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मानव जाति ने वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के माध्यम से बहुत कुछ हासिल किया है। उसके जीवन का शायद ही कोई ऐसा पक्ष हो जो आधुनिक विज्ञान और तकनीक से प्रभावित न हो। मनुष्य ने बहुत कुछ रचा, निर्माण और रूपांतरण किया। पर इतना शक्तिशाली होने के बावजूद अपने जीवन की बहुत-सी समस्याएं वह हल नहीं कर पाया। समुद्र, धरती से लेकर अंतरिक्ष में तमाम उपलब्धियां हासिल करने के बाद भी आज सांस लेने के लिए न तो शुद्ध हवा है और न पीने के लिए साफ पानी उपलब्ध है। हमारे खाद्य पदार्थ भी प्रदूषित हो चुके हैं। उसमें ऐसे जहरीले कीटनाशक और रसायन प्रवेश कर चुके हैं जो हमारे स्वास्थ्य के लिए घातक साबित हो रहे हैं। दरअसल, आधुनिक विकास के जिस रास्ते पर दुनिया चल रही है, वह वास्तव में विनाश का रास्ता साबित हो रहा है।
प्रकृति को जीतने के प्रयास में मनुष्य ने अपने जीवन की स्वाभाविक बुनियाद को काफी हद तक बिगाड़ दिया है। वैज्ञानिक-तकनीकी प्रगति के विस्तार और विश्व में औद्योगिक उत्पादन की तीव्र वृद्धि के फलस्वरूप समाज और प्रकृति, मानव और उसके रहने के परिवेश की अन्योन्याश्रय क्रिया बढ़ कर चरम सीमा तक पहुंच गई। प्राकृतिक निधियों के नि:शेष होने और पर्यावरण प्रदूषण के कारण मानवजाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। यह ठीक है कि मानव जाति के विकास में कई सुफल और आशाजनक लक्षण दिखे हैं। बच्चों की मृत्यु-दर घट रही है, औसत आयु बढ़ रही है। सब देशों में लिखना-पढ़ना, जानने वाले लोगों और स्कूली बच्चों की संख्या में वृद्धि हो रही है। एक रिपोर्ट के मुताबिक कि इतने आशापूर्ण परिणाम संभव बनाने वाली प्रक्रियाओं ने ऐसी प्रवृत्ति को भी जन्म दिया, जिसके प्रभाव को न तो हमारा ग्रह दीर्घ समय तक सहन कर पाएगा, न उसकी आबादी।
पर्यावरण में खतरनाक परिघटनाएं गोचर हो रही हैं, जो पृथ्वी की शक्ल-सूरत को बदल सकती हैं और पशु जगत की अनेक जातियों और खुद मनुष्य के अस्तित्व को खतरे में डाल सकती हैं। प्रति वर्ष साठ लाख हेक्टेयर खेती योग्य भूमि बेकार की मरुभूमि में परिवर्तित हो जाती है। ऊसर बनी ऐसी जमीन का क्षेत्रफल तीस साल में लगभग सऊदी अरब के क्षेत्रफल के बराबर हो जाएगा। प्रति वर्ष 110 लाख से अधिक हेक्टेयर वन उजाड़ दिए जाते हैं। अधिकांश जमीन जहां पहले वन उगते थे, ऐसी निम्न कोटि की कृषि भूमि में परिवर्तित हो जाती है, जो यहां रहने वाले खेतिहरों को भी पर्याप्त खाना दिलाने में असमर्थ है। खनिज ईंधन के जलाने के फलस्वरूप कार्बनडाई -आक्साईड में उत्सर्जित हो जाता है, जिससे समूचे विश्व का पर्यावरण धीरे-धीरे गरम हो रहा है। दुनिया के कई इलाकों में भयंकर तूफान, बारिश, बाढ़, प्रलय के नजारे दिख रहे हैं। शताब्दी के अंत तक औसत भौगोलिक तापमान इतना बढ़ेगा कि कृषि क्षेत्र में बुनियादी परिवर्तन आ जाएंगे। धु्रवीय प्रदेशों के हिम-खंडों के पिघलने के कारण सागरों की सतह ऊंची हो जाएगी और तटवर्ती नगर जलमग्न हो जाएंगे। बिना अपवाद के सभी देशों की अर्थव्यवस्था को बड़ा नुकसान पहुंचेगा। उद्योगजन्य गैसें पृथ्वी की ओजोन परत को इतनी हानि पहुंचा सकती हैं कि कैंसरग्रस्त लोगों और पशुओं की तादाद तेजी से बढ़ जाएगी। उद्योग से निस्तारित जहरीले पदार्थ अधिकाधिक मात्रा में खाद्यान्नों में प्रवेश कर जाएंगे और भूमिगत पानी को भी इतना विषाक्त कर देंगे कि उसकी सफाई करके भी वह स्वच्छ नहीं हो सकेगा।
पिछले सौ वर्ष में मानव जाति ने ऊर्जा खपत को हजार गुना बढ़ा दिया। विकसित देशों में हर पंद्रह साल में मालों और सेवाओं का कुल आयाम दोगुना हो जाता है और फलस्वरूप आर्थिक कार्यकलाप से उत्पन्न अपशिष्ट भी इसी अनुपात में बढ़ते हुए वायुमंडल, जलाशयों और मिट्टी को खराब कर देते हैं। विकसित देशों में प्रति निवासी प्रति वर्ष लगभग तीस टन खनिज निकाला जाता है, जिनमें से सिर्फ एक या डेढ़ प्रतिशत का उपभोग होता है। बाकी हिस्सा रद्दी चीजें बन कर अधिकतर मामलों में प्रकृति के लिए हानिकर साबित होता है। अम्लीय वर्षा मानवजाति के लिए सचमुच घोर विपदा बन गई है। जलाशयों में पड़ कर वह मछली से लेकर कीटाणु और वनस्पति तक मार डालती है। ऐसी वर्षा उस सबके लिए भी घातक है जो मानव ने बनाया है या बना रहा है। वह इमारत हो, पाइप लाइन या मोटरकार। इस प्रदूषण के स्रोत हैं ताप बिजलीघर, कारखानों के बॉयलर-घर और मोटरगाड़ियां। उनके द्वारा छोड़े गए पदार्थ पानी के साथ रासायनिक क्रिया के बाद गंधक और शोरे के तेजाब में बदल कर बारिश, बर्फ या कोहरे के रूप में गिरते हैं और कभी-कभी अपने स्रोत से सैकड़ों किलोमीटर दूर जाकर भी। अम्लीय वर्षा से वन और जलाशय ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक स्मारक भी बर्बाद होते हैं। रोम और दूसरी यूरोपीय राजधानियों में अतीत के महान सृजनकारों द्वारा बनाए गए बहुत से स्मारक, मूर्तियां और वास्तुशिल्प पिछले 10-20 साल में विषाक्त वर्षा आदि से बुरी तरह प्रभावित होकर खराब हो गए।
पिछले पांच सौ साल के दौरान मनुष्य की गतिविधियों के चलते ही धरती पर उगने वाले दो-तिहाई वन हमारे ग्रह के फेफड़े और जंगली पशुओं के रहने के स्थान नष्ट हुए। पारिस्थतिकी समस्या के तीव्र होने के संबंध में कुछ पश्चिमी विचारक आसन्न विश्यव्यापी संकट की लगातार चर्चा करते हैं, जो बिना भेदभाव के सभी देशों पर समान रूप से प्रभाव डालता है। लेकिन वे इस संकट का कारण सिर्फ औद्योगिक उत्पादन के विस्तार, वैज्ञानिक तकनीकी क्रांति, खासतौर पर मनुष्य और प्रकृति के परस्पर संबंधों के तकनीकी पक्ष ही समझते हैं। दरअसल, वैज्ञानिक तकनीकी क्रांति जिन चंद दशकों में हुई है, उस दौरान उत्पादक शक्तियों की अभूतपूर्व वृद्धि ही नहीं हुई, बल्कि पारिस्थितिकी समस्या में भी उतनी ही तेजी से बढ़ोतरी हुई है। आज यह गंभीर प्रश्न है कि क्या प्रकृति मनुष्य की गतिविधियों के परिणामों का सामना करने में सक्षम है? साथ ही एक और प्रश्न यह है कि क्या इस सबकी दोषी वैज्ञानिक-तकनीकी प्रगति है, जिसकी उपलब्धियों के उपयोग से पर्यावरण खराब होता है, प्राकृतिक निधि का ह्रास और मनुष्य के अस्तित्व की परिस्थितियां बदल जाती हैं?
मनुष्य का जीवन और विकास एक निश्चित परिवेश, उसके साथ क्रियाशील प्रकृति के एक हिस्से के भीतर होते रहते हैं। मानव जाति विराट मात्रा में बढ़ते तकनीकी साधनों के माध्यम से प्राकृतिक भंडारों को तेजी से खर्च करके अपनी सभ्यता के विकास की परिस्थितियों को निरंतर सुधारती आ रही है। पर कई समस्याएं विकराल रूप धारण करती जा रही हैं। आज भी करोड़ों लोग रोगग्रस्त होकर या भुखमरी की मौत मरते हैं। सबसे धनवान और समृद्ध देशों तक में बहुत सारे लोग आवास के अभाव, शिक्षा, नौकरी और मामूली चिकित्सकीय सहायता, बुढ़ापे में शरण पाने और मानवोचित जीवन जीने की समस्या से जूझ रहे हैं। दूसरी ओर, पृथ्वी पर नाभिकीय अस्त्रों सहित कई विनाशकारी हथियार बनाए गए हैं और उनका परिष्कार हो रहा है। हथियारों को अंतरिक्ष में लगाने जैसी भयानक योजनाएं भी चल रही हैं। प्रयोगशालाओं के सन्नाटे में ऐसे रासायनिक और जैविक अस्त्रों को चुपके-चुपके तैयार किया जा रहा है, जिनके मुकाबले में व्यापक तबाही मचाने वाली प्लेग या हैजा जैसी बीमारियां मामूली लगती हैं। दुनिया के कभी एक तो कभी दूसरे इलाके में युद्ध जारी है और इसके सर्वव्यापी बन जाने का खतरा है। इस खतरे से बचाव तभी संभव है जब सारी मानव जाति उठ खड़ी हो और पर्यावरण की रक्षा करना हर व्यक्ति का दायित्व बन जाए।.
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