‘रामचरितमानस’ की शिक्षा
अनादिकाल से सृष्टि में अच्छाई बुराई चली आ रही है। देव-दानव, मानव और राक्षस होते आए हैं। आज भी समाज में राक्षस रूपी मनुष्य दिखाई दे जाते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘श्रीरामचरित मानस’ में इन राक्षसों को पहचानने का तरीका बताया है।
बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥
(राक्षस लोग जो घोर अत्याचार करते थे, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। हिंसा पर ही जिनकी प्रीति है, उनके पापों का क्या ठिकाना।)
बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥
मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥
(पराए धन और पराई स्त्री पर मन चलाने वाले, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुत बढ़ गए। लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते थे और साधुओं (की सेवा करना तो दूर रहा, उल्टे उन) से सेवा करवाते थे।)
जिन्ह के यह आचरन भवानी।
ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥
(श्री शिवजी कहते हैं कि-) हे भवानी! जिनके ऐसे आचरण हैं, उन सब प्राणियों को राक्षस ही समझना।)
अत्यंत स्पष्ट शब्दों में गोस्वामी जी ने कहा है कि हिंसा पर प्रीति रखनेवालों के पापों का क्या हिसाब?
तुलसी बाबा मानव वेष में राक्षसों के लक्षण बताते हुए कहते हैं-
(एक) दूसरे के धन को हड़पने की लालसा पालनेवाला (दो) पराई स्त्री को पाने की कामना करनेवाला
(तीन) दुष्ट यानी बुरे आचरण वाला, कुटिल, नीच
(चोर) चोर
(पाँच) जुआरी
(छह) माता-पिता, देवताओं को न माननेवाला अर्थात् उनका तिरस्कार करनेवाला
(सात) साधु पुरुषों की सेवा करना दूर उल्टे उनसे सेवा करवानेवाला
ऐसे व्यक्ति को निशाचर मानना चाहिए।
हम ऐसे मनुष्यों से सतर्क और स्वयं भी इन आचरणों से दूर रहें।
साभार  जगद्गुरु शंकराचार्य जी