याज्ञसेनी नाम था उसका। महर्षि धौम्य ने जन्म के बाद उसको अवभृत स्नान कराया था। यह जन्म सामान्य बात न थी। अग्निजा थी वह। अरणियों से प्रज्ज्वलित धूमरहित वह्नि शिखाओं को पिया था उसने। माता का दूध क्या होता है, उसे न पता था और न ही वह यह जानने के लिए जन्मी ही थी। जन्म से पहले ही उसे उसका उद्देश्य पता था। वह्नि शिखाओं से झुलस कर वह काली पड़ गयी थी। स्यात् इसीलिए कृष्णा नाम भी पड़ गया। पर यही एक मात्र योग्यता न थी उसकी जनार्दन भगवान श्रीकृष्ण की मानिनी भगिनी होने की। उसके गुणों ने ही उसे माधव की सहोदरा सुभद्रा से श्रेष्ठ और आदृता बना दिया था। पर यह भी उसका वैभव न था, यह भी उसका श्रेय न था प्रातः स्मरणीया पञ्चकन्याओं में आदृता होने का। कारण था उसका जीवन, उसके निर्णय, उसका प्रतिशोध, उसकी दृष्टि, उसकी उदारता, उसका वैभव, उसका प्रेम, उसका पराक्रम जिसकी चर्चा के बिना महाभारत अधूरी है। वह इतने ऊँचे खड़ी है जितने कि स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर ! वह अकेली धृतराष्ट्र और धार्तराष्ट्रों के लिए क्रुद्ध नागिन की भाँति आतङ्कित करने वाली थी। वह याज्ञसेनी ही थी जिसे कभी मोह न हुआ था और न ही अपने लक्ष्य के प्रति संशय। वह महाबली भीम की भुजाओं का पराक्रम थी तो अर्जुन के पैने नाराचों की धार थी, युधिष्ठिर के भाले की नोक थी तो सहदेव के खड्ग की जिह्वा।
माधव ने बताया था कि अर्जुन के अतिरिक्त और कोई उसका स्वामी होने का सामर्थ्य नहीं रखता। यही कारण था कि उसे स्वयंवर में ब्राह्मण वेषधारी अर्जुन के बाणों का संधान पहचानने में तनिक भी संदेह न हुआ। वह अकेले दुर्योधन और उसके दुष्ट मित्र कर्ण को अपना वरण करने से रोकने में आ खड़ी हुई जब कि उसके पिता द्रुपद और भाई धृष्टद्युम्न भी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे कि कर्ण को मना कैसे करें! सास कुन्ती के सामने लाजवन्ती सी खड़ी वह वधू अनायास ही पाँचों भाइयों में बँट गयी पर उसने दोष न दिया अपितु धर्म और न्याय की बात करते हुए सारी अवस्थिति से अपने पिता और वयोवृद्धों का निर्णय जानना चाहा। कभी स्वयं को द्रौपदी के स्थान पर खड़ा कर के सोचियेगा। रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
कितना ही पराक्रम रहा होगा उस वीरबाला का जिसने धर्माचार्यों और महाबलियों की उस महासभा में पहली बार धर्म का मर्म जानने वालों को निरुत्तर कर दिया था। वह गार्गी न थी पर गार्गी से कम भी न थी। यह द्रौपदी ही थी जिसने नारी के स्वतंत्र अस्तित्व को पुरुष से परे स्थापित किया था। यह द्रौपदी ही थी जिसने कहा था कि मैंने स्वामी चुना है, स्वामी ने मुझे नहीं। और याद रखना चुनने वाला सदा अधिक सामर्थ्यवान होता है। यह द्रौपदी ही थी जिसने यह तय किया था कि पत्नी सम्पत्ति नहीं है अपितु सहचरी है। यह द्रौपदी ही थी जिसने आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए मर्यादा की एक अमिट रेखा खींच दी थी। यह द्रौपदी ही थी जिसकी मर्यादा की रेखा बचाने के लिए राघव नहीं अपितु स्वयं श्रीकृष्ण आये थे। यह द्रौपदी ही थी कि जिसने पाँचों पाण्डवों को षड्यंत्रों से बचाये रखा। जिसे अन्नपूर्णा होने का आशीष मिला। जिसके लिए कुबेर की अलकापुरी ने पलक-पाँवड़े बिछाये थे। यह द्रौपदी ही थी जिसने मर्यादा का उल्लंघन करने वाले १०५ भाइयों के अकेले बहनोई जयद्रथ की दुर्गति कर भगा दिया था। यह सैरंध्री द्रौपदी ही थी जिसने राजा विराट के राज्य में महाराज और महारानी से दुष्कर्म करने का समर्थन प्राप्त कीचक के रक्त से केश भिगोये थे। है आप में इतना साहस???
यह द्रौपदी ही थी जिसने धर्मराज को भी धर्म पथ पर अडिग रहने की शिक्षा दी थी। यह द्रौपदी ही थी जिसे आगामी युद्ध को लेकर कभी संशय न था। यह द्रौपदी ही थी जिसे भीष्म ने अपना जीवन देकर भी मानित किया था। यह द्रौपदी ही थी जिसने दुःशासन के लहू से केश धोकर धृतराष्ट्र और गांधारी को आतङ्कित कर दिया था। यह द्रौपदी ही थी जिसने अपने पाँचों पुत्रों के हत्यारे अश्वत्थामा को क्षमा कर दिया था और पुत्रहीना होकर जीवित रहने को अभिशप्त हो गयी थी। है किसी में ये साहस!!
याज्ञसेनी का कोई विकल्प नहीं। याज्ञसेनी सा कोई नहीं। याज्ञसेनी इतिहास में बस एक बार आयी थी और फिर नहीं आयी। स्यात् विश्व दूसरा महाभारत झेल सकने का साहस नहीं कर पाया।