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अवन्ध्यकोपस्य निहन्तुरापदां
भवन्ति वश्याः स्वयं एव देहिनः।
अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुना
न जातहार्देन न विद्विषादरः।।(किरातार्जुनीयं 1/33)
इस जगत में लोग उसी की अधीनता स्वीकार करते हैं, जिसका क्रोध कभी व्यर्थ नही जाता है और
जो अपने सारे दुर्भाग्य व अवरोध से परे अपने लक्ष्य तक पहुंचने में समर्थ होता है,
आक्रोश शून्य व्यक्ति का आदर न तो शत्रु करते हैं न ही मित्र…