वीणा-
प्राचीन काल का एक प्रसिद्ध बीन विशेष तत जातीय वाद्य है और इसका प्रचार अब तक भारत के पुराने ढंग के गवैयों में है । इसमें बीच में एक लंबा पोला दंड होता है, जिसके दोनों सिरों पर दो बड़े बड़े तूँबे लगे होते हैं और एक तूंबे से दूसरे तूँबे तक, बीच के दंड पर से होते हुए, लोहे के तीन और पीतल के चार तार लगे रहते हैं । लोहे के तार पक्के और पीतल के कच्चे कहलाते हैं । इन सातों तारों को कसने या ढीला करने के लिये सात खूँटिया रहती हैं । इन्हीं तारों को झनकारकर स्वर उत्पन्न किए जाते हैं । प्राचीन भारत के तत जाति के बाजों में वीणा सब से पुरानी ओर अच्छी मानी जाती है । कहते हैं, अनेक देवताओं के हाथ में यही वीणा रहती है । भिन्न भिन्न देवताओं आदि के हाथ में रहनेवाली वीणाओं के नाम अलग अलग हैं । जैसे,— महादेव के हाथ की वीणा लंबी, सरस्वती के हाथ की कच्छपी, नारद के हाथ की महती, विश्वावसु की वृहती और तुंबुरु के हाथ की कलावती कहलाती है । वत्सव उदयन की वीणा का नाम घोषवती या घोषा था । इसके अतिरिक्त वीणा के और भी कई भेद हैं । जैसे,—त्रितंत्री, किन्नरी, विपंची, रंजनी, शारदी, रुद्र और नादेश्वर आदि । इन सबकी आकृति आदि में भी थोड़ा बहुत अंतर रहता है । पर्या॰—वल्लकी । परिवादिनी । ध्वनिमाला । वंगमल्ली । घोषवती । कंठकूणिका ।
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