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देहेऽस्थिमांसरुधिरेऽभिमतिं त्यज त्वं
जाया सुतादिषु सदा ममतां विमुञ्च।
पश्यानिशं जगदिदं क्षणभंगनिष्ठं,
वैराग्य राग रसिको भव भक्ति निष्ठः।।७९।।
धर्मं भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान्,
सेवस्व साधु पुरुषां जहि कामतृष्णाम्।
अन्यस्यदोषगुण चिन्तनमाशु मुक्त्वा,
सेवा कथा रसमहो नितरां पिबत्वम्।।८०।।
एवं सुतोक्तिवशतोऽपि गृहं विहाय,
यातो वनं स्थिरमतिर्गतषष्ठिवर्षः।
युक्तो हरेरनुदिनं परिचर्ययासौ
श्रीकृष्णमाप नियतं दशमस्य पाठात्।।८१।।
गोकर्णजी ने कहा- (हे तात)हाड़ मांस के इस शरीर में में आसक्ति का त्याग एवं पत्नी पुत्र परिवार इत्यादि में ममता का त्याग करें। इस संसार को रात-दिन क्षणभंगुर देखें, एकमात्र वैराग्य रस के रसिक होकर भगवान् की भक्ति में निमग्न हो जायं।भगवद्भजन ही सबसे बड़ा धर्म है,निरंतर उसी का आश्रय लिये रहें, अन्य सभी प्रकार के लौकिक धर्मों से मुख मोड़ लें।सदा साधुजनों की सेवा करें। भोगों की लालसा का त्याग कर दें तथा तुरंत दूसरों के गुण दोष सोंचना छोड़ कर एकमात्र भगवान् की सेवा, भक्ति एवं उनके कथामृत का रसपान करें। इस प्रकार पुत्र के उपदेश से प्रभावित होकर आत्मदेव ने घर छोड़कर वन में जाकर,साठ वर्ष की आयु होने के बाद भी दृढ़ बुद्धि होकर रात-दिन श्रीहरि की सेवा करते हुए श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध का पाठ किया जिससे उन्होंने भगवान् श्री कृष्ण को प्राप्त किया।
यह प्रसंग पद्मपुराण के उत्तर खण्ड के चतुर्थ अध्याय में श्रीमद्भागवत महापुराण के महात्म्य वर्णन के अन्तर्गत विप्रमोक्ष नाम से वर्णित है।
इसमें आत्मदेव ब्राह्मण के पुत्र धुन्धकारी के पतित -जीवन से संकटग्रस्त आत्मदेव को उनके दूसरे वैराग्यवान पुत्र गोकर्ण ने मानव जीवन की क्षणभंगुरता एवं भगवद्भक्ति का अमृत उपदेश देकर गृहत्याग एवं भगवद्भक्ति का मार्ग प्रशस्त किया जिससे उन्होंने भगवान् श्री कृष्ण को प्राप्त किया।
ऐसा प्रसंग श्रीमद्भागवत महापुराण के तृतीय स्कंध में भी आया है जब भगवान् कपिल ने अपनी माता देवहूति को सांख्य एवं भक्ति का उपदेश दिया है।
संत तुलसीदास की आसक्ति का भंजन स्वयं उनकी पत्नी ने यह कहकर किया- हाड़ मांस की देह मम,ता में ऐसी प्रीति। ऐसी जो श्रीराम में होती क्यों भवभीति।।
श्रीमद्भागवत महापुराण भारतीय वाङ्मय का मुकुटमणि है।उसमें रासरासेश्वर भगवान् श्री कृष्ण की अनुग्रह-लीला का वर्णन होने के कारण दशमस्कंध भागवत् का हृदय कहा जाता है। इसमें भगवती भक्ति मूर्तिमती होकर भक्तों को भगवान् के कृपा- कटाक्ष का अवलोकन एवं रासरसपान कराती हैं। जय श्री कृष्ण!