माँ #मदालसा: महर्षि #कश्यप पुत्र गंधर्वराज #विश्वावसु पुत्री..📚📚
ऋषियों ने भारतभूमि को आदिकाल से अपनी तपस्या द्वारा पुण्यभूमि बनाया है। यहां अनेक प्रकार के विद्वान ऋषि तथा विदुषियां हुई हैं, जिनके अच्छे कार्यों के लिए उन्हें सदैव याद किया जाता रहेगा। मदालसा भी एक ऐसी ही #विदुषी थीं।
प्राचीन काल में गंधर्वलोक में महर्षि कश्यप व प्राधा से उत्पन्न पुत्रों में विश्वावसु नाम के एक महाज्ञानी गंधर्वराज थे जिन्हें #चाक्षुषी विद्या में निपुणता हासिल थी। जिसे इन्होंने भगवान #सोमदेव “चंद्रमा से प्राप्त की थी और बाद में इसी चाक्षुषी विद्या को इन्होंने #चित्ररथ गंधर्व को प्रदान की थी। इस विद्या को जानने वाला तीनों लोकोंं में होनी वाली घटनाओं को भान पुर्व ही लगा लेता था। इसलिए उस कालखण्ड में गंधर्वीय शक्तियों का एक व्यापक प्रभाव था। गंधर्वराज विश्वावसु की एक सुन्दर कन्या थीं। उसका नाम था मदालसा। मदालसा, संगीत, साहित्य, कला तथ अनेक विधाओं में निपुण थीं। उसने अध्यात्म की भी शिक्षा प्राप्त की थी तथा ब्रह्म के रूप की वह प्रकांड व्याख्याता भी थीं।
उन दिनों पृथ्वी पर #पातालकेतु नाम का एक बड़ा पराक्रमी दानव रहता था। पातालकेतु दानवों का राजा था। एक दिन घूमते-घूमते पातालकेतु स्वर्ग पहुंच गया। वहां उसने विश्वावसु की कन्या मदालसा को देखा। पातालकेतु मदालसा पर मोहित हो गया। उसने छल से मदालसा का अपहरण कर लिया और अपने पाताललोक में बने हुए किले में कैद कर दिया। पातालकेतु ने मदालसा के पास विवाह का प्रस्ताव भिजवाया। मदालसा ने घृणापूर्वक पातालकेतु से विवाह करने से मना कर दिया। क्रुध्द होकर पातालकेतु ने बलपूर्वक विवाह करने का निश्चय किया। उसने विवाह का मुहुर्त भी निकलवा लिया। जैसे-जैसे विवाह की तिथि पास आती, वैसे-वैसे मदालसा की चिंता बढ़ती जाती। जिन दिनों पातालकेतु का राज था उन्हीं दिनों #गोमती नदी के किनारे जहां आज #अवध क्षेत्र है, #शत्रुजीत नाम के प्रजापालक राजा राज करते थे। उसके यज्ञों में सोमपान करके #इंद्र उस पर विशेष प्रसन्न हो गये थे। इस कारण शत्रुजित को इन्द्रिय शक्तियों से संपन्न एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम #ऋतुध्वज था। उस राजकुमार के विभिन्न वर्णों से संबंधित अनेक मित्र थे। सभी इकटठे खेलते थे।
मित्रों में #अश्वतर नागराज के दो पुत्र भी थे जो प्रतिदिन मनोविनोद क्रीड़ा इत्यादि के निमित ऋतुध्वज के पास भूतल पर आते थे। राजकुमार के बिना रसातल में वे रात भर अत्यंत व्याकुल रहते। एक दिन नागराज ने उनसे पूछा कि वे दिन-भर कहाँ रहते हैं? उनके बताने पर उनकी प्रगाढ़ मित्रता से अवगत होकर नागराज ने फिर पूछा कि उनके मित्र के लिए वे क्या कर सकते हैं। दोनों पुत्रों ने कहा “ऋतुध्वज अत्यंत संपन्न है किंतु उसका एक असाध्य कार्य अटका हुआ है। जबकि प्रजा राजकुमार को प्राणों से अधिक प्यार करती है और राजा शत्रुजीत के राज में चारों तरफ शांति भी है, फिर भी प्रजा को एक कष्ट हैं। जहां ऋषि-मुनि तपस्या करते हैं, वहां पातालकेतु और दूसरे दैत्य आकर उनकी तपस्या में बाधा पहुंचाते हैं।”
एक दिन दैत्यों की ऐसी ही परिस्थितियों से परेशान होकर गालव मुनि राजा शत्रुजीत के पास आए और कहा कि “मैं आपको एक सुन्दर श्वेत रंग का घोड़ा भेंट करना चाहता हूँ।” तत्क्षण ही एक #कुवलयाश्व नामक श्वेत रंग का घोड़ा आकाश से नीचे उतरा और आकाशवाणी हुई, कि “राजा शत्रुजित का पुत्र ऋतुध्वज घोड़े पर जाकर दैत्य को मारेगा। यह घोड़ा बिना थके आकाश, जल, पृथ्वी तीनों लोकों में वायु वेग से चल सकता है। अत: इस अश्वारोहण द्वारा राजकुमार ऋतुध्वज दुष्ट राक्षसों से पृथ्वीलोक के तपस्वियों की रक्षा करे।”
राजकुमार ऋतुध्वज घोड़े के रूप और गुणों को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। अपने पिता के आदेश अनुसार उन्होंने तपस्वियों की रक्षा का भार संभाल लिया। अपने पराक्रम से उन्होंने राक्षसों को मार भगाया। परेशान होकर राक्षस अपने राजा #पातालकेतु के पास गए। पातालकेतु स्वयं बड़ी सेना लेकर ऋतुध्वज से युध्द करने आया। राजकुमार ऋतुध्वज ने अपने बाणों की वर्षा से पातालकेतु की सेना का विनाश कर दिया। पातालकेतु डरकर युध्दक्षेत्र से भागने लगा। ऋतुध्वज भी उसका पीछे करने लगा। भागते-भागते पातालकेतु ने अपनी मायावी विद्या से सुअर का रूप धारण कर लिया। राजकुमार ऋतुध्वज उसके छल को समझ गए और उसका पीछा करना नहीं छोड़ा। सुअर भागते-भागते एक गुफा में घुस गया और वहां जाकर गायब हो गया। राजकुमार ऋतुध्वज जब उस गुफा में आगे बढ़ा तो थोड़ी दूर जाने पर उसने स्वयं को एक सुन्दर बगीचे में पाया।
वहाँ सूअर तो दिखायी नहीं दिया किंतु एक सुनसान नगर दिखायी पड़ा। एक सुंदरी व्यस्तता में तेजी से चली आ रही थी। राजकुमार उसके पीछे चल पड़ा। उसका पीछा करता हुआ राजा एक अनुपम सुंदर महल में पहुँचा वहाँ सोने के पलंग पर एक राजकुमारी बैठी थी। जिस सुंदरी को उसने पहले देखा था, वह उसकी दासी कुंडला थी। राजकुमारी का नाम मदालसा था। कुंडला ने बताया-‘मदालसा प्रसिद्ध गंधर्वराज विश्वावसु की कन्या है। #व्रजकेतु दानव का पुत्र पातालकेतु उसे हरकर यहाँ ले आया है। मदालसा के दुखी होने पर #कामधेनु ने प्रकट होकर आश्वासन दिया था कि जो राजकुमार उस दैत्य को अपने वाणों से बींध देगा, उसी से इसका विवाह होगा। ऋतुध्वज ने उस दानव को बींधा है, यह जानकर कुंडला ने अपने कुलगुरु का आवाहन किया। कुलगुरु तंबुरु ने प्रकट होकर उन दोनों का विवाह संस्कार करवाया। मदालसा की दासी कुंडला तपस्या के लिए चली गयी तथा राजकुमार मदालसा को लेकर चला अपने पिता के पास पहुँचा।
निविंध्न रुप से समस्त पृथ्वी पर घोड़े से घूमने के कारण वह कुवलयाश्व तथा घोड़ा (अश्व) #कुवलय नाम से प्रसिद्ध हुआ। पिता की आज्ञा से ऋतुध्वज प्रतिदिन प्रात: काल अपने कुवलयाश्व पर बैठकर ब्राह्मणों की रक्षा के लिए निकल जाया करता था। एक दिन वह इसी संदर्भ में एक आश्रम के निकट आ पहुँचा। वहाँ पातालकेतु का भाई #तालकेतु ब्राह्मण वेश में रह रहा था। ऋतुध्वज का अपने भाई पातालकेतु से द्वेष को स्मरण करके उसने अपने आश्रम में हो रहे यज्ञ में स्वर्णार्पण के निमित्त राजकुमार ऋतुध्वज से उसका स्वर्णहार ही मांग लिया और एक गुप्त निर्देश द्वारा दैत्यों से उस पर आक्रमण करवा दिया।
पातालकेतु का पाताललोक में स्थित मानकर ऋतुध्वज ने ब्राह्मणवेशी तालकेतु को अपने सकशल लौटने तक आश्रम की रक्षा का भार सौंपकर पास सरोवर के जल में डुबकी लगायी। जल के भीतर वह पातालकेतु के नगर में पहुँच गया। वहाँ उसने दैत्यों से युद्ध किया और इधर पातालकेतु के भाई तालकेतु ने राजकुमार की मृत्यु के झूठी खबर की पुष्टि उसके गले के स्वर्ण हार को दिखा कर की और जल के अंदर चल रहे युद्ध के समय ही शत्रुपक्षों द्वारा जानबूझ कर अफवाह फैला दिया कि राजा ऋतुध्वज मारा गया। अब कौन सी खबर सही कौन झूठ इसका निर्णय करना मुश्किल हो गया था। दानवों ने षड्यंत्र करके इस झूठी खबर को चारो ओर फैला दिया। वे लोग सब जगह यह कहते हुए घुमने लगे कि ऋतुध्वज सचमुच यूद्ध में मारे गये हैं।
रानी मदालसा बहुत चिन्तित होकर दुर राजभवन में समय काट रही थीं। यह समाचार उड़ते उड़ते उनके कानों तक भी पहुँच गया। ब्राह्मण बने तालकेतु ने तो ऋतुध्वज का झूठा अग्नि-संस्कार भी कर दिया। इधर मदालसा अपने पति के शोक में अत्यधिक उद्विग्न रहने लगीं और अन्त में शोक नहीं सह सकने के कारण अपना प्राण त्याग दिया।
मदालसा के प्राण त्यागने के बाद पातालकेतु व दैत्यों का वध कर ऋतुध्वज राजधानी में लौट आते हैं। बड़ी आशा के साथ यह आनन्द-समाचार मदालसा को सुनाने जब वे राजभवन पहुँचे, तो मदालसा के इस प्रकार प्राण त्याग देने का समाचार सुनकर एकदम मूर्छित हो गये हैं। मदालसा को याद करके उनका हृदय शोकाकुल हो गया। यूद्ध में विजय प्राप्ति से प्राप्त होने वाले आनन्द उल्ल्हास के बदले राजधानी में विषाद की काली छाया उतर आई थी। पत्नी के शोक में आहार-निद्रा का त्याग दिये, और लगभग पागलों जैसी हालत उनकी हो गयी।
उनके पड़ोसी राज्य के राजा अश्वतर नागराज ऋतुध्वज के परम मित्र थे। राजा की अवस्था को देखकर वे बड़े चिन्तित हुए। अपने मित्र का दुःख दूर करने की इच्छा से नागराज हिमालय जाकर तपस्या में लीन हो गये। इस आशा से वे तपस्या में रत हुए कि यदि उनकी तपस्या से शिवजी प्रसन्न हो गये तो शायद वे कोई उपाय निकाल देंगे और उपाय भी निकल गया। नागराज ने तपस्या से सर्वप्रथम माता #सरस्वती को प्रसन्न कर अपने तथा अपने भाई कंबल के लिए संगीतशास्त्र की निपुणता का वर प्राप्त किया तदनंतर भगवान #शिव को तपस्या से प्रसन्न कर अपने फन से मदालसा के पुनर्जन्म का वर प्राप्त किया। अश्वतर नागराज के मध्य फन से मदालसा का जन्म हुआ। इस प्रकार भगवान शिव उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर उनको दर्शन दिए और उनकी कामना को पूर्ण कर दिये। शिवजी के वरदान से मदालसा अपना पहले जैसे ही रूप और यौवन को लेकर वापस लौट आई। नागराज ने उसे गुप्त रुप से अपने रनिवास में छुपाकर रख दिया। तदनंतर अपने ब्राह्मणवेशी दोनों पुत्रों द्वारा ऋतुध्वज को आमंत्रित करवाया। ऋतुध्वज ने देखा कि दोनों ब्राह्मणवेशी नागराज पुत्रों ने पाताल लोक पहुँचकर अपना छद्मवेश त्याग दिया। उनका नाग रूप तथा नागलोक का आकर्षक रुप देख वह अत्यंत चकित हुऐ। आतिथ्योपरांत नागराज ने उससे मनवांछित फल मांगने के लिए कहा। ऋतुध्वज मौन खड़े रहे। इधर नागराज अपने रनिवास से मदालसा को स्वयं लेकर लौटे और उनको ऋतुध्वज के हाथों में सौंप दिया। किसी मृत व्यक्ति के इस प्रकार पुनः लौट आने की बात तो कल्पना से भी परे है।
ऋतुध्वज के आनन्द की सीमा नहीं थी। नागराज के उद्योग से मृत्युञ्जय शिवजी की कृपा से ऋतुध्वज को मदालसा पुनः मिल गयी। उसने अत्यंत आभार तथा प्रसन्नता के साथ अश्वतर नागराज को प्रणाम किया तथा अपने घोड़े कुवलय का आवाहन कर वह मदालसा सहित अपने माता-पिता के पास पहुँचा। पिता की मृत्यु के उपरांत उसका राज्याभिषेक हुआ और ऋतुध्वज सुखपूर्वक रहने लगे।
मदालसा से उसे चार पुत्र प्राप्त हुए। पहले तीन पुत्रों के नाम क्रमश: विक्रांत, सुबाहु तथा अरिमर्दन या शत्रुमर्दन रखा गया। मदालसा प्रत्येक बालक के नामकरण पर हंसती थी। राजा ने कारण पूछा वह बोली कि नामानुरूप गुण बालक में होने आवश्यक नहीं हैं। नाम तो मात्र चिह्न है। आत्मा का नाम भला कैसे रखा जा सकता है। मदालसा ने सभी पुत्रों को ब्रह्मज्ञान की शिक्षा दीक्षा दी।
मदालसा का अपने पुत्रों को दिया गया ब्रह्मज्ञान आज भी जगद्विख्यात है। पुत्रों को पालने में झुलाते-झुलाते इन्होंने ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया था। वे अनासक्त होकर अपने कर्तव्य का पालन करती जिसके फल स्वरुप उनके पुत्र बचपन से ही ब्रह्मज्ञानी हुए। आज भी वे एक आदर्श माँ हैं क्योंकि वैष्णव शास्त्रों में वर्णन आता हैं की पुत्र जनना उसीका सफल हुआ जिसने अपने पुत्र की मुक्ति के लिय उसे भक्ति और ज्ञान दिया।
जब मदालसा के
तीनों पुत्रों को वैराग्य हो गया और वे जंगल में तपस्या करने चले गए, तब मदालसा का चौथा पुत्र हुआ। चौथे बालक का नाम मदालसा ने ‘#अलर्क‘ रखा। मदालसा के अनुसार हर नाम उतना ही निरर्थक है जितना ‘अलर्क’ उसके पहले तीनों बेटे विरक्तप्राय थे। राजा ने मदालसा से कहा कि इस प्रकार तो उसकी वंश परंपरा ही नष्ट हो जायेगी। चौथे बालक को सांसारिक ज्ञान हेतु प्रवृत्ति मार्ग का उपदेश देना चाहिए जिससे हमारा राजपाट चल सके। ऐसा जानकर मदालसा ने अलर्क को धर्म, राजनीति व्यवहार आदि अनेक क्षेत्रों की शिक्षा दी। मदालसा की शिक्षा से वह बहुत ही शूरवीर, पराक्रमी राजा हुआ। कुछ समय बाद राजा ऋतुध्वज अपनी पत्नी मदालसा के साथ अलर्क को राजपाट सौंपकर जंगल में तपस्या करने चले गए। इस प्रकार यह रानी मदालसा की ही शिक्षा थी कि जिससे सुबाहु, विक्रांत और शत्रुमर्दन जैसे ब्रह्मज्ञानी और अलर्क जैसे प्रतापी राजा हुए। मदालसा भारत की एक गुणवान धर्मरक्षिणी गौरवमयी नारी थीं।
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माँ मदालसा द्वारा नैतिक जगत निर्माण:
आज विश्व में जिस तरह की संतान का निर्माण हो रहा है, यह तो सर्वविदित ही है । आज संसार भौतिकता के चरम उत्कर्ष की ओर अँधा होकर बिना सोच विचार कर दौड़ता ही जा रहा है । मानव को सुख पहुँचाने के लिए नित्य नए-नए आविष्कार हो रहे हैं । यह सत्य है की भौतिक उन्नति कर मानव ने आज अपने लिए सब प्रकार के अत्याधुनिक सुख साधनों का संग्रह कर लिया है । आज धरती तो क्या चन्द्र और मंगल तक की दूरी को कुछ घंटों में ही तय कर लिया गया है । जिन साधनों की व सुख सुविधओं की कल्पना हम पहले केवल स्वपनों में ही करते थे, वो सब सुख सुविधाएँ व साधन और उससे भी अधिक बहुत कुछ हमारे लिए सुगमता से उपलब्ध है ।
परन्तु यह भी सत्य है की इतनी सुख सुविधाओं के होते हुए भी आज मानव जाति सर्वत्र दुखी और अशांत ही नजर आती है । आज जिसके पास जो नहीं है उसी को पाने के लिए मानव जूझ रहा है । किसी के पास तो सुख सुविधाओं के सभी साधन उपलब्ध हैं , किसी के पास कुछ सीमित मात्रा में हैं और कोई तो आभाव ग्रस्त जीवन ही व्यतीत कर रहा है ।
आज मानव आधुनिकता और भौतिकता के इस युग में, समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए जिन मानवीय मूल्यों की आवश्यकता होती है, उन मूल्यों को, नैतिकता को, मानवता को, बंधुत्व को सर्वथा भूल ही गया है। जिसके फलस्वरूप संसार में समानता के स्थान पर असमानता के युग का आरम्भ हो गया है और संसार में फैली इन असमानताओं के कारण ही समाज में अत्याचार, लूट-खसोट, चोरी-जारी, अपहरण , भ्रष्टाचार व बलात्कार की घटनाएँ दिन प्रतिदिन बढती ही जा रही है और यह सब भौतिकता के अन्धानुकरण के कारण ही हो रहा है।
मानव जीवन का एक अटूट सत्य यह भी है कि किसी भी राष्ट्र का, समाज का और स्वयं मानव का भी निर्माण एक माता के गर्भ में ही होता है, और यह भी एक माता पर ही निर्भर करता है कि उसे किस तरह की संतान को उत्पन्न करके उसे समाज के अर्पित करना है । परन्तु आज जिस तरह के मानव का निर्माण समाज में हो रहा है, उसको देख कर तो लगता है कि आज की माताओं को उनके कर्तव्य का ही बोध नहीं रहा । वह अनजाने में ही अपनी संतानों को एक अनिश्चित अंधकारपूर्ण भविष्य की ओर धकेलती जा रही है, जो आज प्रत्यक्ष ही दृष्टिगोचर हो रहा है ।
माँ तो कभी ऐसी नहीं होती, जो जान बूझ कर अपनी संतानों को अन्धकार में धकेल दे, वह तो ममता की मूर्त होती है । माँ तो वह होती है जो एक क्या हजारों जन्म भी अपनी संतानों पर न्योछावर कर दे । आज जो कुछ भी अनहोनी समाज में हो रही है उसका कारण एक मात्र अज्ञान और अज्ञान ही है।
एक ऐसी ही कर्तव्यनष्ठ व धर्म परायण माँ थी माता मदालसा जो भारतीय इतिहास में कहीं दबी पड़ी लुप्त प्राय ही थी । जिसे शायद हम कभी देख ना पाये, कभी सुन ना पाये, कभी समझ ना पाये । एक ऐसी माँ की कहानी जिसने अपनी संतानों को अपनी मीठीं – मीठीं लोरियां सुना सुना कर ब्रह्मज्ञानी बना दिया। उसने ब्रह्मज्ञान का उपदेश लोरियों के रूप में अपनी संतानों को दिया और जैसा चाहा अपनी संतान को बना दिया। वह माँ थी माँ मदालसा। आज के मौजूदा संदर्भों में भी माँ मदालसा के बोधितत्व आख्यानों पे दृष्टिपात कर विचार करें और एक उन्नत, सुसंस्कारी , सुखी , शांत व आनंदित संसार के निर्माण के सूत्रधार बनें ।
” हे पुत्र, तू शुद्ध आत्मा है। तेरा कोई नाम नहीं है। इस शरीर के लिए कल्पित नाम तो तुझे अभी इसी जीवन में मिला है। यह शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना हुआ है। कोई जीव पिता के रूप में प्रसिद्ध है तो कोई पुत्र कहलाता है। कोई स्त्री माता है तो कोई प्राणप्रिया पत्नी।” कोई “यह मेरा है” ऎसा कहकर अपनाया जाता है तो कोई “यह मेरा नहीं है” ऎसा कहकर ठुकराया जाता है। सांसारिक पदार्थ नाना रूपों को धारण करते हैं, जिन्हें तुम पहचान लो। “
यह प्रवचन किसी गुरू का अपने शिष्य को नहीं बल्कि बेटे के लिए उसकी माता का है। ऎसी सच्ची माता थी मदालसा। उसी महान माता मदालसा का महान उपदेश ज्यो का त्यों नीचे लिखी पंक्तियों में दिया जा रहा है । हम सभी को इससे शिक्षा ले कर एक ऐसी संतान का निर्माण करना चाहिए ।
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मदालसा का अपने पुत्रों को ब्रह्मज्ञान का उपदेश
शुद्धोसि बुद्धोसि निरंजनोऽसि,संसारमाया परिवर्जितोऽसि
संसारस्वप्नं त्यज मोहनिद्रामदालसोल्लपमुवाच पुत्रम्॥
पुत्र यह संसार परिवर्तनशील और स्वप्न के सामान है इसलिये मॊहनिद्रा का त्याग कर क्योकि तू शुद्ध ,बुद्ध और निरंजन है।
शुद्धो sसिं रे तात न तेsस्ति नाम कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव ।
पंचात्मकम देहमिदं न तेsस्ति नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतो: ॥
हे तात! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। वह शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है?
न वा भवान् रोदिति वै स्वजन्मा शब्दोsयमासाद्य महीश सूनुम् ।
विकल्प्यमाना विविधा गुणास्ते-sगुणाश्च भौता: सकलेन्द्रियेषु ॥
अथवा तू नहीं रोता है, यह शब्द तो राजकुमार के पास पहुँचकर अपने आप ही प्रकट होता है। तेरी संपूर्ण इन्द्रियों में जो भाँति भाँति के गुण-अवगुणों की कल्पना होती है, वे भी पाञ्चभौतिक ही है?
भूतानि भूतै: परि दुर्बलानि वृद्धिम समायान्ति यथेह पुंस: ।
अन्नाम्बुदानादिभिरेव कस्य न तेsस्ति वृद्धिर्न च तेsस्ति हानि: ॥
जैसे इस जगत में अत्यंत दुर्बल भूत, अन्य भूतों के सहयोग से वृद्धि को प्राप्त होते है, उसी प्रकार अन्न और जल आदि भौतिक पदार्थों को देने से पुरुष के पाञ्चभौतिक शरीर की ही पुष्टि होती है । इससे तुझ शुद्ध आत्मा को न तो वृद्धि होती है और न हानि ही होती है।
त्वं कञ्चुके शीर्यमाणे निजेsस्मिं- स्तस्मिश्च देहे मूढ़तां मा व्रजेथा: ।
शुभाशुभै: कर्मभिर्दहमेत- न्मदादि मूढै: कंचुकस्ते पिनद्ध: ॥
तू अपने उस चोले तथा इस देहरुपि चोले के जीर्ण शीर्ण होने पर मोह न करना। शुभाशुभ कर्मो के अनुसार यह देह प्राप्त हुआ है। तेरा यह चोला मद आदि से बंधा हुआ है, तू तो सर्वथा इससे मुक्त है ।
तातेति किंचित् तनयेति किंचि- दम्बेती किंचिद्दवितेति किंचित्।
ममेति किंचिन्न ममेति किंचित् त्वं भूतसंग बहु मानयेथा: ॥
कोई जीव पिता के रूप में प्रसिद्ध है, कोई पुत्र कहलाता है, किसी को माता और किसी को प्यारी स्त्री कहते है, कोई “यह मेरा है” कहकर अपनाया जाता है और कोई “मेरा नहीं है”, इस भाव से पराया माना जाता है। इस प्रकार ये भूतसमुदाय के ही नाना रूप है, ऐसा तुझे मानना चाहिये ।
दु:खानि दु:खापगमाय भोगान् सुखाय जानाति विमूढ़चेता: ।
तान्येव दु:खानि पुन: सुखानि जानाति विद्वानविमूढ़चेता: ॥
यद्यपि समस्त भोग दु:खरूप है तथापि मूढ़चित्तमानव उन्हे दु:ख दूर करने वाला तथा सुख की प्राप्ति करानेवाला समझता है, किन्तु जो विद्वान है, जिनका चित्त मोह से आच्छन्न नहीं हुआ है, वे उन भोगजनित सुखों को भी दु:ख ही मानते है।
हासोsस्थिर्सदर्शनमक्षि युग्म- मत्युज्ज्वलं यत्कलुषम वसाया: ।
कुचादि पीनं पिशितं पनं तत् स्थानं रते: किं नरकं न योषित् ॥
स्त्रियों की हँसी क्या है, हड्डियों का प्रदर्शन । जिसे हम अत्यंत सुंदर नेत्र कहते है, वह मज्जा की कलुषता है और मोटे मोटे कुच आदि घने मांस की ग्रंथियाँ है, अतः पुरुष जिस पर अनुराग करता है, वह युवती स्त्री क्या नरक की जीती जागती मूर्ति नहीं है?
यानं क्षितौ यानगतश्च देहो देहेsपि चान्य: पुरुषो निविष्ट: ।
ममत्वमुर्व्यां न तथा यथा स्वे देहेsतिमात्रं च विमूढ़तैषा ॥
पृथ्वी पर सवारी चलती है, सवारी पर यह शरीर रहता है और इस शरीर में भी एक दूसरा पुरुष बैठा रहता है, किन्तु पृथ्वी और सवारी में वैसी अधिक ममता नहीं देखी जाती, जैसी कि अपने देह में दृष्टिगोचर होती है। यही मूर्खता है ।
धन्योs सि रे यो वसुधामशत्रु- रेकश्चिरम पालयितासि पुत्र ।
तत्पालनादस्तु सुखोपभोगों धर्मात फलं प्राप्स्यसि चामरत्वम ॥
धरामरान पर्वसु तर्पयेथा: समीहितम बंधुषु पूरयेथा: ।
हितं परस्मै हृदि चिन्तयेथा मनः परस्त्रीषु निवर्तयेथा: ॥
सदा मुरारिम हृदि चिन्तयेथा- स्तद्धयानतोs न्त:षडरीञ्जयेथा: ।
मायां प्रबोधेन निवारयेथा ह्यनित्यतामेव विचिंतयेथा: ॥
अर्थागमाय क्षितिपाञ्जयेथा यशोsर्जनायार्थमपि व्ययेथा:।
परापवादश्रवणाद्विभीथा विपत्समुद्राज्जनमुध्दरेथाः॥
बेटा ! तू धन्य है, जो शत्रुरहित होकर अकेला ही चिरकाल तक इस पृथ्वी का पालन करता रहेगा। पृथ्वी के पालन से तुझे सुखभोगकी प्राप्ति हो और धर्म के फलस्वरूप तुझे अमरत्व मिले। पर्वों के दिन ब्राह्मणों को भोजन द्वारा तृप्त करना, बंधु-बांधवों की इच्छा पूर्ण करना, अपने हृदय में दूसरों की भलाई का ध्यान रखना और परायी स्त्रियों की ओर कभी मन को न जाने देना । अपने मन में सदा भगवान का चिंतन करना, उनके ध्यान से अंतःकरण के काम-क्रोध आदि छहों शत्रुओं को जीतना, ज्ञान के द्वारा माया का निवारण करना और जगत की अनित्यता का विचार करते रहना । धन की आय के लिए राजाओं पर विजय प्राप्त करना, यश के लिए धन का सद्व्यय करना, परायी निंदा सुनने से डरते रहना तथा विपत्ति के समुद्र में पड़े हुए लोगों का उद्धार करना ।
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मदालसा की कहानी सिद्ध करती है हिन्दू संस्कृति में माँ का सर्वोच्च स्थान: ।।माता गुरूतरो भूमेः।।
महाभारत में जब यक्ष धर्मराज युधिष्ठिर से सवाल करते हैं कि ‘भूमि से भारी कौन?’ तब युधिष्ठर जवाब देते हैं, ‘माता गुरूतरा भूमेः युधिष्ठिर द्वारा माँ के इस विशिष्टता को प्रतिपादित करना यूं ही नहीं है आप अगर वेद पढ़ेंगें तो वेद माँ की महिमा बताते हुए कहती है कि माँ के आचार-विचार अपने शिशु को सबसे अधिक प्रभावित करतें हैं। इसलिये संतान जो कुछ भी होता है उसपर सबसे अधिक प्रभाव उसकी माँ का होता है। माँ धरती से भी गुरुत्तर इसलिये है क्योंकि उसके संस्कारों और शिक्षाओं में वो शक्ति है जो किसी भी स्थापित मान्यता, धारणाओं और विचारों की प्रासंगिकता खत्म कर सकती है।
इन बातों का बड़ा सशक्त उदाहारण हमारे पुराणों में वर्णित माँ मदालसा के आख्यान में मिलता है। मदालसा राजकुमार ऋतुध्वज की पत्नी थी। ऋतुध्वज एक बार असुरों से युद्ध करने गये, युद्ध में इनकी सेना असुर पक्ष पर भारी पड़ रही थी, ऋतुध्वज की सेना का मनोबल टूट जाये इसलिये मायावी असुरों ने ये अफवाह फैला दी कि ऋतुध्वज मारे गये हैं। ये खबर ऋतुध्वज की पत्नी मदालसा तक भी पहुँची तो वो इस गम को बर्दाश्त नहीं कर सकी और इस दुःख में उसने अपने प्राण त्याग दिये। इधर असुरों पर विजय प्राप्त कर जब ऋतुध्वज लौटे तो वहां मदालसा को नहीं पाया। मदालसा के गम ने उन्हें मूर्छित कर दिया और राज-काज छोड़कर अपनी पत्नी के वियोग में वो विक्षिप्तों की तरह व्यवहार करने लगे। ऋतुध्वज के एक प्रिय मित्र थे नागराज। उनसे अपने मित्र की ये अवस्था देखी न गई और वो हिमालय पर तपस्या करने चले गये ताकि महादेव शिव को प्रसन्न कर सकें। शिव प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा तो नागराज ने उनसे अपने लिये कुछ न मांग कर अपने मित्र ऋतुध्वज के लिये मदालसा को पुनर्जीवित करने की मांग रख दी। शिवजी के वरदान से मदालसा अपने उसी आयु के साथ मानव-जीवन में लौट आई और पुनः ऋतूध्वज को प्राप्त हुई।
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मदालसा द्वारा शिशुओं को सच्चा ज्ञान देना
मृत्यु के पश्चात मिले पुनर्जीवन ने मदालसा को मानव शरीर की नश्वरता और जीवन के सार-तत्व का ज्ञान करा दिया था, अब वो पहले वाली मदालसा नहीं थी लेकिन उसने अपने व्यवहार से इस बात को प्रकट नहीं होने दिया। पति से वचन लिया कि होने वाली संतानों के लालन-पालन का दायित्व उसके ऊपर होगा और पति उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगें। मदालसा गर्भवती हुई तो अपने गर्भस्थ शिशु को संस्कारित करने लगी। उसे भी वो ज्ञान देने लगी जिस ज्ञान से वो स्वयं परिपूर्ण थी। वो अपने गर्भस्थ शिशु को लोरी सुनाते हुये कहती थी कि ऐ मेरे बेटे, तू शुद्ध है, बुद्ध है, संसार की माया से निर्लिप्त है। एक के बाद एक तीन पुत्र हुए, पिता क्षत्रिय थे, उनकी मान्यता थी कि पुत्रों का नाम भी क्षत्रिय-गुणों के अनुरूप हो इसलिये उस आधार पर अपने पुत्रों का नाम रखा, विक्रांत, सुबाहू और शत्रुमर्दन। उसके सारे पुत्र मदालसा से संस्कारित थे, मदालसा ने उन्हें माया से निर्लिप्त निवृतिमार्ग का साधक बनाया था इसलिये सबने राजमहल त्यागते हुये संन्यास ले लिया। पिता बड़े दु:खी हुये कि ऐसा हुआ तो कैसे चलेगा।
मदालसा फिर से गर्भवती हुई तो पति ने अनुरोध किया कि हमारी सब संतानें अगर निवृतिमार्ग की पथिक बन गई तो ये विराट राज-पाट को कौन संभालेगा इसलिये कम से कम इस पुत्र को तो राजकाज की शिक्षा दो। मदालसा ने पति की आज्ञा मान ली। जब चौथा पुत्र पैदा हुआ तो पिता अपने पहले तीन पुत्रों की तरह उसका नाम भी क्षत्रियसूचक रखना चाहते थे जिसपर मदालसा हँस पड़ी और कहा, आपने पहले तीन पुत्रों के नाम भी ऐसे ही रखे थे उससे क्या अंतर पड़ा फिर इसका क्षत्रियोचित नाम रखकर भी क्या हासिल होगा। राजा ऋतुध्वज ने कहा, फिर तुम ही इसका नाम रखो। मदालसा ने चौथे पुत्र को अलर्क नाम दिया और उसे राजधर्म और क्षत्रियधर्म की शिक्षा दी।
महान प्रतापी राजा अलर्क:
अलर्क दिव्य माँ से संस्कारित थे इसलिये उनकी गिनती सर्वगुणसंपन्न राजाओं में होती है। उन्हें राजकाज की शिक्षा के साथ माँ ने न्याय, करुणा, दान इन सबकी भी शिक्षा दी थी। वाल्मीकि रामायण में आख्यान मिलता है कि एक नेत्रहीन ब्राह्मण अलर्क के पास आया था और अलर्क ने उसे अपने दोनों नेत्र दान कर दिये थे। इस तरह अलर्क विश्व के पहले नेत्रदानी हैं। इस अद्भुत त्याग की शिक्षा अलर्क को माँ मदालसा के संस्कारों से ही तो मिली थी।
बालक क्षत्रिय कुल में जन्मा हो तो ब्रह्मज्ञानी की जगह रणकौशल से युक्त होगा, नाम शूरवीरों जैसे होंगें तो उसी के अनुरूप आचरण करेगा इन सब स्थापित मान्यताओं को मदालसा ने एक साथ ध्वस्त करते हुए दिखा दिया कि माँ अगर चाहे तो अपने बालक को शूरवीर और शत्रुंजय बना दे और वो अगर चाहे तो उसे धीर-गंभीर, महात्मा, ब्रह्मज्ञानी और तपस्वी बना दे। अपने पुत्र को एक साथ साधक और शासक दोनों गुणों से युक्त करने का दुर्लभ काम केवल माँ का संस्कार कर सकता है जो अलर्क में माँ मदालसा ने भरे थे।
स्वामी विवेकानंद ने यूं ही नहीं कहा था कि अगर मेरी कोई संतान होती तो मैं जन्म से ही उसे मदालसा की लोरी सुनाते हुये कहता-, “त्वमअसि निरंजन”
भारत की धरती मदालसा की तरह अनगिनत ऐसे माँओं की गाथाओं से गौरवान्वित है जिसने इस भारत भूमि और महान हिन्दू धर्म को चिरंजीवी बनाये रखा है। ये यूं ही नहीं है कि परमेश्वर और देवताओं की अभ्यर्चनाओं से भरे ऋग्वेद में ऋषि वो सबकुछ माँ से मांगता है जिसे प्रदत्त करने के अधिकारी परमपिता परमेश्वर को माना जाता है, ऋषि माँ से अभ्यर्चना करते हुए कहता है,
हे उषा के समान प्राणदायिनी माँ। हमें महान सन्मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करो, तुम हमें नियम-परायण बनाओं और हमें यश तथा अद्भुत ऐश्वर्य प्रदान करो। माँ की महिमा का इससे बड़ा प्रमाण और कहीं मिलेगा ?
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माता-पिता का जीवन उच्च आदर्श में गढ़ा होना चाहिये.!!
ज्ञानी जनों के मुख से निकली बातों में बहुत बल होता है। क्योंकि वे लोग स्वयं जो देखते हैं, उपलब्धी कर चुके होते हैं; वही बात कहते हैं। केवल अनुमान के आधार पर, या दूसरों से सुनकर, या पुस्तकों को पढ़ कर वे कुछ नहीं कहते हैं। इसीलिए उनकी बातों में इतनी शक्ति आ जाती है। उनकी बातें सीधा श्रोताओं के हृदय को स्पर्श करती हैं, और वहाँ अपनी एक छाप छोड़ जाती हैं।
राजा ऋतुध्वज का पातालकेतु के साथ हुऐ युद्ध के समय एक झुठी खबर सुनने के बाद हुई मृत्यु के बाद दुबारा अपने सशरीर में वापस लौट आने के कारण मदालसा के मन का अज्ञान अब मिट चुका था। जीवन का सार तत्व, इसका चरम तत्व, उनको ज्ञात हो चुका था। किन्तु इस बात को वे किसी के सामने प्रकट नहीं करती थीं।
जैसे साधारण लोग जीवन यापन करते हैं, उसी प्रकार वे भी अपना जीवन यापन करती थीं। किन्तु ज्ञान की बात केवल अपने पुत्रों को ही सुनाती थीं। अपने लड़के को पालने में रख कर, झुलाते झुलाते यह लोरी गा कर सुनाती थीं-
हे तात! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। वह शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है?
यह कल्पित नाम ‘ विक्रान्त ‘ तो तुझे अभी मिला है। तुम्हारा (आत्मा का) न तो जन्म है, न मृत्यु। तुम भय, शोक, आदि दुःख से परे हो। शरीर के भीतर तुम हो, किन्तु तुम शरीर नहीं हो। तुम हो मेरे लाल, निरंजन ! अति पावन निष्पाप !
अथवा तू नहीं रोता है, यह शब्द तो राजकुमार के पास पहुँचकर अपने आप ही प्रकट होता है। तेरी संपूर्ण इन्द्रियों में जो भाँति भाँति के गुण-अवगुणों की कल्पना होती है वे भी पाञ्चभौतिक ही है?
जैसे इस जगत में अत्यंत दुर्बल भूत अन्य भूतों के सहयोग से वृद्धि को प्राप्त होते है, उसी प्रकार अन्न और जल आदि भौतिक पदार्थों को देने से पुरुष के पाञ्चभौतिक शरीर की ही पुष्टि होती है । इससे तुझ शुद्ध आत्मा को न तो वृद्धि होती है और न हानि ही होती है।
तुम्हारा शरीर जैसे एक दिन जन्मा है, उसी प्रकार एकदिन नष्ट भी हो जायेगा। जिस प्रकार पुराने वस्त्र फट जाने पर लोग उसको त्याग देते हैं, शरीर का त्याग भी ठीक वैसा ही है। शरीर नष्ट होने से तुम्हारा कुछ नहीं नष्ट होता। तुम तो आनन्दमय आत्मा हो; फिर किस लिये रो रहे हो ?
तू अपने उस चोले तथा इस देहरुपि चोले के जीर्ण शीर्ण होने पर मोह न करना। शुभाशुभ कर्मो के अनुसार यह देह प्राप्त हुआ है। तेरा यह चोला (शरीर और मन) षड रिपुओं काम,क्रोध,लोभ, मद,मोह मात्सर्य आदि से बंधा हुआ है (तू तो सर्वथा इससे मुक्त है) ।
कोई जीव पिता के रूप में प्रसिद्ध है, कोई पुत्र कहलाता है, किसी को माता और किसी को प्यारी स्त्री कहते है, कोई ‘यह मेरा है’ कहकर अपना माना जाता है और कोई ‘मेरा नहीं है’ इस भाव से पराया माना जाता है। किन्तु ये सभी भूतसमुदाय के ही नाना रूप है, ऐसा तुझे मानना चाहिये।
यद्यपि समस्त भोग दु:खरूप है तथापि मूढ़चित्तमानव उन्हे दु:ख दूर करने वाला तथा सुख की प्राप्ति करानेवाला समझता है, किन्तु जो विद्वान है, जिनका चित्त मोह से आच्छन्न नहीं हुआ है, वे उन भोगजनित सुखों को भी दु:ख ही मानते है।
स्त्रियों की हँसी क्या है, कंकाल के हड्डियों का प्रदर्शन । जिसे हम अत्यंत सुंदर नेत्र कहते है, वह मज्जा की कलुषता है। और मोटे मोटे कुच आदि घने मांस की ग्रंथियाँ है, अतः पुरुष जिस स्त्री शरीर पर अनुराग करता है, उस युवती स्त्री के शरीर में आसक्त होकर पाशविक विचारों से ग्रस्त रहना क्या नरक की अवस्था में रहने जैसा नहीं है?
पृथ्वी पर सवारी चलती है, सवारी पर यह शरीर रहता है और इस शरीर में भी एक दूसरा पुरुष बैठा रहता है, किन्तु पृथ्वी और सवारी में वैसी अधिक ममता नहीं देखी जाती, जैसी कि अपने देह में दृष्टिगोचर होती है। यही मूर्खता है।
मदालसा को कालान्तर में दो पुत्र और हुए और उन दोनों को भी महारानी ने बाल्यकाल से ही ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया ,और वे तीनों ही निवृत्ति मार्गी ( संसारत्यागी) संन्यासी बन गये। वे तीनों भाई राज्य छोड़कर कठोर साधना करने लगे।
भारत में मनुष्य जीवन को १०० वर्षों का मानकर उसे चार आश्रमों में बाँटा गया है –
१. विद्यार्थी का जीवन जिसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहते हैं।
२. विवाहित गृहस्थ का जीवन जिसे गृहस्थ आश्रम कहते हैं।
३. रिटायरमेंट के बाद समाज में चरित्रनिर्माण कारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने वाले लोक-शिक्षक का जीवन जिसे वानप्रस्थ आश्रम कहते हैं।
४. प्रवृत्ति मार्ग से चलते हुए ‘निवृत्ति अस्तु महाफला ‘ का श्रवण, मनन निदिध्यासन करते करते पूर्णतया त्यागी जीवन -निवृत्ति मार्ग में उन्नत हो जाना, उसे संन्यास आश्रम कहते हैं। किन्तु महारानी मदालसा ने अपने तीनों पुत्रों को बचपन से ही (ब्रह्म) ज्ञान और वैराग्य का उपदेश देकर निवृत्तिमार्गी संन्यासी बना दिया।
मदालसा शब्दका अर्थ ही होता है मदः अलसः यया सा मदालसा अर्थात् जिनके कारण मद नीरस हो जाता है वे हैं मदालसा। माँ मदालसा ने यह प्रतिज्ञा की थी कि उनके गर्भ में जो बालक आ जाएगा वह दुबारा किसी दूसरी माता के गर्भ में नहीं आएगा।
इसीलिये जब चतुर्थ बालक ने जन्म लिया तब महारानी उसे भी बचपन से ही जब निवृत्तिमार्ग की शिक्षा देने लगी। उस समय महाराज ने मदालसा से विनती की कि-देवि! पितृ-पितामह के समय से चले आये मेरे इस राज्य को चलाने के लिये तो एक बालक को राजा बनना ही चाहिये, अतः इसको विरक्त मत बनाइये। मदालसाने महाराजकी बात मान ली, लेकिन मदालसा ने कहा कि उसका नाम मैं रखूंगी। उसने इस पुत्र का नाम “अलर्क” रखा।
जिसका अर्थ होता है मदोन्मत्त व्यक्ति या पागल कुत्ता। यह राज्य करेगा इसलिए यह राज के मद में उन्मत्त होगा व प्रजाजनों के कर से प्राप्त होने वाले संसाधनों को अत्यधिक भोगने लगेगा तो उसके पागल कुत्ते की तरह कहीं भोगी हो जाने की संभावना न हो। इसीलिये और अपने चौथे पुत्र को प्रवृत्तिमार्ग के कर्मयोग, भक्तियोग और राजयोग का उपदेश इस प्रकार दिया:
बेटा ! तू धन्य है, जो शत्रुरहित होकर अकेला ही चिरकाल तक इस पृथ्वी का पालन करता रहेगा। पृथ्वी के पालन से तुझे सुखभोगकी प्राप्ति हो और धर्म के फलस्वरूप तुझे अमरत्व मिले।
पर्वों के दिन ब्राह्मणों को भोजन द्वारा तृप्त करना, बंधु-बांधवों की इच्छा पूर्ण करना, अपने हृदय में दूसरों की भलाई का ध्यान रखना और परायी स्त्रियों की ओर कभी मन को न जाने देना । अपने मन में सदा श्रीविष्णुभगवान के किसी अवतार का चिंतन करना, उनके ध्यान से अंतःकरण के काम-क्रोध आदि छहों शत्रुओं को जीतना, ज्ञान के द्वारा माया का निवारण करना और जगत की अनित्यता का विचार करते रहना ।
धन की आय के लिए राजाओं पर विजय प्राप्त करना, यश के लिए धन का सद्व्यय करना परायी निंदा सुनने से डरते रहना तथा विपत्ति के समुद्र में पड़े हुए लोगों का उद्धार करना।
अन्ततोगत्वा मदालसा ने उसे एक उपदेश भी लिखकर अलर्क के हाथ में विराजमान मुद्रिका के भीतर छिपाकर रख दिया, और कहा – “जब कोई बड़ी विपत्ति पड़े,या संकटों से घिर जाओ तब तुम यह उपदेश पढ़ लेना।” अलर्क राजा हुए और उन्होंने गङ्गा-यमुना के संगम पर अपनी अलर्कपुरी नाम की राजधानी बनायी(जो आजकल अरैल के नाम से प्रसिद्ध है।)
किन्तु अलर्क भी राज के मोह में आसक्त हो गया । माता के उपदेश को भूल गया । तीनों भाई आये, खबर कराई कि आपके भ्राता आये हैं ।
अलर्क ने नमस्कार किया और कहा ~ ‘‘आज्ञा ।’’ भ्राताओं ने कहा ~ ‘‘माता की प्रतिज्ञा को सत्य करो, अपने पुत्रों को राज देकर हमारे साथ चलो ।’’ वह हँसने लगा और बोला ~ ‘‘तुम तो फकीर हो ही, मुझे भी फकीर बनाना चाहते हो ? चलो, किले से बाहर हो जाओ ।’’ वे तीनों काशीराज मामा के पास गये।
सेना लेकर आये और अलर्क के राज को घेऱ लिया । जब अलर्क ने किले के उपर चढ़ कर देखा, तो चारों तरफ सेना है । वह उदास हो गया। तब माता का उपदेश याद आया और यंत्र को खोलकर कागज निकाला ।
उसमें माता ने लिखा था ~ हे पुत्र ! तू शुद्ध है, तू बुद्ध है, तू निरंजन है, संसार रूप माया से तू वर्जित अर्थात निर्लिप्त है । संसार स्वप्न के समान प्रतिभासिक सत्ता वाला है । इस मोह रूपी निद्रा से आँखें खोल । यह माता मदालसा के वचन हैं, विचार कर।
जब अलर्क ने इस श्लोक का विचार किया, तो ज्ञान हो गया; अलर्क प्रवृत्ति को छोड़कर निवृत्ति के मार्ग में आ गए। और खुले सिर नंगे पांव जैसे था, वैसे ही उठकर चल पड़ा। और ‘‘अहं शुद्धोऽसि, अहं बुद्धोऽसि, अहं निरंजनोऽसि’’ इस प्रकार बोलते हुए को भ्राताओं ने देखा।सेना ने रास्ता दे दिया । जंगल में दत्तात्रेय महाराज से जाकर मिला।
गुरुदेव ने अलर्क को आत्म – ज्ञान का उपदेश दे – देकर शीतल बना दिया। महाराज अलर्क उसी समय राज्य को अपने पुत्र राजा को सुपुर्द करके वन चले गये। इस प्रकार योग्य माता मदालसा ने अपने चारों पुत्रों को ब्रह्मज्ञानी बना दिया। उसके पुत्रों को राज देकर तीनों भ्राताओं ने भी माता की प्रतिज्ञा को सत्य किया।
मदालसा स्वयं ज्ञानी थीं, इसीलिए अपने बच्चों को भी ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी बना दी थीं। उनकी बातो को सुनने से उनको चैतन्य हो गया था। मातापिता स्वयं अपने जीवन में यदि उच्च आदर्श को रूपायित कर सकें, तो उनके उपदेश को सुनने से, उनके बच्चे भी योग्य मनुष्य बन जाते हैं। खोखले उपदेशों से ज्यादा लाभ नहीं होता।