रय लेकर संसार से अपना उद्धार कर लूँगा। इस प्रकार की बुद्धिवाले एवं स्मृति करते हुए दस मास के ऋषिकल्प उस जीव को प्रसूति वायु प्रसव के लिये तुरंत नीचे की ओर ढकेलता हैं, कर्मविपाकों से पुनः पुनः जन्म मरण को प्राप्त करने जन्म लेना और मनुष्यत्व को, द्विजत्व को उचितप्रकार के आचरण से सार्थक न करने की मोहवश चेष्टा करतें रहना ही अधोगति हैं, भगवान् आदि शंकराचार्यजी ने भी चर्पटपञ्जरिका में गाया हैं –> “(पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननि जठरे शयनम्। इह संसारे खलु दुस्तारे कृपया पारे पाहि मुरारे ! )” प्रसूति मार्ग के द्वारा नीचे सिर करके सहसा गिराया गया वह आतुरजीव अत्यन्त कठिनाई से बाहर निकलता हैं और उस समय वह श्वास नहीं ले पाता हैं तथा उसकी पूर्व स्मृति भी नष्ट हो जाती हैं, पृथ्वीपर विष्टा और मूत्र के बीच गिरा हुआ वह जीव मल में उत्पन्न कीड़ें के भाँति चेष्टा करता हैं और विपरित गति प्राप्त करके ज्ञान नष्ट हो जाने के कारण अत्यधिक रुदन करने लगता हैं। गर्भ में, रुग्णावस्था में , श्मशान भूमि में तथा पुराण के पारायण ज्ञान श्रवण के समय जैसी बुद्धि होती हैं, वह यदि स्थिर हो जाय तो कौन व्यक्ति सांसारिक बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता ? कर्मभोग के अनन्तर जीव गर्भ से बाहर आता हैं तब उसी समय “वैष्णवी माया उस को मोहित कर देती हैं — ” (महामाया हरेश्चैषा तया सम्मोह्यते जगत्। ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा बलादाकृष्य मोहमाय महामाया प्रयच्छति।। मार्कण्डेय पुराण।।)” उस समय माया के स्पर्श से वह जीव विवश होकर कुछ बोल नहीं पाता, प्रस्तुत शैशवादि अवस्थाओ में होनेवालें दुःखों को पराधीन भाँति भोगता हैं। इस प्रकार गर्भसंरचनादि विषय — गर्भोपनिषद् , चरक संहिता-शरीरस्थान, सुश्रुत संहिता, गरुडपुराण ,श्रीमद्भागवत आदि पुराणों में वर्णन प्राप्त होता हैं। गुरुड़पुराण सारोद्धार के अध्याय ६ श्लोक १६ से २९ श्लोकों में जीवस्तुति वर्णित हैं, इस के श्लोंकों का गान सातवें महिने से गर्भवती स्त्री को करना या श्रवण करना चाहिये, यह स्तुति गर्भकाल में तो सही अपितु हम सभी को भी प्रतिदिन मननीय हैं आईएँ उस “जीवस्तुति” का पंद्रह श्लोंको का अंतःकरण से स्तवन करें —> #गरुडपुराणान्तर्गत_जीवस्तुतिः – जीव उवाच – श्री पतिं जगदाधारमशुभक्षयकारकम्। व्रजामि शरणं विष्णुं शरणागतवत्सलम्।।त्वन्मायामोहितो देहे तथा पुत्रकलत्रके। अहं ममाभिमानेन गतोऽहं नाथ संसृतिम्।। कृतं परिजनस्यार्थे मया कर्म शुभाशुभम्। एकाकी तेन दग्धोऽहं गतास्ते फलभागिनः।। यदि योन्याः प्रमुच्येऽहं तत् समरिष्ये पदं तव। तमुपायं करिष्यामि येन मुक्तिं व्रजाम्यहम्।। विण्मूत्रकूपे पतितो दग्धोऽहं जठराग्निना । इच्छन्नितो विवसितुं कदा निर्यास्यते बहिः।। येनेदृशं मे विज्ञानं दत्तं दीनदयालुना। तमेव शरणं यानि पुनर्मे माऽस्तु संसृतिः।। न च निर्गन्तुमिच्छामि बहिर्गर्भात्कदाचन । यत्र यातस्य मे पापकर्मणा दुर्गतिर्भवेत्।। तस्मादत्र महद्दुःखे स्थितोऽपि विगतक्लमः। उद्धरिष्यामि संसारादात्मानं ते पदाश्रयः।।श्री भगवानुवाच – एवं कृतमतिर्गर्भे दशमास्यः स्तुवन्नृषिः। सद्यः क्षिपत्यवाचीनं प्रसूत्यै सूतिमारुतः।। तेनावसृष्टः सहसा कृत्वाऽवाक्शिर आतुरः। विनिष्क्रामति कृच्छ्रेण निरुच्छवासो हतस्मृतिः।। पतितो भुवि विण्मूत्रे विष्ठाभूरिव चेष्टते। रोरूयति गते ज्ञाने विपरीतां गतिं गतः।। गर्भे व्याधौ श्मशाने च पुराणे या मतिर्भवेत्। सा यदि स्थिरतां याति को न मुच्येत बन्धनात्।। यदा गर्भाद् बहिर्याति कर्मभोगादनन्तरम्। तदेव वैष्णवी माया मोहयत्येव पूरुषम्।।स तदा माया स्पृष्टो न किञ्चिद्वदतेऽवशः। शैशवादिभवं दुःखं पराधीनतयाऽश्नुते।। गरुडपुराण सारोद्धार ६/१६-२९।।)” दैवज्ञ वराहमिहिर ने बृहज्जातक में गर्भस्थिति के मास के अधिपति बताये हैं – प्रथम मास का शुक्र, द्वितीय का मंगल, तृतीय का गुरु, चौथे का सूर्य, पाँचवे का चन्द्र, छठे का शनि और बुध होतें हैं। बाद इसके अष्टम मासका गर्भकालिक लग्नेश या माता का जन्मलग्नेश , नवममास का चन्द्र,दशम मास के स्वामी सूर्य होतें हैं। मासों के अधिपति के शुभाशुभत्व से गर्भ के शुभ या अशुभ फल होता हैं। अर्थात् जिस मास का स्वामी बली हो उस मास में गर्भवती को सुख, जिस मास का स्वामी निर्बल हो उस में क्लेश होता हैं —->> “( क्रमशः सित कुज जीव सूर्य चन्द्रार्कि-बुधाः परतः (सप्तमासतः पश्चात्)उदयपचन्द्रसूर्यनाथाः, गदिताः। शुभाशुभं फलं च मासाधिपतेः सदृशं भवति।। बृहज्जातक ४/१६ टीका।।)” इसलिये गर्भवती को पीड़ा न हो और गर्भसुरक्षित रहने के आशय से भी ज्योतिष के मार्ग से जिस मासों में मासाधिप बली न होने की संभावना हो उस ग्रह के जप,होम आदि शांत्युपायों को आचरना चाहिये। और गर्भरक्षण स्तोत्र में कहे एक एक मंत्र से अर्थात् पहिले मास में पहिला दूसरे मास में दूसरे मंत्र आदि से भगवान् विष्णु की यथाधिकार पूजन करके वटपत्रपर भात की बलि देनी चाहिये – गर्भरक्षणस्तोत्