धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां
वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तासपत्रयोन्मूलनम्।
श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्वरः
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात्।।
श्रीमद्भागवत 1/1/2
संस्कृत व्याख्या-
अधिकारिविषयफलान्युच्यन्ते धर्म इति। प्रोज्झितकैतवः फलानपेक्षया। ईश्वरार्पणेन परमः। ‘तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम्। अजातशत्रवः शान्ताः साधवः साधुभूषणाः। मय्यनन्येन भावेन भक्तिं कुर्वन्ति ये दृढाम्’ इत्यादि सतां लक्षणम्।
सतां च मात्सर्यमर्जुनस्य एकलव्य इव कुत्रचिदृश्यते। तद्वर्जनीयमुत्तमेषु ज्ञानार्थिना। महासंहितायां च ‘उत्तमे स्वात्मनो नित्यं मात्सर्यं परिवर्जयेत्। कुरुते यत्र मात्सर्यं तत्तत्तस्य विहीयते’ इति। नित्यनिरस्तदोषपूर्णगुणं वास्तवम्। नित्यसंहितायां च– ‘निरस्ताखिलदोषं यदानन्दादिमहागुणम्। सर्वदा परमं ब्रह्मतस्माद्वास्तवमीयते’ इति। वस्तु अप्रतिहतं नित्यम् च। स्कान्दे च – ‘वसनाद्वासनाद्वस्तु नित्याप्रतिहतं यतः। वासेनेदं यतस्तुन्नमतस्तद्बह्म शब्द्यते’ इति। किं वा परैः अर्थकामादिकथनैः। गारुडे च – ‘धर्मार्थकाममोक्षणामेकमेव पदं यतः।
अवरोधो हृधीशस्य पृथग्वक्ष्ये न तानहम्’ इति। सद्यः शब्दः आपेक्षिक इति तत् क्षणादिति। न चा सम्पूर्णाधिकारिणां तत् क्षणादवरुध्यत इति सद्यः शब्दः। अधिकारिविषयफलानां स्मरणात् फलाधिक्यं भवति। वामने च – ‘अधिकारं फलं चैव प्रतिपाद्यं च वस्तुयत्। स्मृत्वा प्रारभतो ग्रन्थं करोतीशो महत्फलम्’ इति।
हिन्दी व्याख्या-
“महामुनि व्यासवेद के द्वारा निर्मित श्रीमद्भागवतमहापुराण में मोक्षपर्यन्त फल से रहित परम धर्म का निरूपण हुआ है। इसमें शुद्धान्त:करण सत्पुरुषों के जाननेयोग्य उस वास्तविक वस्तु परमात्मा का निरूपण हुआ है, जो तीनों तापों का जड़ से नाश करनेवाली और परम कल्याण देनेवाली है, फिर अब और किसी साधन या शास्त्र से क्या प्रयोजन। जिस समय भी पुण्यात्मा पुरुष इसके श्रवण की इच्छा करते हैं, ईश्वर उसी समय अविलम्ब उनके हृदय में आकर विराजमान (बन्दी) हो जाता है ।”
भावार्थ- यह भागवत पुराण, भौतिक कारणों से प्रेरित होने वाले समस्त धार्मिक कृत्यों को पूर्ण रूप से बहिष्कृत करते हुए, सर्वोच्च सत्य का प्रतिपादन करता है, जो पूर्ण रूप से शुद्ध हृदय वाले भक्तों के लिए बोधगम्य है। यह सर्वोच्च सत्य वास्तविकता है जो माया से पृथक् होते हुए सभी के कल्याण के लिए है। ऐसा सत्य तीनों प्रकार के सन्तापों (आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक) को समूल नष्ट करने वाला है। महामुनि व्यासदेव द्वारा (अपनी परिपक्वावस्था में) संकलित यह सौन्दर्यपूर्ण भागवत ईश्वर-साक्षात्कार के लिए अपने आप में पर्याप्त है। तो फिर अन्य किसी आशा की क्या आवश्यकता है? जैसे-जैसे कोई ध्यानपूर्वक तथा विनीत भाव से भागवत के सन्देश को सुनता है, वैसे-वैसे ज्ञान के इस संस्कार (अनुशीलन) से उसके हृदय में परमेश्वर स्थापित हो जाते हैं।
महामुनि व्यास जी द्वारा प्रकट किये हुए श्रीमद्भागवत जी में परमधर्म का निर्णय हुआ है। परमधर्म है क्या? तो वहाँ वेदव्यास जी कहते हैं – प्रोज्झित्कैतवः अर्थात् जहाँ कैतव (कपट) नहीं है या किसी प्रकारका कपट नहीं है। परन्तु श्रीधराचार्य जी इसकी टीका करते हुए कहते हैं – ‘प्रशब्देन मोक्षाभिसन्धिरपि निरस्तः’ (श्रीधरी टीका, 1/1/2) – अर्थात् ‘प्र’ उपसर्ग के बल से यहाँ मोक्ष की अभिसन्धि भी समाप्त कर दी गई है, अर्थात् ऐसा भगवद्भजन या भगवत्प्रेम जहाँ व्यक्ति मोक्ष को भी नहीं चाहता। यही है परमधर्म का निर्णय। कुछ अज्ञानी लोग तीनों काण्डोंको मिलाकर एकत्वकी बात करते हैं। ज्ञानी और कर्मकाण्डी अपने-अपने अनुसार अर्थ को खींचकर अनर्थ की व्याख्या करते रहते हैं। यह भागवत में संदेह हो जाता है, अत एव श्रीधराचार्य जी ने इस परमहंससंहिता में प्रसिद्ध टीका भावार्थदीपिका का विस्तार किया और छहों दर्शनों अर्थात् सांख्य, योग, वैशेषिक, न्याय, पूर्वमीमांसा, और उत्तरमीमांसा से अविरुद्ध वेदसम्मत सिद्धान्त का विचार किया। श्रीधराचार्य के सद्गुरुदेव भगवान् परमानन्द जी महाराज के प्रसादसे स्वयं भगवान् विन्दुमाधव ने अपने करकमल से इस टीका को सुधारा और हस्ताक्षर किया। इस प्रकार श्रीधराचार्य जी ने भावार्थदीपिका अथवा श्रीधरी नामक टीका लिखकर परमधर्म का निर्णय किया।
भागवत में कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड, ज्ञानकाण्ड सब की विशेषता बतायी गयी है। और इसमें जो धर्म बताया गया है, ‘धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमः’- उसकी विशेषता यह है कि उसमें जरा भी छल-कपट नहीं है। वह परम धर्म है।
‘श्रीमद्भागवते महामुनिकृते’ यह भागवत महामुनिकृत-महामुनि द्वारा रचा गया है। महामुनि का तात्पर्य है वेदव्यास जी। लेकिन ध्यान दें – महामुनि वेदव्यास जी तो स्वयं नारायण भगवान् ही हैं। क्योंकि यह ज्ञान की परम्परा नारायण भगवान् से ही प्रारम्भ हुई है।
“कृष्णं नारायणं वन्दे कृष्णं वन्दे व्रजप्रियम्।
कृष्णं द्वैपायनं वन्दे कृष्णं वन्दे पृथासुतम्।।”
अर्थात् कृष्ण ही नारायण भगवान् हैं। कृष्ण ही व्रजप्रिय, कृष्ण ही द्वैपायन व्यास हैं और कृष्ण ही अर्जुन हैं। सब-के-सब कृष्ण ही हैं।
जगत् में बहुत सारे उपाय कहे गए हैं परमात्मा को हृदय में पकड़ने के लिए। परन्तु अन्य साधनों से परमात्मा पकड़ में आयेगा कि नहीं इसमें शंका है। लेकिन भागवत की विशेषता यह है कि ‘सद्यो हृ़द्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः सुश्रूषुभि’ श्रवणमात्र से भगवान् अपने आप हृदय में प्रकट हो जाते हैं। ‘तत्क्षणात्’ उसी क्षण प्रकट हो जाते हैं, उसमें देर नहीं लगती। यहाँ पर ‘अत्र’ शब्द का कितनी बार प्रयोग किया है।’ धर्मः प्रोज्झित अत्र‘, ‘वेद्यं वास्तवं अत्र’, ‘सद्यो हृद्यवरुध्यते अत्र’। तो इसका भाव क्या है? अत्रैव, केवल यहीं पर परमधर्म का निरूपण किया गया है, यहाँ परमवस्तु का जिस प्रकार बोध कराया गया है, वैसा और कहीं नहीं कराया गया है। सत्यं परम् धीमहि।
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